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चीन के विरुद्ध त्रिशक्ति

अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया अब एक नए सुरक्षा संकल्प पर आगे बढ़ चुके हैं। इस त्रिकोण के अस्तित्व में आने के बाद उत्तर कोरिया से लेकर चीन तक की चुनौती बढ़ गई है।

अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया अब एक नए सुरक्षा संकल्प पर आगे बढ़ चुके हैं। इस त्रिकोण के अस्तित्व में आने के बाद उत्तर कोरिया से लेकर चीन तक की चुनौती बढ़ गई है। रविवार के सम्पादकीय ‘​ब्रिक्स और भारत’ में मैंने चीन के इरादों की चर्चा की थी कि वह किस तरह से ब्रिक्स का विस्तार कर एक ऐसा शक्तिशाली समूह बनाना चाहता है ताकि अमेरिका विरोधी दुष्प्रचार को वह नई धार दे सके। ​ब्रिक्स सम्मेलन से पहले ही अमेरिका ने उसके सामने नया संकट खड़ा कर दिया है। जंगली स्थल कैम्प डेविड लम्बे समय से नई शुरूआत और नई सम्भावनाओं का प्रतीक रहा है। कैम्प डेविड में ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति यूं सुक येओल और जापानी प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा ने शिखर सम्मेलन आयोजित किया। तीनों देशों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। समझौते में कहा गया है कि अगर इनमें से किसी भी देश पर हमला किया जाता है तो इसे सभी पर हमला माना जाएगा। तीनों देश उत्तर कोरिया के परमाणु हमले के खतरे और प्रशांत महासागर में चीन के दखल के कारण बढ़ती चिंताओं के बीच अपनी सुरक्षा और आर्थिक संबंधोें को और मजबूत करने के इच्छुुक हैं। तीनों देश सलाह-मशविरा करने, सूचना साझा करने और खतरा या संकट की स्थिति में एक-दूसरे का सहयोग करने पर सहमत हुए हैं। 
अमेरिका के 80 हजार से अधिक सैनिक जापान और दक्षिण कोरिया में तैनात हैं। अमेरिका और चीन में ताइवान और अन्य मुद्दों पर तनातनी को सारी दुनिया जानती है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन चीन के राष्ट्रपति शी जिन ​िपंग को तानाशाह करार दे चुके हैं और अब वह चीन काे घेरने के लिए तमाम देशों के साथ अलग-अलग मंच बनाने में लगे हुए हैं। अगले वर्ष बाइडेन काे भी राष्ट्रपति चुनाव का सामना करना है। इस​िलए वह चीन के प्रति कड़ा रुख अपनाकर लोकप्रियता बढ़ाने का काम कर रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि तीनों देशों का सुरक्षा संकट कहीं न कहीं एक समान है। जापान और दक्षिण कोरिया जैसी दो एशियाई शक्तियों के बीच पीढि़यों से चली आ रही दुश्मनी को खत्म कर तेजी से मुखर हो रहे चीन के सामने त्रिशक्ति की चुुनौती पेश की जा सकेगी। यह बाइडेन की बहुत बड़ी कामयाबी है कि वह जापान और दक्षिण कोरिया के बीच संबंधों में सुधार ला रहे हैं। कोरियाई महाद्वीप पर जापान के 35 साल के कब्जे  से दोनों देशों में ऐतिहासिक दुश्मनी चली आ रही थी। बाइडेन दोनों देशों को यह समझाने में सफल रहे हैं कि उन्हें असली खतरा एक-दूसरे से नहीं बल्कि चीन से है।
अमेरिका हिन्द प्रशांत क्षेत्र और दक्षिणी चीन सागर में चीन के बढ़ते हस्ताक्षेप से पहले ही परेशान है। चीन कंबोडिया में एक नौसैनिक अड्डा बना रहा है। द वाशिंगटन पोस्ट के मुताबिक, चीन के सैनिकों की उपस्थिति कंबोडिया के रीम नेवल बेस के उत्तर में थाईलैंड की खाड़ी पर रहेगी। यह माना जा रहा है कि चीन ने इंडो-पैसिफिक क्षेत्र पर अपनी स्थित को मजबूत बनाने के लिए यह चौकी बनाई है। इस क्षेत्र में चीन का यह दूसरा सैन्य अड्डा है। इसके पहले चीन ने पूर्वी अफ्रीकी देश जिबूती में नौसैनिक अड्डा बनाया था। चीन के इस कदम से इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन की सैन्य शक्ति का विस्तार होगा। ऐसे में सवाल उठता है कि हिंद प्रशांत क्षेत्र पर चीन की नजर क्यों है। दक्षिणी चीन सागर और प्रशांत महासागर के रास्ते लगभग 3.5 ट्रिलियन डॉलर का व्यापार होता है। भारत, अमेरिका, चीन, कोरिया और जापान का समग्र व्यापार इन्हीं क्षेत्रों से होता है। भारत के व्यापार का भी लगभग 50 फीसदी हिस्सा हिन्द प्रशांत क्षेत्र में केन्द्रित है। अमेरिका और भारत का दृष्टिकोण एक समान है कि समुद्र और वायु क्षेत्र के साझा इस्तेमाल के लिए अन्तर्राष्ट्रीय कानून के तहत सबकी समान पहुंच होनी चाहिए। इसके लिए अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार विवादों के शांतिपूर्ण समाधान की स्वतंत्रता होनी चाहिए। कम्बोडिया में बना चीन का यह नया सैन्य ठिकाना भारत के अंडमान निकोबार द्वीप समूह से महज 1200 किलोमीटर की दूरी पर है। चीन की नौसेना या युद्ध के जहाज यहां से आसानी से बंगाल की खाड़ी में पहुंच सकते हैं। चीन समुद्री रास्ते से म्यांमार में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में जुटा है। इस सैन्य ठिकाने की मदद से चीन भारत और अमेरिका दोनों की सेनाओं की हरकतों पर खुफिया तौर पर निगरानी कर सकेगा। चीन लगातार पूरे विश्व में अपने सैन्य ठिकानों को विस्तारित करने की कोशिश में लगा हुआ है। चीन इसके लिए आर्थिक रूप से कमजोर देशों को फंडिंग करने के बाद उनके यहां घुसपैठ करता है फिर धीरे-धीरे वहां अपने सैन्य ठिकानों के निर्माण में लग जाता है।
चीन पर अंकुश लगाने के लिए अमेरिका की पहल बेहतर हो सकती है और भारत भी इस त्रिमूर्ति का समर्थक हो सकता है। तीनों देश रणनीतिक सहयोग करेंगे तो निश्चित रूप से उत्तर कोरिया के मुकाबले यह समूह काफी मजबूत होगा। इस मेल-मिलाप की सराहना तभी की जानी चाहिए जब ड्रैगन के कदमों पर शिकंजा कसा जाएगा।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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