कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी के पार्टी महाधिवेशन के समापन पर दिये गये भाषण का जवाब ढूंढने में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा को मुश्किलों का सामना इसलिए करना पड़ सकता है कि देश का आम मतदाता उन मुसीबतों से स्वयं जूझ रहा है जिनका जिक्र श्री गांधी ने किया है। दरअसल कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी धरोहर गांधी-नेहरू परिवार की विरासत नहीं है बल्कि सामान्य आदमी के आत्मगौरव और स्वाभिमान को सर्वोपरि रखते हुए विकास के समान अवसर प्रदान करने की नीतियों के निर्माण की है।
अंग्रेजों के शासन के खिलाफ महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतन्त्रता संग्राम लड़ती कांग्रेस का यही मूल मन्त्र था जिसकी वजह से देश के मजदूरों से लेकर किसान और उद्योगपति तक इसमें शामिल हुए थे। कांग्रेस का राष्ट्रवाद प्रतीकों से परे इसी भारतीय नागरिक को गर्व से सिर उठा कर जीने का अधिकार देने की लड़ाई था। यही वजह रही कि भारत की सातवीं पंचवर्षीय योजनाकाल के समय तक कृषि की विकास वृद्धि दर आठ प्रतिशत के आसपास रही। यह भी अकारण नहीं था कि जब 1958-59 का बजट स्वय पं. जवाहर लाल नेहरू ने प्रस्तुत किया तो उन्होंने कहा कि सब कुछ इन्तजार कर सकता है मगर खेती का क्षेत्र प्रतीक्षा नहीं कर सकता।
इसे मजबूत बनाने के ठोस उपाय हमें साल-दर-साल लगातार करते रहने होंगे। अतः स्पष्ट है कि नेहरू ने भारत के विकास का पैमाना कृषि का विकास तय किया। यह नीति न तो समाजवादी थी और न ही पूंजीवादी थी बल्कि पूरी तरह भारतीय हकीकत पर निर्धारित थी। भारत एक खोज ( डिस्कवरी आफ इंडिया) जैसी पुस्तक अपनी पुत्री इन्दिरा गांधी को खतों के माध्यम से ही लिखने वाले नेहरू को यह ज्ञात था कि अंग्रेजों के चंगुल से बाहर आया भारत कभी भी गरीब मुल्क नहीं रहा था।
अंग्रेजों का साम्राज्य 1756 ( लार्ड क्लाइव के कब्जे में बंगाल आने के समय) से शुरू होने के समय विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 25 प्रतिशत के करीब था जो 1947 में आजादी के समय केवल एक प्रतिशत रह गया था। अंग्रेजों ने यह कार्य भारत और भारतीयों की गैरत को जमींदोज करके ही किया था। अतः 1947 में भारत के 96 प्रतिशत लोगों की कृषि पर निर्भरता नेहरू के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी और दूसरी तरफ इस कदर लुटे–पिटे भारत में लोकतन्त्र की जड़ें जमाकर प्रत्येक भारतीय में आत्मगौरव का भाव भरना उनका महासंकल्प था क्योंकि गांधी का यही मूल मन्त्र था। अतः वर्तमान भारत में यदि राहुल गांधी इसी विचार की प्रतिष्ठापना के लिए कांग्रेस में संगठनात्मक सुधार लाकर उसे अधिकारिता प्रदान करना चाहते हैं तो इसका स्वागत तो प्रत्येक लोकतान्त्रिक शक्ति को करना ही पड़ेगा।
हम भूल जाते हैं कि भारत का इतिहास एेसे उद्धरणों से भरा पड़ा है जिसमें भक्ति काल तक में मीराबाई ने शासन को चुनौती देते हुए घोषणा की थी कि ‘मीरा के प्रभु गिरधर नागर सुन ओ बिरज नरेस’ अतः राहुल गांधी का वर्तमान सरकार को चुनौती देना और यह कहना कि 2019 के चुनावों में मतदाताओं का उन्हें ही समर्थन मिलेगा, पूरी तरह लोकतन्त्र की अभिव्यक्ति का ही आभास है। क्योंकि 1967 से लेकर 1998 तक विपक्ष में बैठी जनसंघ (भाजपा) पार्टी हर चुनावों में यही नारा लगाती थी कि ‘अबकी बारी–अटल बिहारी।’ लोकतन्त्र जवाबदेही का एेसा शासन होता है जिसमंे आम जनता अपने ही बीच से लोगों को चुनकर सत्ता के सिंहासन पर बिठाती है और अपनी अपेक्षाएं पूरी न होने पर फिर से सत्ताधारियों को सड़क पर बिठा देती है।
