प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी का यह कहना सर्वथा उचित और सर्वमान्य है कि राजनीति में कोई छोटा रास्ता ( शार्ट कट) नहीं होता है। लोकतान्त्रिक राजनीति जन मूलक होती है जिसे जनतन्त्र कहा जाता है, इसमें यदि कोई राजनैतिक दल जनता या मतदाता को मूर्ख बनाकर सत्ता तक पहुंचता है तो पूरे तन्त्र का स्वभाव बिगड़ने का खतरा समाहित हो जाता है। दुनिया के इतिहास में अभी तक फ्रांसीसी क्रान्ति ( 18वीं शताब्दी) और सोवियत संघ की बोल्शेविक क्रान्ति (20वीं शताब्दी) का महत्व इसलिए अमिट है क्योंकि इनके पीछे सुविचारित राजनैतिक सोच और सुनिश्चित राजनैतिक सिद्धान्त थे। फ्रांसीसी क्रान्ति ने ही दुनिया को राजनैतिक सन्दर्भों में वामपंथी (वाम मार्ग) व परंपरावादी दक्षिणपंथी और संविधानवादी या सुधार वादी (मध्य मार्गी) रूप में पेश किया। वैचारिक मतभिन्नता की वजह से ही वामपंथी, दक्षिणपंथी व मध्यमार्गी राजनैतिक शाखाएं उपजीं और पूरे विश्व में इन्हीं के आधार पर दुनिया के लोगों ने अपना शासन तन्त्र विकसित किया परन्तु पिछली बीसवीं सदी के मध्याह्न के उपरान्त ईरान में धुर दक्षिणपंथी विचारधारा में धार्मिक कट्टरता का नया पुट आय़ा जिससे 1978 में इस देश में कथित धार्मिक क्रान्ति हुई औऱ विकास व प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ता ईरान पीछे की तरफ धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं के रास्ते पर चल निकला। वास्तव में यह क्रान्ति न होकर ‘प्रति क्रान्ति’ थी जिसके असर से बाद में इस्लामी जेहाद की विचारधारा ने आतंकवाद को भी रास्ता बनाया।
ईऱान की कथित क्रान्ति के पीछे कोई आर्थिक सोच नहीं थीं और न ही इसमें नागरिक के निजी मूल अधिकारों या इंसानियत का कोई अवयव था जिसकी वजह से केवल 44 वर्ष बाद ही इस तन्त्र के खिलाफ ईरान में ही यहां की महिलाओं का रोष हिजाब विरोधी आन्दोलन के रूप में हमें देखने को मिल रहा है। परन्तु हर राजनैतिक सिद्धान्त के पीछे आर्थिक सोच का आधार होता है। इन सोचों में अतिरेक या उग्रवाद हो सकता है जैसे वामपंथी अपने तन्त्र को ‘वंचितों की तानाशाही’ बताते हैं जिसमें आर्थिक स्रोतों पर इनकी सत्ता का कब्जा रहता है जबकि दक्षिणपंथी बाजार की ताकतों के अनुरूप आर्थिक आय के बंटवारे की हिमायत करते हैं औऱ मध्य मार्गी दोनों तन्त्रों के बीच संवैधानिक रास्ते से आय के समान बंटवारे की वकालत करते हैं। परन्तु भारत की राजनीति में एक एेसी सोच उभरती दिखाई दे रही है जो समाज के एक विशिष्ट तबके को सरकारी खजाने से प्रत्यक्ष सौगातें देकर उसकी उद्यमशीलता व श्रमशीलता को शिथिल करके सरकार के सामने याचक की तरह पेश करना चाहता है। यह विचार या सिद्धान्त मूलतः जन विरोधी है क्योंकि वह आर्थिक असमानता या गैर बराबरी को जड़ से मिटाने की जगह उसका सौन्दर्यीकरण या (कास्मेटिक सर्जरी) करके हल ढूंढना चाहता है। यह विचार मूलतः जन विरोधी है क्योंकि इससे गरीब या वंचित वर्ग के व्यक्ति का वह मार्ग अवरुद्ध होता है जिसे अपनी उद्यमशीलता का उपयोग करके वह विपरीत परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने