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चुनाव आयोग बने चौकीदार!

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पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव सम्पन्न हो गये हैं और यह सुनिश्चित है कि इनसे जो परिणाम 11 दिसम्बर को आयेंगे वे आने वाले समय में भारत की राजनीति की दिशा तय करेंगे। अतः कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी की इस चेतावनी को केवल राजनैतिक पैंतरेबाजी नहीं कहा जा सकता कि प्रत्येक कांग्रेसी को ईवीएम मशीनों की पहरेदारी पूरी मुस्तैदी से करनी चाहिए। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब इमरजेंसी उठने के बाद 1977 में चुनाव हुए थे तो तत्कालीन जनता पार्टी के नेताओं ने अपने कार्यकर्ताओं को निर्देश दिये थे कि वे बैलेट बक्सों की रखवाली पूरी होशियारी के साथ करें। उसकी वजह यह थी कि इमरजेंसी के दौरान संवैधानिक संस्थाओं को सत्ता का सेवादार बना दिया गया था।

मगर चुनाव आयोग ने अपनी भूमिका को इमरजेंसी के उठने और चुनावों की घोषणा होने के बाद इस प्रकार निभाया था कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार को संविधान के उस दायरे में बांध दिया था जिसके तहत चुनावों की प्रक्रिया के दौरान सत्तारूढ़ सरकार का रुतबा केवल पर्यवेक्षक का बन जाता है। मगर उस समय में आम जनता में भी अपने दिये गये वोट की रखवाली करने का इतना जबर्दस्त जज्बा था कि वह खुद ही मतपेटियों के रखे जाने के स्थानों की रखवाली करने लगी थी। इससे केवल यही सिद्ध होता है कि लोगों का लोकतान्त्रिक प्रणाली के आधारभूत स्तम्भ ‘चुनाव आयोग’ पर से भरोसा उठ चुका था। जाहिर तौर पर चुनाव आयोग किसी भी सरकार के अधीन चलने वाले शासनतन्त्र के माध्यम से ही अपना काम करता है फर्क सिर्फ यह आता है कि चुनावों के दौरान पूरा प्रशासन तन्त्र संविधान के प्रावधानों के तहत चुनाव आयोग का ताबेदार हो जाता है और चुनाव आयोग पूरी तरह लालच से दूर रहते हुए भयरहित व निडर होकर मतदाताओं द्वारा डाले गये मत की सुरक्षा के संवैधानिक दायित्व से बन्धा रहता है।

चुनाव आयोग को इससे कोई मतलब नहीं होता कि चुनावों में हार-जीत किस पार्टी की होगी उसका मतलब केवल इससे रहता है कि मतदाताओं के मत की पवित्रता से किसी प्रकार का समझौता नहीं होगा। बेशक ईवीएम मशीनों को लेकर विपक्षी दल पिछले लम्बे अर्से से आशंकाएं व्यक्त कर रहे हैं परन्तु इन मशीनों के प्रयोग में रहते ही विभिन्न राज्यों के चुनाव मौजूदा भाजपा सरकार के सत्ता में रहते हुए हैं और इनमें से कुछ राज्यों में विपक्षी कांग्रेस पार्टी की सरकार भी बनी है मगर इसके समानान्तर हकीकत यह भी है कि हर चुनाव में आयोग के पास मतदान में धांधली होने की शिकायतें बढ़ी हैं। विशेषकर ईवीएम मशीनों की गड़बडि़यों को लेकर मध्य प्रदेश में मतदान होने के बाद जिस तरह ईवीएम मशीनों के रखरखाव में लापरवाही बरतने के वाकये सामने आये हैं उनसे चिन्ता होना इसलिए वाजिब है क्योंकि चुनाव आयोग की निगरानी में खलल डालने के प्रयास हुए हैं।

वैसे यह सवाल अपनी जगह पूरी तरह वाजिब और गौर करने लायक है कि जब मतपत्रों की जगह मशीनों से मतदान कराने का फैसला लिया गया तो इसका मूल कारण यह था कि इनकी मार्फत मतगणना की प्रक्रिया को दिनों की जगह कुछ घंटों में ही निपटाया जा सकता है लेकिन मतदान होने के बाद इनकी सुरक्षा के इन्तजाम को पूरी तरह दोषरहित बनाने के लिए चुनाव आयोग किसी प्रकार का न तो संशोधन कर सका और न परिवर्तन कर सका। मगर इससे भी बड़ा सवाल यह है कि हमारा लोकतन्त्र राजनैतिक प्रणाली के आपसी विश्वास पर टिकी हुई प्रशासन व्यवस्था है जो एक-दूसरे की विरोधी पार्टियों को जनता के आदेश का पालन करने की बाध्यता से बांधता है। जनादेश में किसी प्रकार का भी घालमघेल किसी भी स्तर करने की कोई भी गुंजाइश हमारी चुनाव प्रणाली में नहीं है। यही वजह थी कि भारत का संविधान देते हुए इसके प्रस्तावक बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि हम प्रत्येक वयस्क के मत के अधिकार के साथ जो लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली अपनाने जा रहे हैं उसके चार मजबूत स्तम्भ होंगे।

विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका व चुनाव आयोग। चुनाव आयोग ही वह इमारत बनायेगा जिसमंे शेष तीनों स्तम्भ अपनी-अपनी सक्रिय भूमिका निभायेंगे। अतः चुनाव आयोग को संविधान में पूरी स्वतन्त्रता दी गई और राजनैतिक दलों की संवैधानिक स्थिति तय करने का अधिकार दिया गया। उसका सरकार से केवल इतना ही नाता रखा गया कि उसकी प्रशासनिक व आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे। अतः बिना शक यह माना जा सकता है कि लोगों की सरकार स्थापित कराने का दायित्व चुनाव आयोग का ही है। इस प्रक्रिया के दौरान जब हम विसंगतियों को देखते हैं तो मतदाताओं के विश्वास को ही झटका लगता है।

बिना शक राजनैतिक दल आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहते हैं मगर चुनाव आयोग को इन सभी विवादों से ऊपर रह कर लोकतन्त्र के ‘विक्रमादित्य’ की भूमिका निभानी पड़ती है। एक्जिट पोल के परिणामों को केवल कयास के तौर पर ही लिया जा सकता है क्योंकि इनकी विश्वसनीयता कभी जनापेक्षाओं के अनुरूप नहीं रही है। इसे किसी राजनैतिक दल को न तो प्रभावित होने की जरूरत है और न ही विचलित होने की जरूरत है क्योंकि भारत के मतदाता अपना कर्त्तव्य निभाना बखूबी जानते हैं और असलियत यह है कि ये मतदाता दूध में मिले पानी को इस तरह अलग करने में माहिर हैं कि बड़े-बड़े सूरमा गश खाकर गिर जाते हैं।

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