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चुनाव में बनती जन अवधारणाएं

लोकसभा चुनावों के दो चरणों के सम्पन्न होने के बाद यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि सत्ता की लड़ाई में भाजपा व कांग्रेस युक्त विपक्षी इंडिया गठबन्धन आमने-सामने हैं। अभी तक कुल 190 सीटों पर मतदान हो चुका है और यह नहीं कहा जा सकता कि किस पक्ष का पलड़ा भारी रहेगा। दोनों पक्ष चुनाव को अपने-अपने हक में बता रहे हैं। भाजपा तर्क दे रही है कि इन चुनावों में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की लहर चल रही है और उनके मुकाबले इंडिया गठबन्धन का कोई नेता सामने नहीं है जिसकी वजह से मतदाताओं का झुकाव उसकी तरफ है। कांग्रेस का तर्क है कि लोग नेता की जगह मुद्दों पर ध्यान दे रहे हैं और महंगाई, बेरोजगारी जैसी समस्याओं से त्रस्त हैं जिसकी वजह से उनका रुझान विपक्षी प्रत्याशियों की तरफ ज्यादा है। मगर भारत में चुनाव जन अवधारणा के आधार पर जीते जाते हैं।
देखना होगा कि भाजपा व कांग्रेस में से किस पार्टी की बनाई अवधारणा लोगों पर ज्यादा असर डाल रही है। इसके साथ यह भी देखा जाना जरूरी है कि कौन सा पक्ष आक्रामक है और कौन सा रक्षात्मक। साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए किस पार्टी का एजेंडा एेसी स्थितियां पैदा कर रहा है। हमारे सामने इससे पहले के दो एेसे उदाहरण हैं जब विपक्ष इकट्ठा होकर लड़ा और हारा जबकि दूसरा उदाहरण एेसा है जब विपक्ष संगठित होकर लड़ा और जीता। ये दोनों उदाहरण 1971 औऱ 1977 के चुनाव के हैं। पहले में संगठित विपक्ष हारा औऱ दूसरे में जीता। मगर इसमें फर्क यह रहा कि पहले चुनाव में विपक्ष रक्षात्मक था और दूसरे 1977 के चुनाव में आक्रामक था। मुझे अच्छी तरह याद है कि 1977 के चुनाव में लगभग सभी विपक्षी दल जनता पार्टी के नाम से जुड़ चुके थे। उनका चुनाव निशान चौधरी चरण सिंह की पार्टी लोकदल का ‘कंधे पर हल लिये किसान’ था। जनसंघ के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी दिल्ली शाहदरा के ‘भोलानाथ नगर’ में एक जनसभा करने के लिए आये। स्व. वाजपेयी बहुत कुशल वक्ता थे। इन चुनावों से पहले देश में इमरजेंसी उठ चुकी थी। इमरजेंसी में स्व. वाजपेयी भी जेल में बन्द थे। मगर एेसा भी हुआ था कि इमरजेंसी में जेल से छूटने के लिए विपक्षी दलों के बहुत से कार्यकर्ता माफी मांग कर बाहर आ गये थे। वाजपेयी जब बोलने के लिए खड़े हुए तो जनता के बीच से किसी ने सवाल पूछ लिया कि आपकी पार्टी के कार्यकर्ता तो माफी मांग-मांग कर जेल से बाहर आय़े।
श्री वाजपेयी जनता से शिकायत कर रहे थे कि पूरे देश में इमरजेंसी लग गई और जनता में कहीं विरोध क्यों नहीं हुआ? उस पर एक श्रोता ने वह सवाल पूछ लिया था। इस पर स्व. वाजपेयी भड़क उठे और उन्होंने जो कहा उसे आप सुनिये ‘मैं यहां सफाई देने नहीं आया हूं बल्कि आक्रमण करने आय़ा हूं। मैं पूछ रहा हूं कि आपकी स्वतन्त्रता छीन ली गई औऱ आप खामोश बैठे रहे’’? ये शब्द श्री वाजपेयी ने गुस्से में कहे थे मगर खचाखच भरी जनसभा में मानो सन्नाटा छा गया। राजनीति में अवधारणा इस प्रकार बनती है। बेशक 1977 में विपक्ष के पास जय प्रकाश नारायण व आचार्य कृपलानी व चौधरी चरण सिंह जैसे दिग्गज नेता थे मगर जन अवधारणा की ज्वाला धधकाने वाले वाजपेयी जैसे नेता भी थे।