विपक्षी दल सरकार से जब हिसाब-किताब मांगते हैं तो वे जनता के वकील के तौर पर ही काम करते हैं। लोकतन्त्र इकतरफा रास्ता नहीं होता कि पांच साल के लिए सत्ता पर बैठने का जनादेश लेकर जवाबदेही से बचा जा सके। 1952 से लेकर आज तक जो भी सरकार बनी है वह जनादेश के आधार पर ही बनी है अतः सत्ता कभी भी सवालों से दूर नहीं भाग सकती। सवालों से दूर भागने पर लोकतन्त्र में सरकारों का इकबाल खत्म होने लगता है और जनता सोचने लगती है कि उन सवालों का कोई जवाब नहीं है जो उसके दिमाग में घूम रहे हैं। श्री राहुल गांधी ने कुछ एेसे सवाल ही खड़े किये हैं जो विचारधारा से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा तक से सम्बन्धित हैं, पूर्व प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह ने भी कुछ एेसे मूलभूत मुद्दे उठाये हैं जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध भारत की अर्थव्यवस्था और विश्व साख से है।
खासतौर पर पाकिस्तान के साथ सम्बन्धों को लेकर और कश्मीर में फैली अराजकता को लेकर उन्होंने जो सवाल खड़ा किया है उसका सन्तोषजनक उत्तर सत्तापक्ष की तरफ से आना जरूरी है क्योंकि आम भारतीय पूरी तरह दिग्भ्रमित है मगर इन सवालों पर हम राजनीति नहीं कर सकते क्योंकि 2014 में भारत की जनता ने धमाकेदार बहुमत देकर भाजपा की सरकार को सिंहासन पर बिठाया था। एक तथ्य का मैं यहां जरूर जिक्र करना चाहूंगा कि 1998 में जब मई महीने में श्रीमती सोनिया गांधी ने अपने इटली मूल का मुद्दा उठने पर राजनीति छोड़ने का एेलान किया था (सर्वश्री शरद पवार, तारिक अनवर, पी.ए. संगमा ने यह सवाल खड़ा करके अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस बना ली थी) और बाद में कांग्रेस नेतृत्व द्वारा उन्हें मनाये जाने के बाद उन्होंने तालकटोरा स्टेडियम में ही कांग्रेस का महासम्मेलन करके घोषणा की थी कि ‘वह भारत की बहू हैं।
वह बहू बनकर भी इस देश में आईं और विधवा भी यहीं हुईं, तो पूरे देश में जलजला आ गया था लेकिन इसके अगले दिन ही पाकिस्तान सीमा पर कारगिल में युद्ध जैसे हालात होने की घोषणा करके भाजपा के दफ्तर में ही पार्टी के तत्कालीन नेता स्व. जगदीश चन्द्र माथुर ने चौंका दिया था। अतः डा. मनमोहन सिंह का यह कहना महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तान से विवाद समाप्त करने के लिए बातचीत की तरफ बढ़ा जाना चाहिए। कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी के पार्टी महाधिवेशन के समापन पर दिये गये भाषण का जवाब ढूंढने में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा को मुश्किलों का सामना इसलिए करना पड़ सकता है कि देश का आम मतदाता उन मुसीबतों से स्वयं जूझ रहा है जिनका जिक्र श्री गांधी ने किया है। दरअसल कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी धरोहर गांधी-नेहरू परिवार की विरासत नहीं है बल्कि सामान्य आदमी के आत्मगौरव और स्वाभिमान को सर्वोपरि रखते हुए विकास के समान अवसर प्रदान करने की नीतियों के निर्माण की है।
अंग्रेजों के शासन के खिलाफ महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतन्त्रता संग्राम लड़ती कांग्रेस का यही मूल मन्त्र था जिसकी वजह से देश के मजदूरों से लेकर किसान और उद्योगपति तक इसमें शामिल हुए थे। कांग्रेस का राष्ट्रवाद प्रतीकों से परे इसी भारतीय नागरिक को गर्व से सिर उठा कर जीने का अधिकार देने की लड़ाई था। यही वजह रही कि भारत की सातवीं पंचवर्षीय योजनाकाल के समय तक कृषि की विकास वृद्धि दर आठ प्रतिशत के आसपास रही। यह भी अकारण नहीं था कि जब 1958-59 का बजट स्वय पं. जवाहर लाल नेहरू ने प्रस्तुत किया तो उन्होंने कहा कि सब कुछ इन्तजार कर सकता है मगर खेती का क्षेत्र प्रतीक्षा नहीं कर सकता। इसे मजबूत बनाने के ठोस उपाय हमें साल-दर-साल लगातार करते रहने होंगे। अतः स्पष्ट है कि नेहरू ने भारत के विकास का पैमाना कृषि का विकास तय किया।
