जब से भारत में आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत हुई है तभी से सार्वजनिक कम्पनियों की शेयर पूंजी बेचने का क्रम चल रहा है और आज हालत यह है कि अधिसंख्य सरकारी कम्पनियों का या तो निजीकरण हो चुका है अथवा उनमें निजी भागीदारी बड़े पैमाने पर हो चुकी है। देश के बड़े वित्तीय सरकारी संस्थानों की हालत थोड़ी अलग है मगर इनमें से भी बहुत से निजी भागीदारी में जा चुके हैं। दरअसल 1991 से ही भारत में आर्थिक उदारीकरण शुरू हुआ और तब यह सवाल उठा कि भारत के आजाद होने के बाद जिन बड़े-बड़े कल-कारखानों की स्थापना सरकारी क्षेत्र में की गई थी उनमें से अधिकतर भारी घाटे में चल रहे थे। इनके पुनराेद्धार के लिए सरकार को और पूंजी का निवेश इनमें करना पड़ता अतः फार्मूला यह आया कि क्यों न इनकी शेयर पूंजी का कुछ हिस्सा आम जनता को ऐसे आकर्षक मूल्य पर दिया जाये जिससे जरूरी पूंजी भी उगाही जा सके और इनका पुनराेद्धार भी हो सके परन्तु इस मार्ग में इन कम्पनियों का प्रबन्धन और गैर योजनागत खर्च एक बड़ी समस्या बन कर उभरा। जिसका हल यह निकाला गया कि सरकार अपने हिस्से का 51 प्रतिशत पूंजी का विनिवेश करके प्रबन्धन निजी हाथों में उस सबसे बड़े उद्योग या व्यापार जगत के निवेशक के हाथों मे सौंप दे जिसे औद्योगिक कारोबार करने का अच्छा अनुभव हो।
इस मामले में सार्वजनिक कम्पनियों के प्रबन्धन व संचालन नियम व श्रमिक सम्बन्ध आड़े आये जिससे इस फार्मूले ने जन्म लिया कि सरकार को खुद कारोबार में शामिल होने की जरूरत ही क्या है अतः ऐसी कम्पनियों को पूरे तरीके से निजी हाथों में ही क्यों न बेच दिया जाये। अतः हम देख रहे हैं कि 1991 के बाद से लगातार सार्वजिनिक कम्पनियां निजी हाथों अर्थात उद्योगपतियों के नियन्त्रण में जा रही हैं। इस मामले में देश के लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दलों की आर्थिक नीतियां सैद्धान्तिक रूप से नहीं टकराती हैं सिवाय कम्युनिस्टों को छोड़ कर। यह बात दीगर है कि बाद में कम्युनिस्टों ने भी इसी नीति को अपनाने में भलाई समझी। इसका उदाहरण प. बंगाल की 2011 से पहले की बुद्ध देव भट्टाचार्य सरकार थी जो अपने राज्य में निजी क्षेत्र के कारखानों के लिए किसानों की जमीनें हस्तगत कर रही थी और राज्य सरकार के स्वामित्व वाली कम्पनियों की बिक्री की योजना भी बना रही थी। वास्तव में यही बाजार मूलक अर्थव्यवस्था है जो सरकार के व्यापार करने को निषेध मानती है परन्तु वित्तीय क्षेत्र में हालात व सामाजिक वातावरण बिल्कुल भिन्न है क्योंकि आम लोगों को सरकारी भुगतान गारंटी पर अटूट विश्वास होता है। हालांकि भारत के आजाद होने पर रिजर्व बैंक का गठन संसद के नियमों के तहत किया गया और इसके गवर्नर को प्रत्यक्ष सरकारी हस्तक्षेप से बाहर रखते हुए बैंकिंग व्यापार सम्बन्धी आर्थिक नियमों को स्वतन्त्र रूप से लागू करने की छूट दी गई और स्वायत्तशासी दर्जा भी दिया गया परन्तु 1969 से पहले तक सभी बड़े अधिसूचित व्यापारी बैंकों पर बड़े-बड़े उद्योगपतियों का ही कब्जा रहा। अतः 1969 में 14 ऐसे बड़े बैंकों का तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीयकरण किया परन्तु उनके इस कदम की समीक्षा