पौराणिक कथाएं और भौगोलिक तथ्य दोनों यह प्रमाणित करते हैं कि गंगा को किसी एक मानव ने नहीं बनाया, अनेक संयोग बने और गंगा का अवतरण हुआ। भूगोल, भूगर्भ शास्त्र बताता है कि इसका जन्म हिमालय के जन्म से जुड़ा है। कोई दो करोड़ 30 लाख वर्ष पुरानी हलचल से। प्रकृति ने गंगा को सदानीरा बनाए रखने के लिए इसे केवल वर्षा से नहीं जोड़ा क्योंकि वर्षा तो चार माह ही आती है। बाकी आठ माह गंगा की धारा अविरल कैसे बहे, इसके लिए प्रकृति ने नदी का संयोग हिमनद से करवाया। जल को हिम से मिलाया। प्रकृति ने गंगा, गोमुख हिमालय में इतनी अधिक ऊंचाई पर, इतने शिखरों पर रखे हैं कि वहां कभी हिम पिघल कर समाप्त नहीं होती। जब वर्षा खत्म हो जाती है तो हिम पिघल कर गंगा की धारा को अविरल बनाते हैं। लेकिन हमने क्या किया?
गंगा ने तो हमेशा नदी धर्म का पालन किया लेकिन मानव ने अपना धर्म नहीं निभाया। हिन्दू संस्कृति में गंगा को मां समान माना गया लेकिन गंगा के प्रति न केवल मानव ने बल्कि सरकारों के रुख ने भी इस पावन नदी की पवित्र धारा को अविरल नहीं रहने दिया। गंगा गंदा नाला बन गई, नदी बची ही नहीं तो फिर साफ कैसे होगी? सवाल तो पहले भी उठते रहे हैं, आज भी उठ रहे हैं। राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने गंगा की स्थिति पर तीखे सवाल किए हैं। अधिकरण ने कहा है कि हरिद्वार से उत्तर प्रदेश के उन्नाव शहर के बीच गंगा का जल पीने और नहाने योग्य नहीं है। लोग श्रद्धापूर्वक नदी का जल पीते हैं आैर इसमें नहाते हैं, लेकिन उन्हें पता ही नहीं कि इसका उनके स्वास्थ्य पर घातक असर हो सकता है। अगर सिगरेट के पैकेटों पर चेतावनी लिखी हो सकती है कि यह स्वास्थ्य के लिए घातक है तो लोगों को नदी जल के प्रतिकूल प्रभावों के बारे में जानकारी क्यों न दी जाए। गंगाजल का इस्तेमाल करने वाले लोगों के जीवन जीने का अधिकार स्वीकार करना बहुत जरूरी है। एनजीटी ने राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन को सौ किलोमीटर के अंतराल पर डिस्प्ले बोर्ड लगाने का निर्देश दिया ताकि यह जानकारी दी जाए कि जल पीने लायक है या नहीं। एनजीटी ने गंगा मिशन और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को दो हफ्ते के भीतर अपनी वेबसाइट पर एक मानचित्र लगाने का निर्देश दिया, जिसमें बताया जा सके कि किन-किन स्थानों पर गंगा का जल नहाने और पीने लायक है।
2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी जब वाराणसी पहुंचे तब उन्होंने कहा था- न मुझे किसी ने भेजा है, न मैं यहां आया हूं, मुझे तो मां गंगा ने बुलाया है। प्रचंड बहुमत प्राप्त कर सत्ता प्राप्ति के उत्साह में नई सरकार ने तेजी दिखाते हुए नदी विकास आैर गंगा पुनरुद्धार मंत्रालय बना दिया और उमा भारती को मंत्री। मंत्री बनने के बाद उमा भारती ने दावा किया था कि तीन साल में गंगा साफ हो जाएगी। गंगा तो साफ नहीं हुई अलबत्ता उनकी मंत्रालय से विदाई कर दी गई। 