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नागरिकता विधेयक पर नीति व नीयत

नागरिकता (संशोधन) विधेयक लोकसभा ने पारित कर दिया है। इस सदन में भाजपा व एनडीए का भारी बहुमत देखते हुए ऐसी अपेक्षा भी थी।

नागरिकता (संशोधन) विधेयक लोकसभा ने पारित कर दिया है। इस सदन में भाजपा व एनडीए का भारी बहुमत देखते हुए ऐसी अपेक्षा भी थी। लोकसभा में इस विधेयक पर चली बहस के दौरान सत्ता व विपक्ष के सांसदों ने जिस तरह भारत के आधुनिक इतिहास की परत-दर-परत खोलते हुए संशोधन विधेयक का समर्थन व विरोध किया, उससे ही साफ हो गया कि इस विधेयक के कानून बन जाने पर इसका असर दूरगामी होगा जो भारत की सामाजिक संरचना का कटु राजनीतिकरण भी करेगा। 
इसकी असली वजह विपक्ष की राय में यह है कि इस विधेयक में भारत के तीन पड़ोसी इस्लामी देशों के अल्पसंख्यकों के ऊपर धार्मिक आधार पर उनके देशों में हुए जुल्मो-सितम और प्रताड़ना को ही संज्ञान में लेकर भारत की नागरिकता प्रदान की जायेगी। आजादी के समय भारत की नागरिकता प्रदान करने में धार्मिक आधार को पूरी तरह अलग रख कर हमारे संविधान निर्माताओं ने इससे सम्बन्धित कानून बनाया था, परन्तु समय-समय पर इस कानून में आठ बार संशोधन किये गये। 
इनका ताल्लुक मूल रूप से दूसरे देशों में परेशानी में पड़ने पर भारत में स्थायी रूप से बसने की गुहार लगाने वाले नागरिकों से ही था। प्रायः ऐसे विदेशी नागरिक मूल रूप से भारत के वंशज ही थे अतः नागरिकता देने में खून के रिश्ते को भी ध्यान में रखा गया। इस सन्दर्भ में गृहमन्त्री श्री अमित शाह ने बहस के उत्तर में विस्तार से जानकारी देने की कोशिश भी की, परन्तु उनका मूल आग्रह यह था कि घुसपैठिये और शरणार्थी में अन्तर होता है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश में रहने वाले अल्पसंख्यक समाज के हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख व ईसाई  स्वयं को इन देशों में अपने धर्म की वजह से असुरक्षित पाते हैं तो उन्हें नैतिक रूप से भारत में शरण मांगने का अधिकार है। 
आखिरकार हिन्दू अगर भारत मे नहीं आयेंगे तो अन्य किस देश में जायेंगे? इस तर्क का मुख्य आधार भावनात्मक है जिसकी वजह से वस्तुगत तर्क फीके पड़ जाते हैं वरना एक दशक पहले तक दुनिया का एकमात्र घोषित हिन्दू राष्ट्र नेपाल दुनिया के सभी पी​ड़ित हिन्दुओं की आदर्श शरण स्थली बन सकता था, लेकिन विपक्षी सांसदों ने संशोधन विधेयक में नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार, मालदीव को ही शामिल न करने पर भी आपत्ति जताई। असली सवाल यह है कि क्या इस्लामी देशों में मुस्लिम नागरिकों पर अत्याचार नहीं हो सकता है। 
कम से कम पाकिस्तान के बारे में तो यह नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इस देश में 1947 के बंटवारे के समय जो भारतीय मुसलमान यहां से गये थे उन्हें ‘मुहाजिर’ कहा जाता है। शुरू में उन्हें ‘बिहारी मुस्लिम’ कहा जाता था। इन मुस्लिम नागरिकों के साथ पाकिस्तान में इसके बनने के बाद से ही दूसरे दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार होता है।  इसके अलावा  शिया मुसलमानों को भी कट्टरपंथी सुन्नी मुस्लिम उलेमा बाकायदा प्रताड़ना का शिकार बनाते रहते हैं। पिछले तीन दशकों के दौरान अफगानिस्तान से शुरू होकर मुस्लिम तालिबानी जेहादियों की जड़ें जिस तरह पाकिस्तान में जमी हैं उसने पूरी दुनिया के मुसलमानों को ही दुख देने में सभी पुराने रिकार्ड तोड़े हैं। 