हमें उस समय की आर्थिक नीतियों के सन्दर्भ में करनी होगी। वह समय आर्थिक संरक्षणवाद का था जिसमें स्वयं सरकार ही भारी उत्पादक होती थी और औद्योगिक संस्थानों की वित्त पोषक भी होती थी। यही हालत बीमा कम्पनियों की भी थी हालांकि इस क्षेत्र में राष्ट्रीयकरण की शुरूआत बहुत पहले पं. नेहरू के दौर में ही हो चुकी थी। अतः स्वाभाविक था कि वित्त क्षेत्र की गतिविधियों पर सरकार का अधिनियन्त्रण होने की वजह से आम लोगों में अपने जमा-धन व पूंजी के भुगतान के बारे में सरकारी गारंटी पर भरोसा जमा रहा।
यही वजह है कि जब भी बैंकों के निजीकरण की बात नई आर्थिक नीतियों के चलते उठती है तो देश की आम जनता में कुलबुलाहट और बेचैनी पैदा होने लगती है। यह अकारण भी नहीं है क्योंकि 2008-09 में अमेरिका से शुरू होकर आयी विश्व मन्दी के दौरान भारतीय सरकारी क्षेत्र के सभी बैंक अपना सिर ऊंचा कर खड़े रहे जबकि अमेरिका समेत यूरोपीय देशों के बड़े-बड़े बैंक धराशायी हो गये और लोगों में अपना धन वापस निकलवाने के लिए होड़ लग गई थी और वे दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गये थे। उन देशों की सरकारों को ही तब आगे आकर उन्हें पूंजी सुलभ कराई गई थी। मगर यह भी सत्य है कि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ने का मार्ग भी केन्द्र की कांग्रेस सरकारों ने ही चरणबद्ध तरीके से शुरू किया। बीच में 1998 से 2004 तक आयी भाजपा नीत वाजपेयी सरकार ने इसकी रफ्तार थोड़ी तेज भी की। मगर बीमा क्षेत्र में निजी निवेश को स्वीकृति देने की शुरूआत कांग्रेस पार्टी के वर्तमान में दिग्गज नेता श्री पी. चिदम्बरम ने तब की थी जब 1996 से 1998 के दौरान वह देवगौड़ा व गुजराल सरकारों के वित्तमन्त्री ‘तमिल मन्नीला कांग्रेस’ की ओर से थे। उस समय उनके इस कदम का सख्त विरोध विपक्ष में बैठे स्व. जार्ज फर्नांडीज ने किया था।
श्री चिदम्बरम तब बीमा क्षेत्र में केवल 20 प्रतिशत विदेशी निवेश को ही अनुमति देना चाहते थे किन्तु कालान्तर में हम देखते हैं कि यह मुद्दा कोई मुद्दा ही नहीं रहा और 100 प्रतिशत विदेशी निवेश का रास्ता खुल गया, जिसकी वजह बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के मान्य सिद्धान्त ही हैं। अतः भारतीय जीवन बीमा निगम की शेयर पूंजी की मात्र 3.5 प्रतिशत बिक्री का लक्ष्य सरकार ने 21 हजार करोड़ रुपए निर्धारित करके आम जनता को इसमें भागीदारी की दावत दी है। यह बिक्री पब्लिक इशू या शेयर पेशकश के तौर पर होगी जिसमें एक शेयर का बाजार भाव 902 से 949 रुपए की मूल्य सीमा के बीच रहेगा। इसमें बीमा पालिसी धारकों को 60 रुपए प्रति शेयर की छूट होगी और बीमा कम्पनी कर्मचारियों व आम निवेशक को यह 45 रुपए की छूट के साथ 15-15 शेयरों के गुणांक (लाट) में मिलेगा। यह इशू 4 मई से आम जनता के लिए खुलेगा और कई गुना अधिक पोषित ( सब्सक्राइब) भी रहेगा क्योंकि इसके पांच करोड़ 90 लाख 29 हजार शेयर मर्चेंट बैंकरों या वित्तीय संस्थानों के लिए जो आरक्षित रखे गये थे उनके लिए निगम को कम से कम 5630 करोड़ रुपए प्राप्त होंगे।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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