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एक साथ चुनाव का ‘देश राग’

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पूरे देश में लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने को लेकर राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविन्द ने अपने अभिभाषण में जो इच्छा व्यक्त की है वह मोदी सरकार द्वारा सत्ता में बैठने के बाद इस तरफ बार-बार मन्तव्य जाहिर करने का ही विस्तार है। इसके मूल में तर्क रखा जाता है कि देश में अलग-अलग समय पर चुनाव होने से धन का अपव्यय होता है और विकास कार्यों पर भी आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू होने पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। बहुत सादी तरह यह समझाने का प्रयास भी किया जाता है कि जब एक देश है तो एक चुनाव क्यों नहीं होना चाहिए? समझने की जरूरत यह है कि संविधान लागू होने के बाद 1952 में पूरे देश में सभी विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ ही हुए थे और 1967 तक लगभग यही स्थिति रही। केवल ओडिशा व केरल को छोड़कर सभी राज्यों में चुनाव लोकसभा के समानान्तर हर पांच साल बाद ही होते रहे परन्तु इसके बाद एेसी स्थिति बनी कि राज्यों के चुनाव अलग-अलग समय पर होने लगे और लोकसभा के चुनाव भी पहली बार पांच वर्ष से पहले ही 1971 में हुए। उस समय प्रधानमन्त्री के पद पर आसीन श्रीमती इन्दिरा गांधी ने लोकसभा में अपनी पार्टी कांग्रेस का विघटन हो जाने पर अल्पमत में आने की वजह से समय से पहले चुनाव कराये थे और विभिन्न राज्यों में कांग्रेस के कमजोर होने पर जो विभिन्न दलों की खिचड़ी (संविद) सरकारें बनी थीं उनके टिकाऊ न रहने की वजह से पांच साल से पहले ही विधानसभाओं के भंग हो जाने की वजह से चुनाव कराने जरूरी हो गये थे।

भारत की बहुदलीय राजनैतिक प्रणाली के चलते ही देश में विभिन्न राजनैतिक दलों का उत्थान-पतन होता रहा और इस देश के आम मतदाताआें की इच्छानुरूप सरकारों का गठन केन्द्र से लेकर राज्यों में होता रहा। भारत में कक्षा चार के अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में बच्चों को पढ़ाया जाता है कि भारत एक संघीय राज्य है जिसमें एक केन्द्र सरकार होती है और राज्य सरकारें होती हैं। भारत का संविधान केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच अधिकारों और शक्ति का बंटवारा करता है। अतः संसद से लेकर विधानसभाओं में बैठने वाले सदस्यों के लिए यह कोई पहेली नहीं है कि इसी संवैधानिक अधिकार के बूते पर प्रत्येक राज्य की अपनी विधानसभा होती है जिसका कार्यकाल पांच वर्ष के लिए होता है और इसमें चुनकर आये सदस्यों के दल या गठबन्धन के बहुमत के बूते पर किसी भी सरकार का गठन होता है। इस सरकार को हर हालत में प्रत्यक्ष चुने हुए सदन में हर वक्त बहुमत हासिल रहना चाहिए (कुछ राज्यों में विधान परिषद भी होती है)। अब इससे आगे सवाल और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। प्रत्येक राज्य में राज्यपाल का पद होता है। कुछ अज्ञानी लोग इस पद को कभी-कभी सजावटी या निरर्थक तक बताने की भूल कर जाते हैं। संविधान में इस पद का महत्व भारत के लोकतन्त्र की मूल संवैधानिक आत्मा को सर्वदा जीवित बनाये रखने का है और हर परिस्थिति में राज्य में केवल कानून का शासन सुनिश्चित करने का है। अतः राज्यपाल किसी भी एेसी सरकार को सत्ता में काबिज रहने की इजाजत नहीं दे सकते जिसका बहुमत विधानसभा में समाप्त हो गया हो।

