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गंगा-जमुनी तहजीब और हम

मध्य प्रदेश के दमोह जिले के गंगा-जमुना स्कूल की छात्राओं के स्कूली वर्दी (यूनिफार्म) विवाद के बहाने भारत की ‘गंगा-जमुनी’ तहजीब या संस्कृति का मुद्दा सतह पर आ गया है।

मध्य प्रदेश के दमोह जिले के गंगा-जमुना स्कूल की छात्राओं के स्कूली वर्दी (यूनिफार्म) विवाद के बहाने भारत की ‘गंगा-जमुनी’ तहजीब या संस्कृति का मुद्दा सतह पर आ गया है। हिन्दोस्तान के असल हकीकत आज भी यही है कि इस देश के विभिन्न मजहबों व मतों के मानने वाले लोग इसके भूभाग के जिस कोने में भी रहते हैं, सभी भारतीय कहलाये जाते हैं। भारतीय होने के लिए किसी विशिष्ट धर्म या मजहब अथवा मत के मानने वालों का विशेषाधिकार नहीं है। बेशक 1947 में भारत का हिन्दू- मुसलमान के आधार पर विभाजन करके मुहम्मद अली जिन्ना ने इस सुस्थापित विचार को भी खंडित किया। मगर आज 75 साल बाद हम अपनी आंखों से ही पाकिस्तान की बदहाली का नजारा देख रहे हैं और उस मुल्क की अवाम पसोपेश में है कि जिस ‘मुत्तैहदा कौमियत’ को खूंगर करके हिन्दोस्तान के दो टुकड़े किये गये थे उसकी कैफियत सिर्फ जिन्ना की मुस्लिम कौम पर हुक्मबरदारी के अलावा और कुछ नहीं थी।  मगर इसके बावजूद भारत के मुसलमानों का यकीन महात्मा गांधी पर बना रहा और उनकी कौमी इंसानियत का फलसफा पूरी दुनिया में रोशनी बिखेरता रहा जिसके चलते हिन्दोस्तान आजादी के बाद तेजी से तरक्की की राह पर चलता रहा। 
यह गंगा- जमुनी तहजीब ही जलवा था कि भारत के मुसलमानों ने आजादी के बाद से कभी भी किसी मुस्लिम लीडर को अपना रहनुमा नहीं समझा और हमेशा किसी हिन्दू लीडर को ही अपना रहबर समझा। साहित्य से लेकर संगीत और समाज से लेकर संस्कृति में हमें आज भी जो दिलकश छटा दिखाई पड़ती है वह इसी तहजीब का अक्स है। यह मजहब से परे हैं और सामाजिक- आर्थिक समीकरणों के नजदीक है। हिन्दू के बिना किसी मुसलमान का काम नहीं चलता है और मुसलमान के बिना किसी हिन्दू की जीवन शैली अधूरी रहती है। ऐसे में बहुत जरूरी था कि भारत की नई पीढि़यों को बचपन से ही शिक्षा का वह ढांचा दिया जाता जिसमें वे हिन्दू या मुसलमान न दिख कर हिन्दोस्तानी दिखतीं। मगर अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर हमने शिक्षा का भी बंटवारा करने की गलती कर डाली। इस समस्या का निदान हमें मजहब के दायरों में खोजने की जगह हिन्दोस्तानित के दायरे में ढूंढनी चाहिए थी। 
भारत का संविधान धर्म की स्वतन्त्रता निजी आधार पर देता है। इसका मतलब यह है कि प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छानुसार अपना मजहब चुनने की अनुमति है। मजहब उसका घरेलू व निजी मसला है। उसका राज्य या सत्ता से कोई लेना-देना नहीं है। अतः हमारी शिक्षा नीति भी इसी के अनुरूप होनी चाहिए थी जिससे विद्यालयों में प्राइमरी से पढ़ने वाले छात्र सच्चे भारतीय नागरिक हो सकें। अल्पसंख्यक विद्यालयों के नाम पर हम मुस्लिम, जैन, सिख, बौद्ध व पारसी आदि विद्यार्थी बनाने का काम अगर करते हैं तो उससे कहीं न कहीं हमारे भारतीय नागरिक होने के भाव में भेदभाव