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हिन्दू फिर निशाने पर

आतंकवाद के हिसाब से बेहद संवेदनशील रहा राजौरी जिला एक बार फिर दहल उठा है। राजौरी के डांगरी गांव में टारगेट किलिंग को अंजाम देते हुए नकाबपोश आतंकियों ने चार हिन्दुओं की हत्या कर दी और 10 अन्य को घायल कर दिया।

आतंकवाद के हिसाब से बेहद संवेदनशील रहा राजौरी जिला एक बार फिर दहल उठा है। राजौरी के डांगरी गांव में टारगेट किलिंग को अंजाम देते हुए नकाबपोश आतंकियों ने चार हिन्दुओं की हत्या कर दी और 10 अन्य को घायल कर दिया। नववर्ष के पहले दिन हुई इन हत्याओं से लोगों में आक्रोश है और मातम का माहौल है। सुरक्षा बलों द्वारा आतंकवादियों के खिलाफ जिस तरह से आक्रामक रुख अपनाया गया है उससे घबरा कर ही आतंकियों ने कायराना हरकत कर अपनी मौजूदगी दिखाने की कोशि​श की है। आतंकियों ने एक घर में घुसकर उसमें रह रहे सदस्यों के आधारकार्ड देखे और फिर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। उसके बाद आतंकियों ने एक-एक कर आसपास के घरों को भी निशाना बनाकर फायरिंग की। आधार कार्ड देखने का अर्थ यही है कि उन्होंने इस बात की शिनाख्त की कि घर में रहने वाले हिन्दू ही हैं। मृतकों में पूर्व सैनिक सतीश कुमार, शिवपाल, प्रीतम लाल और दीपक कुमार शामिल हैं। यह चारों आपस में रिश्तेदार हैं। किसी का सिंदूर उजड़ा, किसी का पिता छिन गया, बच्चे अनाथ हो गए और मां की गोद सूनी हो गई। हैरानी की बात यह है कि नववर्ष के पहले दिन जिस घर पर फायरिंग की गई। उसी घर के पास आईईडी ब्लास्ट हो गया जिसमें एक बच्चे की मौत हो गई और चार अन्य लोग घायल हो गए।
राजौरी हमले की जिम्मेदारी आतंकवादी संगठन टीआरएफ ने ली है। मृतक दीपक का कुछ दिन पहले ही सरकारी नौकरी के लिए चयन हुआ था और उसके परिवार में खुशी का माहौल था। दीपक अपने परिवार में सरकारी नौकरी हासिल करने वाला पहला सदस्य बनने वाला था। उसे कुछ दिन बाद ही ज्वाइन करना था लेकिन आतंकी हमले ने दीपक को ही परिवार से छीन लिया। डांगरी गांव जिला जेल परिसर के पास पड़ता है और थोड़ी ऊंचाई पर है। 16 दिसम्बर को भी फायरिंग में दो लोगों की जान चली गई थी। 15 दिन में दूसरी वारदात पूरे सुरक्षा तंत्र पर सवाल खड़े करती है। इलाके के लोग दहशत में हैं। गांव के एक तरफ सरानू पोठा के घने जंगल हैं। आतंकियों के लिए यह जंगल आवाजाही का रूट रहा है। संवेदनशील इलाका होने की वजह से इसकी कई बार तलाशी ली जा चुकी है। हाल ही में आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैय्यबा के सहयोगी संगठन टीआरएफ द रेसिसटैंस फोर्स ने कश्मीर घाटी में कार्य करने वाले 57 कश्मीरी हिन्दुओं की हिट लिस्ट लगाई गई थी और हिट लिस्ट में शामिल लोगों की हत्या की धमकी दी गई थी। यह पहली बार नहीं है जब कश्मीरी पंडितों को टारगेट किया जा रहा है। कश्मीरी पंडित कर्मचारी लगातार जम्मू संभाग में ट्रांसफर करने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं और काम पर नहीं आ रहे। दुख इस बात का है कि कश्मीरी हिन्दू लगातार आतंक की मार झेल रहे हैं। कश्मीर में हिन्दुओं पर हमलों का सिलसिला 1989 में जिहाद के लिए गठित जमात-ए-इस्लामी ने शुरू किया था जिसने कश्मीर में इस्लामिक ड्रेस कोड लागू कर दिया। आतंकी संगठन का नारा था-‘हम सब एक, तुम भागो या मरो’। इसके बाद कश्मीरी पंडितों ने घाटी छोड़ दी। करोड़ों के मालिक कश्मीरी पंडित अपनी पुश्तैनी जमीन-जायदाद छोड़कर शरणार्थी ​िशविरों में रहने को मजबूर हो गए। हिंसा के प्रारंभिक दौर में 300 से अधिक हिन्दू महिलाओं और पुरुषों की हत्या हुई थी।
घाटी में कश्मीरी पंडितों के बुरे दिनों की शुरूआत 14 सितंबर 1989 से हुई थी। कश्मीर में आतंकवाद के चलते करीब 7 लाख से अधिक कश्मीरी पंडित विस्थापित हो गए और वे जम्मू सहित देश के अन्य हिस्सों में जाकर रहने लगे। कभी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के एक क्षेत्र में हिन्दुओं और शियाओं की तादाद बहुत होती थी लेकिन वर्तमान में वहां हिन्दू तो एक भी नहीं बचे और शिया समय-समय पर पलायन करके भारत में आते रहे जिनके आने का क्रम अभी भी जारी है। विस्थापित कश्मीरी पंडितों का एक संगठन है ‘पनुन कश्मीर’। इसकी स्थापना सन् 1990 के दिसंबर माह में की गई थी। इस संगठन की मांग है कि कश्मीर के हिन्दुओं के लिए कश्मीर घाटी में अलग से राज्य का निर्माण किया जाए। पनुन कश्मीर, कश्मीर का वह हिस्सा है, जहां घनीभूत रूप से कश्मीरी पंडित रहते थे लेकिन 1989 से 1995 के बीच नरसंहार का एक ऐसा दौर चला कि पंडितों व अन्य हिन्दुओं को कश्मीर से पलायन होने पर मजबूर होना पड़ा।
आंकड़ों के मुताबिक इस नरसंहार में 6,000 कश्मीरी पंडितों को मारा गया। 7,50,000 हिन्दुओं को पलायन के लिए मजबूर किया गया। 1500 मंदिर नष्ट कर दिए गए। कश्मीरी पंडितों के 600 गांवों को इस्लामी नाम दिया गया। केन्द्र की रिपोर्ट के अनुसार कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों के अब केवल बहुत कम परिवार रह रहे हैं तथा उनके 59,442 पंजीकृत प्रवासी परिवार घाटी के बाहर रह रहे हैं। कश्मीरी पंडितों के घाटी से पलायन से पहले वहां उनके 430 मंदिर थे। अब इनमें से मात्र 260 सुरक्षित बचे हैं जिनमें से 170 मंदिर क्षतिग्रस्त हैं। आजादी के बाद के 75 वर्षों का हमारा अनुभव बताता है कि सूर्य चाहे शीतल हो जाए, नदियां चाहे अपनी दिशाएं बदल दें, हिमालय चाहे उष्ण हो जाए, न पाकिस्तान कभी सीधे रास्ते पर आ सकता है और न ही आतंकवादी मानसिकता। जम्मू-कश्मीर को अगर बचाना है तो हमें नरभक्षी हो चुके आतंकवादियों को घेर कर मारना होगा। कश्मीर में शांति का स्वप्न तभी पूरा होगा जब आतंकवादी ताकतों को मरघट में बदल दिया जाएगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा 
Adityachopra@punjabkesari.com

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