के लिए अपनी श्रमशीलता का प्रयोग पूरी क्षमता के साथ करने योग्य बनता है। मध्य मार्गी सोच वह सारी संभावनाएं कानून के जरिये सुलभ कराने की कोशिश करता है जिससे गरीब या वंचित व्यक्ति बाजार की शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए अपने चहुंमुखी विकास की संभावनाओं का अपनी क्षमता के अनुरूप उपयोग कर सके। इस तन्त्र में सत्ता वंचित व्यक्ति के हित में ऐसे कानून बनाती है जिनके माध्यम से उसे आगे बढ़ने में मदद मिल सके और वह अपनी सामर्थ्य के अनुसार बाजार की ताकतों का इस्तेमाल भी अपने हित में कर सके। यह व्यवस्था उसके व्यक्तिगत विकास के सारे रास्ते खोलती है। इस तन्त्र में बाजार व सरकार आपस में इस तरह सामंजस्य स्थापित करती है कि समाज में एक समान राजनैतिक अधिकारों का प्रयोग आर्थिक अधिकारों के रूपान्तरण में हो सकें। इसी वजह से शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारों द्वारा किया गया निवेश देश की जनता के विकास के लिए दीर्घकालीन निवेश के रूप में समझा जाता है।
शिक्षा व स्वास्थ्य ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें निवेश करके सरकारें समग्र राष्ट्र के सर्वांगीण विकास की संभावनाएं जागृत करती हैं क्योंकि शिक्षित व स्वस्थ नागरिक ही विकास के लिए अपनी उद्यमशीलता का प्रयोग करने योग्य होते हैं। यदि इन वंचित लोगों को सत्ता में आने के लिए राजनैतिक पार्टियां रोकड़ा मदद या मुफ्त सौगात देने के वादे करती हैं तो वे पूरे देश के लोगों की उद्यमशीलता को नकारात्मक भाव देती हैं और समाज में और अधिक असमानता को बढ़ावा देते हुए गरीब लोगों को स्थिर याचक मुद्रा में स्थापित करती हैं। वास्तव में सरकारें इस वर्ग के उत्थान के लिए ऐसे कानूनी प्रावधान करती हैं जिससे उनके आर्थिक अधिकार मजबूत हों। ऐसा कार्य केवल नीति निर्माण करके ही हो सकता है।
सप्ताह में एक दिन किसी व्यक्ति को छप्पन भोग, भंडारे या लंगर लगा कर उसकी भूख दूर नहीं की जा सकती, मूल सवाल उसे उसकी व्यावसायिक आय में वृद्धि करने का उपाय करने का होता है। यह काम उसके गौरव और सम्मान को सर्वोपरि रखते हुए होना चाहिए क्योंकि समाज में उसकी प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए आर्थिक आधार पर उसकी गैर बराबरी दूर करना मध्य मार्गी सरकारों का मुख्य लक्ष्य होता है। आर्थिक प्रतिष्ठा सामाजिक प्रतिष्ठा का पर्याय होती है हालांकि भारत में जातिगत भेदभाव इस मार्ग में अवरोध भी बनता है मगर अपनी श्रमशीलता पर सम्पन्न बने वंचित से वंचित व्यक्ति का आत्मसम्मान चरमोत्कर्ष पर होता है। अतः दान खाते से की गई मदद केवल व्यक्ति को गरीब ही बनाये रखने का इंतजाम करती है, जो भारत जैसे ‘लोक कल्याणकारी राज’ स्थापना के लक्ष्य में बहुत बड़ा अवरोध माना जाता है। व्यक्ति की प्रतिष्ठा और उसका गौरव व सम्मान विकास का प्रमुख अंग इसलिए होता है जिससे इस देश के किसी भी स्वतन्त्र नागरिक में ‘दास भाव’ किसी भी परिस्थिति में उत्पन्न न हो सके। जाहिर है कि ऐसा करने के लिए राजनीति में कोई ‘शार्ट कट’ नहीं हो सकता।