जरूर पैदा होता है। स्वयं को अलग-थलग दिखाने का नजरिया ही नागरिकों की बराबरी के नजरिये में तरेड़ डालने का काम करता है। विद्यालय में सभी विद्यार्थी एक समान होते हैं अतः इनमें अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक स्कूलों की स्थापना स्वयं में ही विरोधाभासी जान पड़ती है। इस पर भी यदि किसी अल्पसंख्यक स्कूल में विद्यार्थियों की वर्दी या यूनिफार्म स्कूल के नियमानुसार नियत की जाती है तो फिर उसके लागू होने पर विद्यार्थियों में हिन्दू-मुसलमान का भेद करना तर्कसंगत या नियम संगत नहीं है। यदि कोई मुस्लिम स्कूल है तो सभी धर्मों के छात्र-छात्राओं को एक जैसी वर्दी ही पहननी पड़ेगी और उस स्कूल के नियम-कायदे मानने होंगे क्योंकि वह विद्यालय भारत के किसी राज्य के कानूनों के अनुसार ही स्थापित किया गया है। गंगा- जमुनी तहजीब यहीं पर कारगर होती है जब किसी सामान्य विद्यालय में पढ़ने वाला मुस्लिम छात्र या छात्रा उस स्कूल के कायदे-कानूनों को मानते हुए भी मुसलमान ही रहता है और इसी प्रकार किसी सिख या मुस्लिम अल्पसंख्यक विद्यालय में पढ़ने वाला हिन्दू छात्र अपने मजहब का मानना वाला ही रहता है। इस भेदभाव को हम जड़ से ही मिटा सकते हैं। यदि विद्यालयों के गठन में अल्पसंख्यक या सामान्य की श्रेणी को ही समाप्त कर दें। मजहब की शिक्षा घर पर ही दी जाये तो बेहतर है।
 आजादी से पहले जो मदरसा व्यवस्था थी उसमें इसी प्रकार शिक्षा दी जाती थी। मौलवी हिन्दू भी हो सकता था और मुसलमान भी। मदरसों में प्रारम्भिक शिक्षा पाने वालों में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद भी थे और ब्रिगेडियर उस्मान भी। दोनों ही भारत माता के सच्चे सपूत थे। ब्रिगेडियर उस्मान को तो बंटवारे के समय पाकिस्तान का भावी फौजी जनरल बनने तक का लालच दिया गया था मगर वह सच्चे हिन्दोस्तानी ही रहे। आजादी के लड़ाई के दौरान ही जब जमीयत उल-उलेमाएं-हिन्द के संस्थापकों में से एक मौलाना हसन मदनी ने हिन्दू-मुसलमानों की एक राष्ट्रीयता ‘मुत्तैहदा कौमियत’ का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त को चुनौती दी तो वह गंगा-जमुनी तहजीब का ही जीता-जागता नजारा था। उसी समय जब सिन्ध के महान नेता अल्लाबख्श सुमरू ने हिन्दू-मुसलमान के नाम पर मुल्क के बंटवारे का पुरजोर विरोध किया और मुस्लिम लीगी नेताओं को चुनौती दी तो वह भी गंगा-जमुनी तहजीब का ही असर था। इसी प्रकार खान अब्दुल गफ्फार खान का सीमान्त या सरहदी गांधी बनना भी वीर पठानों द्वारा गंगा- जमुनी तहजीब की ही तसदीक थी और तो और महाराणा प्रताप द्वारा अकबर के विरुद्ध अपना सेनापति  मुस्लिम लड़ाका हकीम खान सूर रखना भी गंगा-जमुनी तहजीब का ही द्योतक था। इस तहजीब को गुरू नानक देव जी महाराज से ज्यादा बेहतर शब्दों में किसी और ने आज तक बयान नहीं किया है, और वे शब्द हैं-
‘‘कोई बोले राम- राम, कोई खुदाये 
कोई सैवे गुसैंयां, कोई अल्लाए  
कोई न्हावे तीरथ कोई हज जाये 
कोई करे पूजा कोई सिर नवाये।’’
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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