लाला जगत नारायण जी साहसिक व सैद्धांतिक निर्णय लेने में अग्रणी थे तथा उनकी इस क्षमता के पं. जवाहर लाल नेहरू भी प्रशंसक थे। लालाजी के शब्दों में : ‘जब मैं स्वास्थ्य, परिवहन और शिक्षा मंत्री था, तो उन्हीं दिनों मुझे पंडित नेहरू से मिलने का मौका मिला। मैंने उन्हें बताया कि मैंने बतौर स्वास्थ्य मंत्री पूरे पंजाब में सरकारी सिविल अस्पताल खोले हैं और चंडीगढ़ में देश का पहला मैडिकल संस्थान पी.जी.आई. (PGI) खोला है और पंजाब का परिवहन मंत्री होते हुए पंजाब में प्राईवेट बसों के मुकाबले नई परिवहन नीति के चलते पूरे प्रदेश में परिवहन का राष्ट्रीयकरण करके सरकारी ‘पंजाब रोडवेज’ चलाई है।
साथ ही पंजाब के शिक्षा मंत्री के रूप में प्रदेश की सभी किताबों का भी राष्ट्रीयकरण करने का निर्णय लिया है।’ इस पर नेहरू जी चकित तो हुए परन्तु सफलता का आशीर्वाद भी दिया। लालाजी ने प्रधानमंत्री पं. नेहरू को बताया कि ‘यह भारत में राष्ट्रीयकरण का पहला प्रयोग तो था पर मुझे अपने ही कांग्रेसी बन्धुओं के कारण इसके लिए दुखद अनुभूतियां हुईं और उनका विरोध भी सहना पड़ा।’ 1953 में स. प्रताप सिंह कैरों ने लालाजी को कहा कि वह राष्ट्रीयकरण न करें लेकिन लालाजी धुन के पक्के थे। पंजाब भारत में पहला राज्य था, जहां राष्ट्रीयकरण हुआ।
प्रताप सिंह कैरों ने विपक्ष के कुछ लोगों से मिलकर लालाजी के विरुद्ध 34 अभियोग लगाए जिनकी जांच के लिए ए.आई.सी.सी. ने नेहरू, जी.बी. पंत, मौलाना आजाद आदि की नियुक्ति की। सारे अभियोग झूठे निकले। लालाजी ने फिर भी शिक्षा मंत्रालय का पद त्याग दिया। कई बार मुझे लगता है कि बहुत अधिक नैतिकतावादी होना ही लालाजी की सफलता में रोड़ा बन गया। कहते हैं जो लोग अपने पूर्वजों को स्मरण नहीं करते, उनके दिखाए मार्ग पर नहीं चलते, उनकी वर्तमान और भविष्य की नस्लें नष्ट हो जाती हैं। मैं आज भी लालाजी और पिताजी के बताए रास्ते पर चलने का प्रयास करता हूं। बेबाक और सच्ची लेखनी मुझे ऐसा करने पर मजबूर कर देती है। हमारे समाचार पत्र में एक अनुुभवी लेखक ने मुझे एक बार पंजाबी में कहा था कि
‘ऐना वी ना सच बोल की कल्ला रह जाए’
अर्थात इतना भी सच मत बोल कि तूं एक दिन अकेला ही रह जाए।
लेकिन कर्त्तव्य बोध और दादा तथा पिता के प्रति निष्ठा ऐसा करने नहीं देती। चाचा तो कब का छोड़ गए थे। जब मैं बीमार हुआ तो मेरे सगों ने सोचा कि मैं दुनिया से जा रहा हूं तो वह चंद पैसों में बिक गए, यहां तक कि सगा भाई भी। अब मैं सच में अकेला हो गया हूं लेकिन जीवन और कर्त्तव्य के इस युद्ध में अभिमन्यु भी तो लड़ा था। मैं भी आखिरी दम तक लड़ूंगा, चाहे परिणाम जो भी निकले। मेरे साथ सिर्फ मेरी पत्नी किरण, मेरे तीनों बेटे आदित्य, अर्जुन और आकाश एक Solid Rock की तरह खड़े हैं।
जब लालाजी पंजाब के प्रथम शिक्षा मंत्री बने तो बतौर शिक्षा मंत्री की हैसियत से वह स्कूलों में धार्मिक शिक्षा के पक्षधर थे। वह इस उद्देश्य को मूर्त रूप देने के लिए पंडित जी के पास गए भी, परन्तु धार्मिक शिक्षा को बढ़ावा देने की बात तो दूर रही, नेहरू ने उन पर बड़ा क्रोध किया। साम्प्रदायिक भावना का पोषक बताया। पंजाब में उनके सद्प्रयासों से गांव-गांव में स्कूल खुल गए और ग्रामीण सिख समुदाय के लोग उन्हें देवता की तरह मानने लगे, यह बात भी कैरों को खटकती रही। कैरों को लगा, ‘यह व्यक्ति कल स्वतः ‘चीफ मिनिस्टर’ पद का हकदार हो जाएगा।’
