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वोट हमारा –राज तुम्हारा ?

लोकसभा चुनावों में अब मुश्किल से 100 दिन का समय भी नहीं बचा है और विपक्ष की ओर से इंडिया गठबन्धन बन जाने के बावजूद असली मुकाबला भाजपा व कांग्रेस के बीच ही होता लग रहा है। कांग्रेस नेता रहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा का आधे से अधिक सफर भी पूरा हो चुका है और भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की सभी तैयारियां भी पूरी हो चुकी हैं। राजनीति में अक्सर ऐसा होता है कि मेहनत कोई ओर करता है और मलाई कोई और खाता है। केवल व्यक्तियों के बारे में ही यह उक्ति नहीं होती बल्कि राजनैतिक विमर्शों के बारे में भी यह उक्ति कभी-कभी सही बैठती है। ऊपर से देखने में यह बहुत अजीब लग सकता है कि 1972 में जो विमर्श भाजपा नेता डा. मुरली मनोहर जोशी कांग्रेस के खिलाफ खड़ा कर रहे थे आज वही विमर्श कांग्रेस नेता राहुल गांधी भाजपा के खिलाफ प्रयोग करते दिख रहे हैं।
1972 में डा. जोशी ने नारा दिया था कि ‘वोट हमारा-राज तुम्हारा, नहीं चलेगा-नहीं चलेगा’। इसकी पृष्ठभूमि यह थी कि 1971 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने गरीबों-पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के वोटों के सहारे जीता था मगर सत्ता में आने के बाद उनके करीब जब पूंजीपति व उद्योगपति आदि आने लगे और सरकार की नीतियों को प्रभावित करने की कोशिश करने लगे तो डा. जोशी ने यह नारा दिया था वोट हमारा -राज तुम्हारा नहीं चलेगा। अपनी भारत यात्रा में आज यही बात राहुल गांधी भाजपा के लिए घुमा कर कह रहे हैं। वह जाति जनगणना का मुद्दा उठा रहे हैं और समझा रहे हैं कि देश की कुल आबादी में पिछड़ों की जनसंख्या कम से कम 50 प्रतिशत है जबकि अनुसूचित जातियों व जनजातियों की जन संख्या 22.5 प्रतिशत है। इन दोनों- तीनों वर्गों की कुल जनसंख्या 73 प्रतिशत के करीब बैठती है मगर इनकी सत्ता में भागीदारी दस प्रतिशत से भी कम बैठती है। शेष 27 प्रतिशत आबादी में 17 प्रतिशत के लगभग कुल अल्पसंख्यक हैं। मगर इनकी भी सत्ता में भागीदारी नाममात्र को ही है।
यह फलसफा चौधरी चरण सिंह के फलसफे से बहुत मेल खाता है जो गांवों के लोगों के हाथ में सत्ता देना चाहते थे क्योंकि उस समय 80 प्रतिशत के करीब लोग गांवों में रहते थे। सवाल यह है कि यदि देश में व्यवसाय व पेशे के आधार पर गरीबों, पिछड़ों व अल्पसंख्यकों का एक वोट बैंक जाति, धर्म को तोड़ कर बनता है तो वह किसी भी राजनैतिक दल की एेसी पूंजी होगी जिसे कभी भी परास्त नहीं किया जा सकता। राहुल गांधी इसी प्रय़ास मेें लगते हैं। परन्तु यह काम आसान नहीं है क्योंकि भारत के लोग धर्म व जाति के नाम पर इस तरह बंटे हुए हैं कि इन्हें व्यवसाय के आधार पर जोड़ना चट्टान से पानी निकालने के बराबर है।