एेसी परिस्थिति में किसी दूसरी वैकल्पिक सरकार का गठन न होने पर केवल पुनः चुनाव कराना ही संवैधानिक दायित्व बन जाता है। इससे भी ऊपर कक्षा चार के बच्चों को ही यह भी पढ़ाया जाता है कि भारत एेसा लोकतान्त्रिक देश है जिसमें कोई भी सरकार लोगों की सरकार होती है और लोगों द्वारा लोगों के लिए ही बनाई जाती है। जाहिर है कि एेसा केवल तभी संभव हो सकता है जबकि लोकसभा से लेकर विधानसभाओं तक में वह राजनीतिक समीकरण पूरे पांच वर्ष तक स्थिर बना रहे जो कि चुनाव परिणाम आने के बाद बना था। यदि इसमें चुने हुए सदन में सरकार बनने के बाद कोई परिवर्तन आता है तो वह लोगों द्वारा दिये गये जनादेश के अनुरूप नहीं रहेगा और एेसी सूरत में नई बनी सरकार लोगों की सरकार नहीं कही जा सकती। इस बीमारी को खत्म करने के लिए ही हमने दल-बदल कानून को सख्ती से लागू किया था (हालांकि यह भी व्यक्तिगत वैचारिक स्वतन्त्रता के मूल सिद्धान्त के उलट कहा जा सकता है परन्तु लोकतन्त्र की स्थिरता के लिए उठाया गया यह अतिवादी कदम था जिसके न होने से चुने हुए सदन राजनैतिक व्यापार मंडी जैसे बनने लगे थे) मगर इसके बावजूद यदि पांच वर्ष पूरे होने से पहले किसी भी सदन के भीतर सत्तारूढ़ सरकार की नीतियों के विरुद्ध सदन में चुनकर आये जनप्रतिनिधियों के बीच रोष पैदा होता है तो एेसी सरकार जनता की सरकार होने का रुतबा खो देती है और उसके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर किसी नये विकल्प के न उभरने पर नये चुनाव कराने आवश्यक हो जाते हैं। यह सारा कार्य राज्यपाल महोदय के संरक्षण में ही होता है और केन्द्र में राष्ट्रपति महोदय की छत्रछाया में परन्तु यह प्रक्रिया भारत की राजनीति को लगातार चलायमान इस तरह रखती है कि जनता अपनी मनपसन्द के सत्ता से बाहर रहने वाले दलों को भी सत्ता में आने का अवसर देना कभी-कभी उचित समझती है। इसका प्रमाण भारत की 1989 के बाद से चली राजनीति है जिसमें केन्द्र में एेसे-एेसे दल सरकार में शामिल रहे जिनका वजूद राज्यों के स्तर तक ही था।

कभी 13 दिन की सरकार बनी तो कभी 13 महीनों की और कभी पूरे पांच साल की और इसी प्रक्रिया से गुजर कर कल तक की उत्तर भारत की पार्टी मानी जाने वाली भाजपा 2014 में अपने ही बूते पर लोकसभा में पूर्ण बहुमत पाने के काबिल हो गई। दूसरी तरफ राज्यों मंे वहां के लोगों ने अपनी-अपनी मनपसन्द के दलों को सत्ता में आने का अवसर प्रदान किया मगर सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब केन्द्र व राज्यों के अधिकारों के बीच स्पष्ट बंटवारा है और दायित्वों का निर्धारण है तो लोकसभा के चुनावों के साथ इनके चुनाव केवल इसलिए क्यों होने चाहिएं कि धन की बचत हो जायेगी? हम किस धन की बात कर रहे हैं। संविधान में तो कहीं नहीं है कि चुनावों पर खर्च किया जाना जरूरी है। हमारा चुनाव कानून साफ कहता है कि कोई भी प्रत्याशी उसके द्वारा निर्धारित धन सीमा से अधिक व्यय नहीं कर सकता। फिर चुनावों में बेतहाशा धन बहाने के लिए राजनैतिक दलों के पास कहां से आता है? यह क्या व्यर्थ था जो डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि जिन्दा कौमें कभी-कभी पांच साल तक इन्तजार नहीं करती हैं ! इसका मतलब यही था कि किसी भी सरकार को लोकतन्त्र में हर सूरत में लोगों की सरकार ही बने रहना होगा वरना उसे गद्दी छोड़नी होगी। इसीलिए हमारे लोकतन्त्र में किसी भी समस्या का अन्तिम हल चुनाव रखा गया है। हम एक देश हैं मगर एेसे राज्यों का संघ हैं जिसमें हर राज्य की अपनी विशिष्ट जलवायु से लेकर सांस्कृतिक पहचान है। अतः इसका असर राजनीति पर न पड़े यह संभव ही नहीं है। अतः हमारे पुरखों ने भारत की सकल विविधताओं को ध्यान में रखकर हमें जो संविधान सौंपा है वह इस देश के लोगों के खून में बहते लोकतन्त्र की रवायतों को देखकर ही सौंपा है, इससे छेड़छाड़ का सीधा मतलब लोकतन्त्र से छेड़छाड़ होगा।

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