पूरी दुनिया में अकेला भारतवर्ष ऐसा देश है जिसमें इस्लाम धर्म का पालन करने वाले इसके सभी 72 फिरकों के लोग रहते हैं। इनमें बोहरा, आगा खानी, अहमदिया आदि सभी हैं। वास्तव में यह तर्क थोड़ा अटपटा लगता है कि बहुसंख्यक धार्मिक तबके के भीतर ही इसी धर्म के मानने वालों के साथ भेदभाव नहीं हो सकता है अथवा उन्हें प्रताड़ित नहीं किया जा सकता है। यदि ऐसा होता तो भारत में दलितों पर अत्याचार की घटनाएं न होतीं जो कि हिन्दुओं द्वारा ही की जाती हैं और दलित भी हिन्दू हैं। इन पर अत्याचार रोकने के लिए तो भारत में कानून भी हैं। भारत मुसलमानों के सभी तबकों के लिए भी दुनिया का सबसे सुरक्षित देश माना जाता है क्योंकि यह संवैधानिक रूप से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। 
भारत उस अन्तर्राष्ट्रीय नियम से भी बन्धा हुआ है जिसमें मानवीय आधार पर वह किसी दूसरे देश के शरणार्थी को बिना किसी धार्मिक भेदभाव के शरण देने से मना नहीं करेगा। यदि ऐसा न होता तो 1971 में स्व. इन्दिरा गांधी  पाकिस्तान को तोड़ कर बांग्लादेश न बनवा पातीं। उन्होंने केवल मानवीय यातना देने वाले पाकिस्तान के खिलाफ ही विश्वव्यापी अभियान छेड़ कर भारत की सैनिक कार्रवाई को वैधता दिलाने में सफलता प्राप्त की थी और तब राष्ट्र संघ में अपना प्रभुत्व रखने वाला अमेरिका भी कुछ नहीं कर सका था मगर जहां तक घुसपैठिये का सवाल है उस पर नरमी नहीं बरती जा सकती क्योंकि इससे राष्ट्रीय सुरक्षा का सम्बन्ध जुड़ा होता है। घुसपैठियों का नाम आते ही बांग्लादेशी नागरिकों का नाम आने लगता है। 
एक मायने में यह वाजिब भी है क्योंकि रोजी-रोटी की तलाश में अवैध रूप से बांग्लादेशी भारत में आ जाते हैं मगर इस मामले में बांग्लादेश सरकार की नीयत पूरी तरह साफ है। कम से कम इस देश के राष्ट्रपिता कहे जाने वाले शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी  अवामी लीग के नेताओं पर तो शक नहीं किया जा सकता है। हां जमाते इस्लामी जैसी कट्टरपंथी ताकतों के भरोसे एक बार बांग्लादेश में सत्ता में आयी बेगम खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनल पार्टी को जरूर कठघरे में खड़ा किया जा सकता है जिनके शासन के दौरान ढाका में भारत विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा मिला था और आतंकवादी तंजीमें भी सक्रिय हुई थीं, और 2003 में वहां कट्टरपंथियों ने हिन्दू नागरिकों पर अत्याचार भी किये थे तब बेगम खालिदा ही प्रधानमन्त्री थीं। 
वर्तमान प्रधानमन्त्री शेख मुजीब की सुपुत्री शेख हसीना की भारत मित्रता और धर्मनिरपेक्षता पर उनका विरोधी भी संशय की अंगुली नहीं उठा सकता। गृहमन्त्री ने नये विधेयक को उत्तर पूर्व के कई राज्यों में लागू न होने की भी घोषणा की है इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस्लामी देशों में प्रताड़ित होने वाले शरणार्थी अल्पसंख्यकों को खास कर हिन्दुओं को मोदी सरकार नागरिक अधिकार देना चाहती है। इस मामले में उसकी नीयत पर शक नहीं किया जा सकता मगर नीति के बारे में कुछ महत्वपूर्ण सवाल हैं जिन पर राज्य सभा में विधेयक पर चर्चा के समय विस्तार व गहराई से ध्यान दिया जाना चाहिए।

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