13 मई, 2015 को केन्द्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में सरकार की फ्लैगशिप योजना नमामि गंगे को मंजूरी दे दी गई। इस योजना के तहत गंगा नदी को समग्र तौर पर संरक्षित और स्वच्छ करने के कदम उठाए जाने पर सहमति बनी। इस पर अगले पांच साल में 20 हजार करोड़ रुपए खर्च किए जाने का खाका तैयार हुआ, जो कि गंगा को स्वच्छ करने के लिए पिछले 30 साल में सरकार की ओर से खर्च की गई राशि का चार गुना था। नमामि गंगे योजना की शुरूआत मोदी सरकार ने ऐसे की कि लोगों को यह विश्वास हो गया कि कुछ हो न हो, कम से कम गंगा साफ जरूर हो जाएगी।
उमा भारती को गंगा मंत्रालय से ही हटा दिया गया और यह मंत्रालय नितिन गडकरी को सौंप दिया गया जिनके पास सड़क और जहाजरानी मंत्रालयों की बड़ी जिम्मेदारी पहले से ही है। गडकरी का कहना है कि नमामि गंगे योजना के तहत गंगा की सफाई में वह कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे, 2019 तक गंगा 70-80 प्रतिशत साफ हो जाएगी। जानकार ऐसे दावों को व्यावहारिक ही नहीं मानते। गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने की परियोजना बहुत बड़ी है और यह काम सरल भी नहीं है। साधु-संत आैर पर्यावरणविद् गंगा की स्वच्छता के लिए अनेक अभियान चला चुके हैं। हाल ही में पर्यावरणविद् स्वामी ज्ञान स्वरूप ने अनशन शुरू किया था लेकिन अभी तक ठोस परिणाम नहीं निकले हैं। नितिन गडकरी कहते हैं कि गंगा की 250 परियोजनाएं चिन्हित की गईं। इसमें 47 पूरी होने को हैं। नमामि गंगे का अर्थ सिर्फ गंगा नहीं है। इसमें यमुना समेत 40 नदियां आैर नाले शामिल हैं। यमुना में ही 34 परियोजनाएं चल रही हैं, जिसमें से 12 दिल्ली में हैं क्योंकि सबसे ज्यादा प्रदूषण यहीं से होता है।
अभी तक परियोजनाएं बेतरतीब ढंग से चल रही हैं। ऐसे में तो कुंभ तक गंगा का निर्मलीकरण मुश्किल है। आखिर क्या कारण रहे कि अथक प्रयासों के बावजूद सफलता नहीं मिल रही। सिर्फ सरकारी प्रयासों, कानूनों व नीतियों के निर्माण मात्र से बदलाव लाना मुश्किल है। इसके लिए सरकारी प्रयासों के साथ-साथ जन सक्रियता की बहुत जरूरत है। पहले हमें प्लािस्टक को हटाना होगा। लोग हिमाचल की अश्वनी खड्ड का वीडियो देख चुके होंगे जिसमें पानी नहीं प्लास्टिक की नदी बहती दिखाई दे रही है। लोगों को प्लास्टिक की बोतल आैर थैलियों का इस्तेमाल न करने के लिए प्रेरित करना होगा। रसायन युक्त रंगों से बनी मूर्तियों का विजर्सन बंद करना होगा। उद्योगों का दूषित कचरा गंगा में जाए नहीं इसके लिए उद्योगों को कचरे के निपटान की उन्नत तकनीक का सहारा लेना होगा। समस्या का पूर्ण निदान जन सहभागिता व जनजारूकता से ही संभव है। केन्द्र और राज्य सरकारों को भी परियोजनाएं युद्धस्तर पर चलानी पड़ेंगी। गंगा के उफान से बार-बार हमारे शहरों को नुक्सान पहुंचता है। यदि हम इस पानी का संरक्षण नहीं कर पाए तो अभूतपूर्व जल संकट पैदा हो जाएगा। आइए नदी धर्म फिर से समझें। साधु-संत, पर्यावरणविद्, वैज्ञानिक, राजनीतिक दल सब गंगा स्वच्छता की बात करते हैं परन्तु गंगा ऐसे साफ नहीं होगी, हम सबको मिलकर गंगा की निगरानी करनी पड़ेगी ताकि अब प्रकृति से और छेड़छाड़ न हो।