हर संभव कोशिश की जाने लगी कि कैसे उनकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई जाए। लालाजी ने अंततः तंग आकर कांग्रेस पार्टी से ही अपना इस्तीफा दे दिया। बकौल लालाजी : ‘मास्टर तारा सिंह ने इस बात के लिए आन्दोलन छेड़ रखा था कि सरकार सिखों के साथ अन्याय कर रही है और हिन्दुओं की पक्षधर है।’ मास्टर तारा सिंह पंजाब में साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काने हेतु यह भी बोलते थे कि 15 अगस्त 1947 में जब भारत का बंटवारा हुआ तो मुसलमानों को पाकिस्तान और हिंदुओं को हिन्दुस्तान मिला लेकिन सिखों को क्या मिला? प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने सिखों से धोखा किया।
जब सिख नेताओं ने सिखों के लिए अलग सिखीस्तान की मांग की थी, पं. नेहरू ने कहा था कि एक बार 15 अगस्त 1947 को बंटवारा हो जाए तो बाद में सिखों की समस्याओं से निपटा जाएगा और उनके लिए अलग सूबे का इंतजाम किया जाएगा लेकिन अब पं. नेहरू अपने वायदे से मुकर रहे हैं और सिखों के साथ देश की सरकार और पं. नेहरू ने धोखा किया है। इसी बीच कुछ शरारती तत्वों के विरुद्ध तत्कालीन डी.आई.जी. अश्विनी कुमार को कार्यवाही करनी पड़ी। बात बिगड़ती गई और अन्ततः स्वर्गीय भीमसेन सच्चर को दिल्ली से हाईकमान के आदेश पर मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा। उसके बाद लालाजी ने स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा।
लालाजी 1957 और 1962 में चुनाव लड़े, परन्तु जो लोग उनके पीछे लगे हुए थे, उन्होंने मिलकर उन्हें हरा दिया। फिर 1965 में लालाजी राज्यसभा चुनाव लड़ेे और 1965 में ही लालाजी राज्यसभा के लिए चुन लिए गए। कांग्रेस के तथाकथित बड़े ‘नामचीन’ लोगों को इससे बड़ा धक्का लगा। क्योंकि लालाजी पहला चुनाव चंडीगढ़ से लड़े थे। वहां से विस्थापित किसानों की जमीनों पर सरकार ने नया शहर चंडीगढ़ बसाने के लिए कब्जा तो कर लिया, लेकिन किसानों को पूरी तरह से मुआवजा राशि (Compensation) न मिलने की वजह से वहां के स्थानीय किसानों में कांग्रेस सरकार के प्रति विद्रोह और असंतोष की भावना थी। लालाजी किसानों के इस मुद्दे पर उनके समर्थक थे। लालाजी द्वारा राज्यसभा चुनाव के समय खुद प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को सरदार प्रताप सिंह कैरों ने लालाजी के विरोध में प्रचार हेतु बलाया।
उन्हें डर था कि लालाजी का व्यक्तित्व इतना विशाल है कि कई कांग्रेसी विधायक ‘क्रास वोटिंग’ को तैयार बैठे थे। उन दिनों पार्टी व्हिप और कोई दलबदल कानून नहीं था लेकिन प्रताप सिंह कैरों द्वारा पंडित जी को बुलाने और अपने कांग्रेसी विधायकों को प्रभावित करने का यह प्रयास भी असफल रहा। शायद यह पहला मौका था जब देश का प्रधानमंत्री राज्यसभा चुनाव के लिए किसी प्रदेश की विधानसभा में अपनी पार्टी के मंत्रियों और विधायकों को सम्बोधित करने आया होगा। पं. नेहरू ने अपने लम्बे-चौड़े भाषण में आजाद उम्मीदवार लाला जगत नारायण जी के विरुद्ध कहा था कि लाला जगत नारायण की जीत मेरी यानि पं. नेहरू की हार होगी और लाला जगत नारायण की हार मेरी यानि प्रधानमंत्री पं. नेहरू की जीत होगी।
इस कदर प्रधानमंत्री पं. नेहरू और मुख्यमंत्री स. प्रताप सिंह कैरों दाेनों ने लालाजी को हराने काे उस वक्त व्यक्तिगत प्रश्न बना लिया था। जब लालाजी राज्यसभा का चुनाव लड़े तो अकाली दल, जनसंघ और आजाद विधायकों के साथ लगभग एक दर्जन कांग्रेसी विधायकों ने भी कैरों और कांग्रेस के विरुद्ध ‘क्रास वोटिंग’ की और अपना वोट लालाजी को दिया और लालाजी आजाद सांसद के रूप में चुने गए। स्वतंत्र भारत के इतिहास में शायद यह पहली घटना थी जब नेहरू की कांग्रेस और पंजाब के सशक्त मुख्यमंत्री स. प्रताप सिंह कैरों की सरकार में इस कदर विद्रोह हुआ और ‘क्रास वोटिंग’ की गई। लालाजी को इतिहास बनाना आता था।