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तत्वज्ञानी शंकराचार्य स्वामी ‘स्वरूपानन्द सरस्वती’

द्वारका शारदापीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती के बैंकुठधाम प्रस्थान से भारत भूमि सनातन संस्कृति को सर्वदा आलोकित रखने वाले महापुरुष की अनुपस्थिति अवश्य महसूस करेगी क्योंकि शंकराचार्य न केवल शास्त्रों के महान मर्मज्ञ थे बल्कि हिन्दू संस्कृति के तत्वज्ञान के विवेचक भी थे।

द्वारका शारदापीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती के बैंकुठधाम प्रस्थान से भारत भूमि सनातन संस्कृति को सर्वदा आलोकित रखने वाले महापुरुष की अनुपस्थिति अवश्य महसूस करेगी क्योंकि शंकराचार्य न केवल शास्त्रों के महान मर्मज्ञ थे बल्कि हिन्दू संस्कृति के तत्वज्ञान के विवेचक भी थे। 99 वर्ष की इहलोक यात्रा तय करके उन्होंनेअपने नश्वर शरीर को त्यागा। ‘जीवेम शरदः शतम्’ की भारतीय लौकिक मान्यता की पूर्व संध्या में शरीर छोड़ कर उन्होंने भौतिक शरीर की ज्ञान व तप साधना को भी सिद्ध किया। एक साधू के रूप में उन्होंने भारत के लोगों को देश के लिए त्याग करने की भी प्रेरणा दी और सदा ही धर्म में विज्ञान के प्रकाश को खोजने का कार्य किया। वह तर्क शास्त्र के भी वाचस्पति थे। स्वतन्त्र भारत में स्वामी करपात्री जी महाराज की छत्रछाया में उन्होंने ‘राम राज्य परिषद’ राजनैतिक पार्टी में भी सक्रिय योगदान दिया और स्वतन्त्रता से पहले 19 वर्ष की आयु में ही 1942 में महात्मा गांधी के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में भी हिस्सा लिया और जेल की यातना भी सही।
राजनैतिक मुद्दों पर उनकी प्रतिक्रियाएं हालांकि कई बार विवादास्पद भी रहीं मगर उन्होंने अपने मन के उद्गार व्यक्त करने में कभी संकोच नहीं किया। वह निर्लिप्त भाव से राजनैतिक प्रतिक्रियाएं देते थे और भारतीय प्रजातन्त्र के मत वैविध्य सिद्धान्त के पक्के पक्षधर थे जिसकी वजह से वह विवादों में भी आ जाते थे। इसका एकमात्र कारण यह माना जाता है कि संन्यासी को सत्ता का कोई भय नहीं होता। वह जनेष्णा (लोकप्रियता) का भी दास नहीं होता। इसका प्रमाण यह है कि उन्होंने शिरडी के सांई बाबा की सनातनी पद्धति से पूजा-अर्चना को गलत बताया क्योंकि हिन्दू शास्त्रों व वेदों में ऐसे किसी देवता का उल्लेख नहीं मिलता है। हालांकि उन्होंने यह स्वीकार किया कि सांई बाबा एक महापुरुष थे। शंकराचार्य महाराज अन्ध विश्वास के विरोधी थे मगर सनातन संस्कृति के उपासक थे जिसके कारण उन्होंने अयोध्या में भगवान श्रीराम के मन्दिर के निर्माण अभियान को अपना समर्थन सत्तर के दशक में ही दे दिया था। साथ ही वह गौहत्या निषेध के प्रबल समर्थक थे और मानते थे कि पूरे भारत में गौहत्या अवैध होनी चाहिए और भारत से गौमांस निर्यात पर भी प्रतिबन्ध लगना चाहिए।
इस बारे में उनके विचार बहुत स्पष्ट थे कि गौवंश की हत्या करके हम भारतवासी गाय के दूध से प्राप्त होने वाले वैज्ञानिक औषध तत्वों का तिरस्कार करते हैं। यही कारण था कि उन्होंने राम के नाम के साथ सांई बाबा का नाम जोड़ने पर कड़ा प्रतिरोध किया था क्योंकि राम का अवतार ही ज्ञानियों, गऊओं, देव प्रवृत्ति व सन्त-साधुओं की रक्षा के लिए हुआ था। इस सन्दर्भ में श्री राम चरितमानस का दोहा व प्रायः उद्धरित किया करते थे :
विप्र ,धेनु,सुर,सन्त हित लीन्ह मनुज अवतार
निज -इच्छा -निर्मित- तनु ,माया-गुन गोपार
यह उनके तत्व ज्ञान का ही प्रताप था कि उन्होंने स्वामी करपात्री जी महाराज द्वारा स्थापित राम राज्य परिषद के ध्वज की छाया में पचास के दशक में ही गौहत्या विरोधी आन्दोलन चला दिया था जिसके चलते 1954 से 1970 के बीच वह तीन बार जेल भी गये। हालांकि स्वतन्त्रता आन्दोलन में वह कांग्रेस पार्टी के भारत छोड़ो आदोलन में सक्रिय रहे थे मगर स्वतन्त्रता के बाद वह कांग्रेस विरोधी आन्दोलनों में भी सक्रिय रहे और राम राज्य परिषद के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने गौहत्या निषेध आन्दोलन को अपना प्रमुख लक्ष्य बनाया। वह हिन्दू धर्म से अन्य धर्मों में धर्मान्तरण के भी प्रबल विरोधी थे और उन्होंने नव ईसाइयों को पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित करने का भी व्यापक अभियान चलाया था। उन्होंने एक बार महेश योगी को चुनौती तक दे दी थी कि यदि महेश योगी एक बार बिना विमान के ही अमेरिका से भारत उड़ कर आ जाये तो वह सब ठीक होगा जो वह कहते हैं। धर्म में वैज्ञानिक दृष्टि के तर्क का वह सम्मान करते थे और सिद्ध करते थे कि सनातन संस्कृति का मूलाधार विज्ञान के उन तर्कों पर आधारित है जिनसे समस्त सृष्टि प्राणी मात्र के लिए सदैव सुख कर रह सके। पेड़-पौधों, धरती से लेकर पर्वतों व आकाश व अन्तरिक्ष को पूजने वाली संस्कृति का अर्थ यही है कि यह प्रकृति की उपासक है जिसका ज्ञान वेदों से लेकर पुराणों व शास्त्रों में उल्लिखित है। उनके तत्व ज्ञान की विरासत लाखों अनुयायियों तक पहुंच चुकी है। ऐसी देवात्मा को पंजाब केसरी परिवार का नमन।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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