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विफल हो चुका है संयुक्त राष्ट्र

इजराइल-हमास युद्ध में 8000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। गाजा पट्टी में घमासान मचा हुआ है। दुनिया भर में विश्व युद्ध शुरू होने का कोहराम मचा हुआ है। रूस-यूक्रेन युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहा। बच्चे, वृद्ध, महिलाएं और युवा मारे जा रहे हैं या फिर असहाय दिखाई देते हैं। युद्धों को रोकने के लिए कोई गम्भीर प्रयास नहीं हो रहे। सब एक-दूसरे को विध्वंसक हथियार बेच रहे हैं। मानवता चारों तरफ कराह रही है। संयुक्त राष्ट्र अपनी प्रांसगिकता पूरी तरह खो चुका है। मानवता का ढिंढोरा पीटने वाली बड़ी शक्तियां खेमे में बंट चुकी हैं। अब सवाल यह है कि आज की दुनिया में संयुक्त राष्ट्र जैसी विफल संस्था की कोई जरूरत है।
-शांति मनुष्य का स्वभाव है।
-लड़ना और हिंसा करना उसकी बाध्यता है।
-भूलता वह विचारशील प्राणी है।
-हर बार उसने युद्धों से सीख कर शांति की तलाश आरम्भ की है।
-शांति ही मनुुष्य की अपनी निजता है।
यह वृति आज भी बनी हुई है लेकिन युद्ध आज भी होते हैं। युद्धों का स्वरूप पहले से कहीं अधिक खतरनाक हो चला है। यह बात सत्य है कि प्रथम विश्व युद्ध के उपरांत लीग ऑफ नेशन्स की कार्यशैली की असफलता के बाद सारी दुनिया में यह महसूस किया गया कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शांति प्रसार और सुरक्षा की नीति तक ही सफल हो सकती है। जब विश्व के सारे देश अपने निजी स्वार्थों से उठकर सम्पूर्ण विश्व को एक इकाई समझ कर अपनी सोच को विकसित करें। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र अस्तित्व में आया। तब इसके पांच स्थाई सदस्य बन गए (चीन, फ्रांस, सोवियत संघ (अब रूस), ​ब्रिटेन और अमेरिका। सोवियत संघ के विखंडन के बाद अब रूस सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य है। मैं इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता कि ऐसे लोग भी पृथ्वी पर हो सकते हैं जो निर्दोष और बच्चों के शवों को देखकर भी ठहाके लगा सकते हैं।
संयुक्त राष्ट्र का एक ही मकसद था विश्व शांति। क्या यह संस्था विश्व शांति कायम करने में जरा भी सफल रही। अमेरिका पर 9/11 हमले के बाद अमेरिका को अहसास हुआ कि जेहादी फंडामेंटलिज्म का खतरा पैदा हो चुका है। युद्ध उन्माद में उसने पूरे विश्व में से आतंकवाद को खत्म करने का संकल्प लिया और अफगानिस्तान में विध्वंसक खेल खेला। अमेरिका ने रासायनिक हथियारों की खोज के नाम पर इराक में खूनी खेल खेला और सद्दाम हुसैन का तख्ता पलट कर दिया। अमेरिका ने लीबिया और कई अन्य देशों में भी ऐसा ही किया। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की कठपुतली बनकर रह गया। अफगानिस्तान पर हमले के लिए अमेरिका ने उस पाकिस्तान को अपना साथी बनाया जिसने जिहाद को हर तरह से सींचा। सद्दाम ने तो अमेरिका पर कोई हमला नहीं किया था न ही वह सोच सकता था तो फिर अमेरिका ने इराक पर हमला क्यों किया। कौन नहीं जानता कि अमेरिका का असली मकसद इराक और कुवैत के तेल कुंओं पर नियंत्रण करना था। संयुक्त राष्ट्र के और भी कई लक्ष्य हैं जैसे विश्व आतंकवाद और परमाणु निशस्त्रीकरण इत्यादि। जब परमाणु अप्रसार संधि की बात चली तो वैश्विक शक्तियों ने भेदभावपूर्ण नीति अपनाई। बड़ी शक्तियों ने तो खुद के पास परमाणु हथियार रखने की बात कही और दूसरों को परमाणु हथियार तबाह करने का उपदेश दिया। संयुक्त राष्ट्र ने अनेक प्रस्ताव पारित किए। आवाज भी उठाई परन्तु वह एक TOOTHLESS TIGER अर्थात दंतहीन सिंह ही साबित हुआ।
भारत को संयुक्त राष्ट्र का कड़वा अनुभव है। पंडित नेहरू कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में इसलिए ले गए थे ताकि वह हमारे हक में ठोस फैसला दे। संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता हम मानते जब वह मात्र महाराजा हरिसिंह द्वारा हस्तांरित जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के पत्र के आधार पर ‘लोहदंड’ का इस्तेमाल कर पाकिस्तान को वहां से जाने को मजबूर कर देता। संयुक्त राष्ट्र संघ ने उस समय भी दोहरी नीति अपनाई। तब से लेकर आज तक कश्मीर मसले पर पाकिस्तान का चरित्र नहीं बदला। भारत कई वर्षों से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का दावा कर रहा है। न तो सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों का विस्तार किया गया है और न ही इसमें व्यापक सुधार किए गए हैं। संयुक्त राष्ट्र की विफलता का सबसे बड़ा कारण यह भी है कि वह अमेरिका की जेबी संस्था बनकर रह गया है। भारत आज वैश्विक आर्थिक ताकत बन चुका है। अमेरिका और रूस के बाद भारत अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में महारत हासिल कर चुका है। वह दुनिया में तेजी से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था बन चुका है।
अब ऐसा लगता है कि सुरक्षा परिषद की सदस्यता लेने का कोई फायदा भी नहीं रहा। भारत ने स्वयं इतनी शक्ति का संचय कर लिया है कि आज पूरी दुनिया भारत की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रही है। भारत को पूरे विश्व में यह बात स्पष्ट कर देनी होगी कि हमें सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता मंजूर नहीं। अगर सुरक्षा परिषद की सदस्यता चाहिए तो केवल वीटो शक्ति के साथ। यह भी कितना दुखद है कि सुरक्षा परिषद आज तक आतंकवाद की परिभाषा तय नहीं कर पाया तो उससे और क्या उम्मीद की जा सकती है।

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