संसद की कार्यवाही आज तीन दिनों की बैठक के बाद सुचारू रूप से शुरू हो गई। दोनों ही सदनों में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद दिये जाने के प्रस्ताव पर चर्चा शुरू हुई। इसका स्वागत सभी देशवासी कर रहे हैं और इसे न तो सत्ता पक्ष की और न ही विपक्ष की जीत के रूप में देख रहे हैं, बल्कि संसद की विजय के रूप में देख रहे हैं क्योंकि संसद न तो सत्ता पक्ष की जिद पकड़ कर चल सकती है और न ही विपक्ष के अड़ियल रुख से। यह केवल भारत की 140 करोड़ जनता की आवाज की लय पर ही चल सकती है क्योंकि सत्ता व विपक्ष दोनों ओर के सदस्यों को जनता ही संसद में भेजती है और यह जनता अपने चुने हुए जन प्रतिनिधियों से अपेक्षा करती है कि वे उसके उन मुद्दों पर चर्चा करें जो उन्हें भीतर तक उद्वेलित कर रहे हैं। भारत के लोग यह भी जानते हैं कि उनके पुरखे उन्हें ऐसी पारदर्शी व जवाबदेह संसदीय प्रणाली सौंप कर गये हैं जिसके भीतर सरकार से लेकर विपक्ष तक का बड़े से बड़ा नेता स्वयं को निरापद नहीं समझ सकता क्योंकि इसी संसद ने पूर्व में देखा है कि किस प्रकार सत्ता के मुखिया बने लोगों की भी इसके भीतर जम कर जांच-पड़ताल हुई है।
लोगों को संसद की सार्थकता के प्रति जो अटूट विश्वास है वह हमारी लोकतान्त्रिक प्रणाली का ऐसा वायुमंडल है जिसमें सभी प्रकार की गैसें रहने के बावजूद केवल आक्सीजन के भरोसे ही जिन्दगी चलती है। संसद में चर्चा के माध्यम से ही सच्चाई की तह तक जाने के साथ ही लोगों की समस्याओं का हल होना संभव होता है। संसद बेशक राजनैतिक दलों का अखाड़ा होती है मगर इसमें हर राजनैतिक दल के सदस्य को अपने सत्य के साथ जीने के लिए पुख्ता सबूत भी देने होते हैं और जनमानस को अपने पक्ष में खड़ा करना होता है। मगर संसद जब बिना कोई सकारात्मक कार्य किये ही स्थगित होती रहती है तो लोगों की इस प्रणाली के प्रति निष्ठा-भाव में गिरावट आने लगती है जिसे रोकने का काम सभी राजनैतिक दलों के सदस्यों को ही करना पड़ता है जिनमें सत्ता व विपक्ष दोनों ओर के सदस्य होते हैं। इसके बावजूद पिछले तीस वर्षों से भी अधिक से हम देखते आ रहे हैं कि संसद में कुछ मुद्दों पर गतिरोध इस सीमा तक हो जाता है कि सरकार और विपक्ष अपनी-अपनी जिद पर अड़ जाते हैं। संसदीय प्रणाली की प्रशासन व्यवस्था में इसी जिद से पीछा छुड़ाने के लिए अन्तर्निहित प्रणाली मौजूद रहती है।
लोकसभा में बहुमत के आधार पर जब किसी भी सरकार का गठन होता है तो उसके मन्त्रालयों में एक संसदीय कार्य मन्त्रालय भी होता है। संसदीय प्रणाली में इस मन्त्रालय की आवश्यकता इसीलिए महसूस की गई कि संसद के भीतर सरकार और विपक्ष में हमेशा ऐसा तालमेल बना रहे जिससे संसद की जिम्मेदारियों को बिना किसी अवरोध के निपटाया जा सके। इसके पीछे का छिपा हुआ सिद्धान्त यह माना जाता है कि सरकार बेशक बहुमत की ही बनती है मगर उसकी सत्ता बिना अल्पमत की भागीदारी के नहीं चल सकती। संसदीय प्रक्रियाएं ही हमारे पुरखों ने इस प्रकार बनाईं कि बिना अल्पमत की भागीदारी के संसद के भीतर सरकार द्वारा किया गया कोई भी कार्य एक पक्षीय ही माना जायेगा। इसका कारण यह है कि लोकसभा में बहुमत पाने पर बनी सरकार पूरे देश के लोगों की सरकार होती है और चुनावों में सरकारी पार्टी के खिलाफ मत देने वाले मतदाताओं के कल्याण की जिम्मेदारी भी बहुमत की सरकार की होती है। यह खूबसूरत कशीदाकारी संसदीय प्रणाली को चलाने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने इसीलिए की जिससे भारत के हर नागरिक या मतदाता को यह लगे कि उसके अधिकारों की संरक्षक सरकार है चाहे उसका वोट उसे मिला है या नहीं। पूरी संसदीय प्रणाली इसी प्रकार के तारों से बुना हुआ सुन्दर साज है जिसके बजाने पर आम जनता की आवाज ही गूंजती है।
अगर संसद में किसी ठोस मुद्दे पर शोर-शराबा होता है तो वह देश के लोगों की प्रतिध्वनि ही होती है क्योंकि उस मुद्दे पर वे अपनी-अपनी तरह से सोच रहे होते हैं। संसद ऐसी प्रतिध्वनियों को छान कर या फिल्टर करके विश्वनीयता प्रदान करने का काम करती है। राजनैतिक दल संसद के माध्यम से इसी विश्वनीयता को केन्द्रीय जन विमर्श में बदलने का प्रयास करते हैं । अतः लोकतान्त्रिक राजनीति में संसद की सार्थकता को कम करके आंकने का जोखिम कोई भी राजनैतिक दल लेना पसन्द नहीं करता है और अपने पक्ष को ज्यादा से ज्यादा मजबूत दिखाने का प्रयास करता है। संसद में अब गतिरोध टूट चुका है और बाकायदा बहस शुरू हो चुकी है। अतः दोनों ही पक्षों को प्रयास करना चाहिए कि बहस ठोस तर्कों के आधार पर हो और सकारात्मक व तथ्यात्मक वाणी पर संयम रखते हुए हो जिससे देश के सामने मौजूद विभिन्न समस्याओं का हल ढूंढने में आसानी हो सके।