यह नीति न तो समाजवादी थी और न ही पूंजीवादी थी बल्कि पूरी तरह भारतीय हकीकत पर निर्धारित थी। भारत एक खोज ( डिस्कवरी आफ इंडिया) जैसी पुस्तक अपनी पुत्री इन्दिरा गांधी को खतों के माध्यम से ही लिखने वाले नेहरू को यह ज्ञात था कि अंग्रेजों के चंगुल से बाहर आया भारत कभी भी गरीब मुल्क नहीं रहा था। अंग्रेजों का साम्राज्य 1756 ( लार्ड क्लाइव के कब्जे में बंगाल आने के समय) से शुरू होने के समय विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 25 प्रतिशत के करीब था जो 1947 में आजादी के समय केवल एक प्रतिशत रह गया था। अंग्रेजों ने यह कार्य भारत और भारतीयों की गैरत को जमींदोज करके ही किया था। अतः 1947 में भारत के 96 प्रतिशत लोगों की कृषि पर निर्भरता नेहरू के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी और दूसरी तरफ इस कदर लुटे–पिटे भारत में लोकतन्त्र की जड़ें जमाकर प्रत्येक भारतीय में आत्मगौरव का भाव भरना उनका महासंकल्प था क्योंकि गांधी का यही मूल मन्त्र था।
अतः वर्तमान भारत में यदि राहुल गांधी इसी विचार की प्रतिष्ठापना के लिए कांग्रेस में संगठनात्मक सुधार लाकर उसे अधिकारिता प्रदान करना चाहते हैं तो इसका स्वागत तो प्रत्येक लोकतान्त्रिक शक्ति को करना ही पड़ेगा। हम भूल जाते हैं कि भारत का इतिहास एेसे उद्धरणों से भरा पड़ा है जिसमें भक्ति काल तक में मीराबाई ने शासन को चुनौती देते हुए घोषणा की थी कि ‘मीरा के प्रभु गिरधर नागर सुन ओ बिरज नरेस’ अतः राहुल गांधी का वर्तमान सरकार को चुनौती देना और यह कहना कि 2019 के चुनावों में मतदाताओं का उन्हें ही समर्थन मिलेगा, पूरी तरह लोकतन्त्र की अभिव्यक्ति का ही आभास है।
क्योंकि 1967 से लेकर 1998 तक विपक्ष में बैठी जनसंघ (भाजपा) पार्टी हर चुनावों में यही नारा लगाती थी कि ‘अबकी बारी–अटल बिहारी।’ लोकतन्त्र जवाबदेही का एेसा शासन होता है जिसमंे आम जनता अपने ही बीच से लोगों को चुनकर सत्ता के सिंहासन पर बिठाती है और अपनी अपेक्षाएं पूरी न होने पर फिर से सत्ताधारियों को सड़क पर बिठा देती है। विपक्षी दल सरकार से जब हिसाब-किताब मांगते हैं तो वे जनता के वकील के तौर पर ही काम करते हैं। लोकतन्त्र इकतरफा रास्ता नहीं होता कि पांच साल के लिए सत्ता पर बैठने का जनादेश लेकर जवाबदेही से बचा जा सके। 1952 से लेकर आज तक जो भी सरकार बनी है वह जनादेश के आधार पर ही बनी है अतः सत्ता कभी भी सवालों से दूर नहीं भाग सकती।
सवालों से दूर भागने पर लोकतन्त्र में सरकारों का इकबाल खत्म होने लगता है और जनता सोचने लगती है कि उन सवालों का कोई जवाब नहीं है जो उसके दिमाग में घूम रहे हैं। श्री राहुल गांधी ने कुछ एेसे सवाल ही खड़े किये हैं जो विचारधारा से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा तक से सम्बन्धित हैं, पूर्व प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह ने भी कुछ एेसे मूलभूत मुद्दे उठाये हैं जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध भारत की अर्थव्यवस्था और विश्व साख से है।
खासतौर पर पाकिस्तान के साथ सम्बन्धों को लेकर और कश्मीर में फैली अराजकता को लेकर उन्होंने जो सवाल खड़ा किया है उसका सन्तोषजनक उत्तर सत्तापक्ष की तरफ से आना जरूरी है क्योंकि आम भारतीय पूरी तरह दिग्भ्रमित है मगर इन सवालों पर हम राजनीति नहीं कर सकते क्योंकि 2014 में भारत की जनता ने धमाकेदार बहुमत देकर भाजपा की सरकार को सिंहासन पर बिठाया था।
एक तथ्य का मैं यहां जरूर जिक्र करना चाहूंगा कि 1998 में जब मई महीने में श्रीमती सोनिया गांधी ने अपने इटली मूल का मुद्दा उठने पर राजनीति छोड़ने का एेलान किया था (सर्वश्री शरद पवार, तारिक अनवर, पी.ए. संगमा ने यह सवाल खड़ा करके अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस बना ली थी) और बाद में कांग्रेस नेतृत्व द्वारा उन्हें मनाये जाने के बाद उन्होंने तालकटोरा स्टेडियम में ही कांग्रेस का महासम्मेलन करके घोषणा की थी कि ‘वह भारत की बहू हैं। वह बहू बनकर भी इस देश में आईं और विधवा भी यहीं हुईं, तो पूरे देश में जलजला आ गया था लेकिन इसके अगले दिन ही पाकिस्तान सीमा पर कारगिल में युद्ध जैसे हालात होने की घोषणा करके भाजपा के दफ्तर में ही पार्टी के तत्कालीन नेता स्व. जगदीश चन्द्र माथुर ने चौंका दिया था। अतः डा. मनमोहन सिंह का यह कहना महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तान से विवाद समाप्त करने के लिए बातचीत की तरफ बढ़ा जाना चाहिए।