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आतंकवादियों को ‘सजा-ए-मौत’

अहमदाबाद में 2008 में एक ही दिन में कुछ घंटों के दौरान किये गये शृंखलाबद्ध बम विस्फोटों के कुल 49 अपराधियों में से 38 को सजा-ए-मौत की सजा सुना कर विशेष अदालत के न्यायाधीश श्री ए.आर. पटेल ने सिर्फ उनके समक्ष रखे गये

अहमदाबाद में 2008 में एक ही दिन में  कुछ घंटों के दौरान किये गये शृंखलाबद्ध बम विस्फोटों के कुल 49 अपराधियों में से 38 को सजा-ए-मौत की सजा सुना कर विशेष अदालत के न्यायाधीश श्री ए.आर. पटेल ने सिर्फ उनके समक्ष रखे गये साक्ष्यों व गवाहों के आधार पर ही अपने दायित्व का निर्वाह किया है। इसके साथ उन्होंने 11 अन्य अपराधियों को आजीवन कारावास की सजा भी सुनाई है। सभी अपराधियों का एक ही धर्म होने के कारण जिस प्रकार पापुलर फ्रंट आफ इंडिया (पीएफआई) जैसी खुद के मुस्लिम समाज की तंजीम कहने वाली जमात अदालत के फैसले को साम्प्रदायिक रंग में रंग कर देखने की हिमाकत कर रही है, उस पर तमाम भारतवासियों को एतराज करना चाहिए और भारत की न्यायप्रणाली को हर सूरत में मजहब के चश्मे से देखने वाले लोगों की गुस्ताखी पर ध्यान नहीं देना चाहिए।
 स्वतन्त्र भारत में प्रारम्भ से लेकर आज तक न्याय प्रणाली हर प्रकार के आक्षेपों से बची रही है और इसने हर स्थिति और कीमत पर इंसाफ का पलड़ा ही झुकाया है। (केवल इमरजेंसी के 18 महीनों को छोड़ कर ) मगर इसके साथ यह भी हकीकत है कि इमरजेंसी के दौर में भी न्याय प्रणाली ने ही सबसे पहले सितमगिरी के खिलाफ आवाज उठाई थी (जबलपुर अदालत)। अतः अहमदाबाद अदालत के फैसले को पूरे एहतराम के साथ देखा जाना चाहिए और कानूनी नुक्ता-ए-नजर से इसकी समीक्षा की जानी चाहिए। यह कोई छोटी बात नहीं है कि 2008 में किये गये बम धमाकों में 56 लोगों की जान गई थी और 200 से ज्यादा जख्मी हुए थे। यह काम निश्चित रूप से कोई आतंकवादी संगठन ही कर सकता था। तहकीकात के दौरान साफ हुआ कि यह काम ‘इंडियन मुजाहीदीन’ नाम की तंजीम ने किया था जिसमें भर्ती होने के लिए भारत के मुसलमानों को बरगलाया जाता था। अहमदाबाद के बम धमाके गुजरात में 2002 में हुए हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक दंगों का बदला लेने की गरज से किये गये थे और इनका इरादा उस समय गुजरात के मुख्यमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी समेत सरकार में उनके अन्य सहयोगी वरिष्ठ मन्त्रियों की हत्या करना था जिनमें श्री अमित शाह, नितिन पटेल व आनन्दी बेन पटेल के नाम प्रमुख थे। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इसी अदालत ने विगत 8 फरवरी को इसी मुकदमे में संलिप्त 38 अन्य अभियुक्तों को बरी करने का फैसला भी किया था। जाहिर है कि फांसी की सजा पाये मुजरिमों का अपराध इतना संगीन निकला कि इन्हें मौत की सजा सुनाई गई। स्वतन्त्र भारत में इतने अपराधियों को  एक ही मुकदमे में पहली बार  एेसी सख्त  सजा दी गई। इससे पहले राजीव गांधी की हत्या के मामले में ही 26 लोगों को एक साथ फांसी की सजा दी गई थी। वह भी आतंकवाद का मामला ही था।
 सोचने वाली बात यह है कि धर्मनिरपेक्ष भारत की न्याय प्रणाली भी जब किसी अपराधी को सजा सुनाती है तो वह किसी हिन्दू-मुसलमान को नहीं बल्कि भारत के नागरिक को ही उसकी करनी का फल देती है। न्यायपालिका को देश की राजनीतिक प्रशासनिक व्यवस्था से कोई मतलब नहीं होता उसे केवल संविधान और कानून से मतलब होता है। इसकी गिरफ्त में जो भी हिन्दू-मुसलमान फंसता है उसे सजा भुगतनी ही पड़ती है। आतंकवाद का मसला एेसा है जिस पर भारत की संसद में भी पिछले लगभग दो दशक में कई बार गरमागरम चर्चा और बहस-मुहाबिसे हुए हैं। इससे निपटने के लिए सबसे पहले स्व. नरसिम्हाराव की सरकार में 90 के दशक में ‘टाडा’ कानून आया और बाद में वाजपेयी सरकार के दौरान उनके गृहमन्त्री श्री लालकृष्ण अडवानी पोटा कानून लाये। पोटा कानून लाने के ​लिए श्री अडवानी को बहुत जोर लगाना पड़ा था क्योंकि तब राज्यसभा में भाजपा के पास बहुत कम सांसद थे अतः उन्होंने संसद का विशेष संयुक्त अधिवेशन (लोकसभा व राज्यसभा)  बुला कर इसे पारित कराया था परन्तु जब 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में डा. मनमोहन सिंह की सरकार आयी तो इस कानून को निरस्त कर दिया गया।  अतः 2008 में हुए अहमदाबाद बम कांड के अभियुक्तों पर देश के लागू फौजदारी कानून के ही तहत ही मुकदमा चला और अदालत ने पाया कि इस कांड में मुजरिम बनाये गये 49 लोगों का अपराध इस हद तक संगीन है कि उन्हें फांसी व उम्र कैद की सजा दी जाये। इसमें किसी धर्म या सम्प्रदाय का क्या लेना–देना हो सकता है सिवाय इसके कि वे अपराधी हैं। 
अपराधी का कोई धर्म कैसे हो सकता है? इसी प्रकार आतंकवादी का भी कोई धर्म नहीं होता मगर हर संवैधानिक लोकतान्त्रिक राज या देश का धर्म होता है कि वह आतंकवादियों को किसी भी सूरत में पनपने न दे क्योंकि वे अपने कामों से किसी भी देश की संवैधानिक लोगों द्वारा चुनी गई सरकार को चुनौती देकर लोगों पर ही जुल्म ढहाते हैं। अहमदाबाद में मरने वालों का क्या उनका धर्म देख कर तय किया जायेगा कि विस्फोट किस धर्म के लोगों ने किये थे? असली सवाल उस जहरीली मानसिकता को खत्म करने का है जिसके प्रभाव में सामान्य नागरिक आतंकवादी बनते हैं।

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