चुनाव के समय हर राजनैतिक दल अपनी जाति और धर्म की राजनीति लेकर बैठ जाता है। भाजपा का हिन्दुत्व सभी जातियों व उपजातियों के बन्धन को तोड़ कर केवल हिन्दू होने पर जोर डालता है। भारत में हिन्दुओं की जनसंख्या 80 प्रतिशत के लगभग है। यदि भाजपा इन सबका ध्रुवीकरण करने में समर्थ हो जाती है तो जाति व व्यवसाय के नाम पर ध्रुवीकरण कहीं बहुत पीछे छूट जाता है। कांग्रेस व भाजपा के बीच यह चुनावी लड़ाई सैद्धान्तिक भी है क्योंकि गांधीवाद जाति-धर्म से ऊपर उठ कर लोगों की सामाजिक व आर्थिक स्थिति के आधार पर एकता की बात करता है। समाजवाद का सिद्धान्त भी यही है। यह गरीब व अमीर की बात भी करता है। अतः प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने अमीर- गरीब जातियों की बात करके दूर की कौड़ी फेंकने की कोशिश की थी। मगर बीच में अयोध्या में राम मन्दिर की प्राण-प्रतिष्ठा समारोह ने इसमें धार्मिक आधार पर सामाजिक एकता का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
81 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन देने का इसका एक कार्यक्रम है कोई नीति नहीं। नीति की पहचान यह होती है कि इसे कानून से बांधा जाता है। जिस प्रकार भोजन का अधिकार (राइट टू फूड)। यह कोई कार्यक्रम नहीं बल्कि नीति है। गांधीवाद यही कहता है कि लोकतन्त्र में लोगों को दया या कृपा के आधार पर कुछ नहीं मिलता है बल्कि कानूनी अधिकार के रूप में मिलता है। लोकसभा चुनावों में जिस वैचारिक टकराव की बात हो रही है या इसे विचारधाराओं का जो महासंग्राम बताया जा रहा है वह यही है। राहुल गांधी अपनी विचारधारा के आधार पर कांग्रेस का वोट बैंक बनाना चाहते हैं जबकि श्री नरेन्द्र मोदी अपनी पार्टी भाजपा की विचारधारा के आधार पर। भाजपा के वोट बैंक की बात करें तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ की भाषा में वह 80 प्रतिशत बनाम 20 प्रतिशत का युद्ध है। मगर इसका विभाजन व्यवसाय या पेशे के आधार पर नहीं है बल्कि सम्प्रदाय के आधार पर है। मसलन किसानों में हिन्दू, मुसलमान, सिख आदि सभी आते हैं । इनमें भी जातियां है मगर इसके बावजूद सब किसान है।
चुनाव में सवाल इनकी पहचान कराने का होता है। अपनी विचारधारा के अनुसार राजनैतिक दल इनकी पहचान को उकेरते हैं और जो विमर्श भारी पड़ जाता है किसानों का वोट बैंक उसी के अनुसार किसी विशेष पार्टी के पक्ष में डल जाता है। एेसा ही पिछड़ों को लेकर भी है, पिछड़े वर्ग हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी। यहां तक कि दलित भी हिन्दू- मुसलमान व इसाई तक हैं। इनकी पहचान इनके धर्म के अनुसार करने या व्यवसाय के अनुसार करने को लेकर राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता है। इसमें जो पार्टी भी बाजी मार कर ले जाती है वोट बैंक उसी का बन जाता है।
स्वतन्त्र भारत में समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने पिछड़ों व दलितों तथा अल्पसंख्यकों को एक साथ एक मंच पर लाने के लिए अथक प्रय़ास किये थे मगर इसमें उन्हें आंशिक सफलता इसलिए मिली थी क्योंकि उस समय कांग्रेस का विमर्श भी यही था। जनसंघ उस समय शैशव अवस्था में थी और उसका विमर्श हाशिये पर ही रहता था। मगर राम मन्दिर आन्दोलन के बाद इसमें गुणात्मक परिवर्तन आया और हिन्दुत्व का विमर्श शिखर पर पहुंचा। अब समाजवादी केवल उत्तर प्रदेश व बिहार में बचे हैं जहां कांग्रेस से इनका समझौता है। अतः इन दोनों राज्यों में हमें इस बार भयंकर चुनावी संग्राम देखने को मिल सकता है। लड़ाई निश्चित रूप से बहुत करीब की ही रहेगी क्योंकि विपक्षी एकता की कहानी हमें अधूरी सी दिखाई पड़ रही है।

– राकेश कपूर 

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