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संसदीय लोकतन्त्र और भारत

समाजवादी चिन्तक व स्वतंत्रता सेनानी डा. राम मनोहर लोहिया की यह उक्ति बेशक बहुत प्रसिद्ध रही हो कि ‘संसद जब मौन हो जाती है तो सड़कें आवारा हो जाती हैं मगर इसका आशय केवल यही है कि लोकतन्त्र में संसद में जब संवाद समाप्त हो जाता है।

समाजवादी चिन्तक व स्वतंत्रता सेनानी डा. राम मनोहर लोहिया की यह उक्ति बेशक बहुत प्रसिद्ध रही हो कि ‘संसद जब मौन हो जाती है तो सड़कें आवारा हो जाती हैं मगर इसका आशय केवल यही है कि लोकतन्त्र में संसद में जब संवाद समाप्त हो जाता है तो सड़कों पर संवाद शुरू हो जाता है’ कहने का मतलब सिर्फ इतना सा है कि लोकतन्त्र में जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों की सर्वोच्च सभा की बैठकों या सत्रों को किसी भी तरीके से औपचारिकता निभाने का साधन नहीं बनाया जा सकता। इसके मूल में भारत के मनीषियों की यह अवधारणा रही है कि जिस संसदीय लोकतन्त्र को आजादी मिलने के बाद भारत ने अपनाया। इसकी असली मालिक इस देश की आम जनता ही रहेगी। इसके पीछे स्वतन्त्रता आन्दोलन संग्राम के महानायक महात्मा गांधी का वह मूल विचार है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘मैं अपने विरोधी के विचार उसे अपने से ऊंचे आसन पर बैठा कर सुनना पसन्द करूंगा।’ गांधी जब ऐसा कह रहे थे तो अपने साथ भारत की तमाम दार्शनिक धारा को लेकर चल रहे थे और बता रहे थे कि जिस महाभारत युद्ध के दौरान महाविनाश हुआ था उसके प्रथम अध्याय के शुरू में ही यह लिख दिया गया था कि ‘अहिंसा परमो धर्मः’। अतः यह बेवजह नहीं था कि 1936 में ही गांधी ने स्पष्ट कर दिया था कि स्वतन्त्र भारत में संसदीय प्रणाली का लोकतन्त्र एक समान रूप से वयस्क मताधिकार पर निर्भर होगा।
गांधी के समक्ष उसी समय से लेकर मरते दम तक केवल भारत के आम आदमी को अधिकार सम्पन्न बनाने का लक्ष्य ही था और यह काम वह व्यक्ति के आत्म सम्मान को अक्षुण्य रखते हुए करना चाहते थे। अतः भारत के संविधान में भी सर्वाधिक जोर नागरिक की निजी स्वतन्त्रता और उसके आत्म सम्मान व विश्वसनीयता को दिया गया। संवैधानिक प्रावधानों के तहत गठित संसद को इसी वजह से सार्वभौम बताया गया क्योंकि यह भारत के सामान्य नागरिक का प्रतिनिधित्व करती है। बेशक संसद को संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन करने का अधिकार नहीं है मगर इसके बावजूद यह भारत की समूची प्रशासन प्रणाली की संरक्षक हैं। अतः जब संसद बोलती है तो देश का सामान्य नागरिक बोलता है और उसका प्रतिनिधित्व करने वाले संसद सदस्य उसके संशय या नाराजगी अथवा प्रसन्नता के बोल बोलते हैं जिससे सत्ता मैं बैठी सरकार अपनी नीतियों व कदमों की समीक्षा कर सके। मगर जब संसद केवल बैठकर ही उठने लगे और इसमें किसी भी विषय या मुद्दे पर बहस होने की जगह केवल सत्ता पक्ष व विपक्ष के सांसदों के बीच जुबानी युद्ध बिना नियम-कायदों के होने लगे तो समझा जाता है कि सांसद अपनी जिम्मेदारी पुनः जनता पर ही लाद रहे हैं। इसी वजह से डा. लोहिया ने कहा होगा कि संसद जब मौन या गूंगी हो जाती है तो सड़कें आवारा हो जाती हैं।
संसदीय प्रणाली में संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का ही होता है, यह ऐतिहासिक उक्ति डा. भीमराव अम्बेडकर की है जिसे गांधी के अपने विरोधियों के बारे में कहे गये विचारों से तुरन्त जोड़ा जा सकता है कि वह अपने विरोधी के विचार उसे अपने से ऊंचे सिंहासन पर बैठा कर सुनेंगे। यह संसदीय प्रणाली हमें अंग्रेज खैरात में नहीं देकर नहीं गये हैं कि आजकल की आपाधापी की राजनीति के बीच हम इसका एहतराम करना छोड़ दें। यह भारत के लोगों की वह बहुमूल्य धरोहर है जिसके जरिये हमने पूरी दुनिया में विशिष्ट स्थान पाया है और यह एजाज भारत को मिला है कि यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है। यह कोई छोटा-मोटा सम्मान नहीं है जिसकी हम उपेक्षा कर सकते हैं क्योंकि इसकी वजह से ही दुनिया के विभिन्न देश हमारी खास कद्र करते हैं और पूरे एशिया में हमें अलग नजर से देखते हैं। अगर हम संसद को सन्दर्भहीन व अप्रासंगिक बना देंगे तो किस प्रकार आम जनता के पास हर पांच साल बाद वोट मांगने जायेंगे क्योंकि भारत में तो कोई भी सरकार केवल लोकसभा में बहुमत पाने वाले दल की ही बनेगी। जब जनता का यकीन ही संसद से हिल जायेगा तो हमारी राजनीति का अर्थ ही क्या रह जायेगा? यह बहुत गंभीर विषय है जिस पर देश के सभी राजनैतिक दलों को विचार करना चाहिए।
संसद चलाने के नियम पूरी तरह स्पष्ट हैं और दस्तावेजों में कैद हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार के गठन के लिए जिम्मेदार लोकसभा के अध्यक्ष का चुनाव चुने गये सांसदों के बीच से ही होता है जिसे संसद सदस्यों के अधिकारों का संरक्षक बनाया जाता है। 1967 तक यह परंपरा भी थी कि जो भी सांसद अध्यक्ष पद पर चुना जाता था वह अपनी उस पार्टी की सदस्यता को त्याग देता था जिसके टिकट पर वह चुन कर आया है। हमारी संसदीय विरासत बहुत सम्पन्न, सक्षम व सशक्त रही है। मगर जब राज्यसभा जैसे उच्च सदन में विधेयक शोर-शराबे के बीच पारित होने लगते हैं तो हमें चिन्तित होना चाहिए कि यह स्थिति कैसे औऱ क्यों कर बन रही है। वर्तमान बजट सत्र आगामी छह अप्रैल को समाप्त हो जायेगा और हम संसद के सत्र की औपचारिकता को निभा देंगे मगर क्या इससे भारत के आम नागिक के प्रति किसी भी प्रकार की औपचारिकता पूरी हो पायेगी? यह यक्ष प्रश्न आज हर संसद सदस्य के सामने हैं।

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