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झारखंड में राजनैतिक झमेला !

झारखंड के मुख्यमन्त्री श्री हेमन्त सोरेन को लेकर जिस तरह असमंजस की स्थिति बनी हुई है वह न तो लोकतन्त्र के हित में है और न ही झारखंड के। झारखंड एक आदिवासी राज्य है जिस पर सबसे पहला अधिकार इस राज्य की आदिवासी जनता का ही बनता है

झारखंड के मुख्यमन्त्री श्री हेमन्त सोरेन को लेकर जिस तरह असमंजस की स्थिति बनी हुई है वह न तो लोकतन्त्र के हित में है और न ही झारखंड के। झारखंड एक आदिवासी राज्य है जिस पर सबसे पहला अधिकार इस राज्य की आदिवासी जनता का ही बनता है परन्तु दुर्भाग्य यह रहा है कि इस राज्य के 2000 में गठन के बाद अभी तक कोई भी आदिवासी मूल का मुख्यमन्त्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका है। वर्तमान मुख्यमन्त्री श्री हेमन्त सोरेन के गुरु जी के नाम से विख्यात पिता श्री शीबू सोरेन झारखंड राज्य के निर्माताओं में से एक माने जाते हैं और वह स्वयं भी तीन बार थोड़े-थोड़े अन्तराल के लिए इस राज्य के मुख्यमन्त्री रह चुके हैं। इस राज्य के जल, जंगल और जमीन के लिए लड़ने वाले आदिवासियों की महान परंपरा रही है जिसके लिए उन्होंने अंग्रेजी राज तक में गहन संघर्ष किया है। मूल रूप से यदि कहा जाये तो झारखंड के आदिवासी नागरिकों के हितों के सबसे बङे अलम्बरदार स्वर्गीय कैप्टन जयपाल सिंह रहे हैं जिन्होंने भारत के संविधान में अनुसूचित जातियों के साथ ही आदिवासी जनजातियों को आरक्षण दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। शुरूआती दौर में वह ही झारखंड को पृथक राज्य घोषित करने के लिए संघर्ष करते रहे। 
भारतीय लोकतन्त्र की गंगा में आदिवासियों को समानाधिकार देने की गरज से ही पृथक झारखंड व छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों का गठन केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के रहते किया गया जिसमें तत्कालीन गृहमन्त्री श्री लाल कृष्ण अडवानी की प्रमुख भूमिका थी। श्री अडवानी यह अच्छी तरह जानते थे कि इस राज्य की धरती बहुत अमीर हैं मगर इसके लोग बहुत गरीब हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए और राज्य की खनिज सम्पदा पर आदिवासियों को पूर्णाधिकार देने की मंशा से उन्होंने आदिवासी राज्यों का गठन किया था परन्तु कालान्तर में इन राज्यों विशेष कर झारखंड की राजनैतिक अवसरवादिता परक राजनीति के चलते यह संभव इसलिए नहीं हुआ क्योंकि राजनैतिक दलों व खनिज सम्पदा पर निगाह गाड़े उद्योगपतियों के बीच ही अपवित्र गठबन्धन बन गया और इसकी राजनीति को निगलने लगा। श्री शीबू सोरेन ने इसका मुकाबला करने का प्रयास किया और आदिवासी अस्मिता को जगाते हुए अपनी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी के झंडे के तले विभिन्न समान विचारधारा वाले दलों को लाने का प्रयास भी किया मगर इसमें वह सफल नहीं हो सके जबकि दूसरी ओर भाजपा ने आदिवासी विमर्श खड़ा करके इस समाज के राजनीतिज्ञों को ही आगे करके जल, जंगल और जमीन की लड़ाई को आगे बढ़ाने का प्रयास किया और बाबू लाल मरांडी से लेकर अर्जुन मुंडा जैसे नेताओं को मुख्यमन्त्री बना कर बाजारमूलक अर्थव्यवस्था व खनिज सम्पदा के दोहन के साथ स्थानीय विकास के बीच सन्तुलन पैदा करने का प्रयास किया जिसमें उसे सफलता नहीं मिल सकी। 
अब सवाल यह है कि इसी खनिज सम्पदा के मुद्दे पर श्री हेमन्त सोरेन की वर्तमान सरकार मुसीबत में फंस गई है। हालांकि यह बहुत तकनीकी मामला है और भ्रष्टाचार से इसका सम्बन्ध नहीं जुड़ता है क्योंकि जब मुख्यमन्त्री के रूप में श्री सोरेन को अपनी गलती का एहसास हुआ तो उन्होंने तुरन्त उसमें वैधानिक सुधार कर लिया। मगर जब एक बार कानून व नियम तोड़ दिया तो तोड़ दिया जिसकी भरपाई कानून के अनुसार करनी ही पड़ेगी। मुख्यमन्त्री व खनिज विभाग के प्रभारी रहते श्री सोरेन ने राज्य की एक पत्थर खदान का आवंटन जून 2021 में अपने नाम ही कर लिया और जब इस बारे में भाजपा ने राज्यपाल से शिकायत की तो उन्होंने इस शिकायत को चुनाव आयोग के पास भेज दिया। मगर इस बीच इस वर्ष अप्रैल महीने में उन्होंने इस खदान का आवंटन निरस्त कर दिया। इस खदान में इस दौरान खनन का कोई कार्य भी नहीं किया गया। परन्तु यह कार्य जन प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 की धारा 9(ए) के विरुद्ध था जिसमें प्रावधान है कि कोई भी विधायक सरकार के किसी ठेके या उपक्रम में भाग नहीं ले सकता। यदि वह ऐसा करता है तो नियम के तहत उसकी विधानसभा से सदस्यता निरस्त की जा सकती है।
 चुनाव आयोग ने अपनी जांच पूरी करके पाया कि कानून तोड़ा गया है अतः उसने अपनी यथा सम्बन्धी सिफारिश राज्यपाल के भेज दी। रास्ता सरल है कि हेमंत मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा देकर पुनः मुख्यमन्त्री की दावेदारी राज्यपाल के समक्ष कर दें क्योंकि झारखंड विधान सभा में उन्हें अपनी पार्टी व कांग्रेस के साथ कुछ छोटे-मोटे दलों के 50 विधायकों के पूर्ण बहुमत का समर्थन प्राप्त है। इसके साथ ही वह पुनः उप चुनाव लड़ कर विधानसभा में पहुंचे। 2019 का चुनाव श्री सोरेन दो सीटों दुमका व बरायठ से लड़े थे और दोनों पर ही जीते थे जिसमें से दुमका सीट उन्होंने छोड़ दी थी। परन्तु एेसी आशंका व्यक्त की जा रही है कि उनके इस्तीफा देते ही विधायकों में तोड़फोड़ शुरू हो सकती है। लोकतन्त्र में यह विकृति है।  विधायकों का कर्त्तव्य भी बनता है कि वह अपनी राजनैतिक ईमानदारी पर आंच न आने दें और जनता की अपेक्षाओं पर खरे उतरने का प्रयास करें। बेहतर यही होगा कि विधायक दल किसी अन्य आदिवासी नेता को नेता चुनें ताकि राजनीतिक शुचिता बनी रहे।

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