वाजपेयी जी ने लोगों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि इमरजेंसी का विरोध न करके उन्होंने बहुत बड़ी गलती कर दी है। अतः जन अवधारणा बनाने में राजनीतिज्ञ ही अग्रणी भूमिका अदा करते हैं सवाल केवल परिस्थितियों के बखान करने के अन्दाज का होता है। मगर 1971 में भी जनसंघ समेत संसोपा, स्वतन्त्र पार्टी व चरण सिंह की पार्टी और संगठन कांग्रेस के सभी दिग्गज नेता काम राज से लेकर सी.बी. गुप्ता तक एक साथ थे मगर जन अवधारणा का निर्माण कोई एक नेता तक नहीं कर सका क्योंकि स्व. इन्दिरा गांधी ने जो एजेंडा ‘गरीबी हटाओ’ का खड़ा किया था उसके आगे वाजपेयी समेत किसी नेता का कोई विमर्श टिक ही नहीं पा रहा था। कहने को सभी विपक्षी दल व नेता एक साथ थे मगर कोई भी इन्दिरा गांधी को रक्षात्मक पाले में लाने में समर्थ नहीं हो पा रहा था।
इसकी वजह साफ थी जन अवधारणा इन्दिरा गांधी के पक्ष में थी जो उन्हीं की पार्टी के रणनीतिकारों व राजनीतिज्ञों ने बनाई थी। जाहिर तौर पर 1969 में जब इन्दिरा जी ने 14 बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो उनकी सम्पत्ति गरीबों के घर में रातों-रात स्थानान्तरित नहीं होनी थी मगर जन अवधारणा बनी कि इन्दिरा गांधी गरीबों को बैंकों पर हक देना चाहती है। यह नीतिगत फैसला था। इसी प्रकार राजा-महाराजाओं का प्रिविपर्स उन्मूलन करके उन्होंने सन्देश दिया कि सरकार गरीबों के अधिकारों को ज्यादा महत्व देना चाहती है। यह जन अवधाऱणा भी राजनीतिज्ञों ने ही बनाई। मगर 1971 के चुनावों में विपक्ष के पास कोई एेसी अवधारणा नहीं थी कि वह आक्रामक हो सकता। इन चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी इन्दिरा गांधी पर अधिनायकवादी प्रवृत्ति की होने का आरोप लगा रहे थे।
संगठन कांग्रेस के नेता मोरारजी देसाई राजा-महाराजाओं के साथ विश्वास घात करने के आरोप तक लगा रहे थे। जनसंघ तो मुस्लिम देशों के सम्मेलन से भारत को बाहर किये जाने तक को मुद्दा बना रही थी। चौधरी साहब गांधीवाद को तिलांजिली दिये जाने को मुद्दा बना रहे थे मगर किसी भी विमर्श की प्रतिध्वनी जनता के बीच से सुनाई नहीं दे रही थी। इसका असर हुआ कि विपक्ष अपना कोई एेसा विमर्श खड़ा नहीं कर सका जो जन अवधारणा में बदल सकता। असल में जन अवधारणा जनता के बीच ही पैदा होती है नेता केवल उसका कोई एक सूत्र देता है। इन्दिरा गांधी ने सूत्र दिया कि गरीबी हटाओ और लोगों ने उनकी सरकार की नीतियों को उस पर कसा व जन अवधारणा बना ली।
जन अवधारणा जब बन जाती है और लोग उसे अपना लेते हैं तो वे स्वयं तर्कों में आक्रामक हो जाते हैं। यह आक्रामकता आज के राजनैतिक वातावरण जैसी जबर्दस्ती पैदा की गई नहीं होती बल्कि स्वतः स्फूर्त होती है। आज की राजनीति के दौर में जो चुनाव चल रहे हैं उनमें इस स्वतः स्फूर्त आक्रामकता को देखना बहुत टेढ़ा काम है। बेशक यह मौजूद है मगर किन्हीं कारणों से लोग इसे प्रकट करने में कतरा रहे हैं। लोकतन्त्र में इससे अन्ततः नुक्सान ही होता है। इतिहास इसीलिए सबक लेने के लिए होता है। खास कर तब जब किसी भी पक्ष की लहर दिखाई न दे रही हो। आमने-सामने की टक्कर किस तरह होगी इसके लिए अभी पांच चरणों के चुनाव बाकी हैं मगर इतना निश्चित है कि :
‘ये इश्क नहीं आसां, इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है’।

– राकेश कपूर

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