पांच में से तीन विधानसभाओं के चुनावों में मतदाताओं ने जिस तरह भारी उत्साह के साथ मतदान में हिस्सा लिया है उससे यह तो निश्चित है कि भारत में लोकतन्त्र के उज्ज्वल भविष्य के साथ किसी भी तौर पर समझौता नहीं हो सकता है क्योंकि इसे मजबूत बनाने की मशाल खुद आम जनता ने थामी हुई है मगर इस मशाल की लौ को लोकतन्त्र के अन्य स्तम्भों को भी लगातार इस तरह रोशन बनाये रखना है कि किसी भी स्तर पर मतदाता के उस विश्वास को धक्का न लगे कि ईवीएम मशीन में उसके द्वारा डाला गया मत उसी के पसन्दीदा प्रत्याशी को गया है अथवा उसके फैसले के साथ किसी भी सतह पर किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ करने की कोशिश की गई है। मध्य प्रदेश में मतदान 28 नवम्बर को पूरा हो चुका है और मतगणना तक ईवीएम मशीनों की सुरक्षा और पवित्रता बनाये रखने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर इस तरह है कि अगली सरकार बनने तक राज्य की पूरी प्रशासन व्यवस्था इसके नियन्त्रण में रहती है। अतः ईवीएम मशीनों के रखरखाव के बारे में चुनाव आयोग से राज्य के शाजापुर व सागर जिलों के कुछ विधानसभा क्षेत्रों के बारे में जो शिकायत की गई है उसे अत्यन्त गंभीरता के साथ लेना होगा क्योंकि इसके साथ पूरी चुनाव प्रक्रिया की विश्वसनीयता जुड़ी हुई है।
अभी राजस्थान व तेलंगाना राज्यों में मतदान होना है और चुनाव परिणामों की घोषणा सभी पांचों राज्यों में एक दिन 11 दिसम्बर को होगी अतः तब तक लोगों द्वारा दिये गये ईवीएम में बन्द जनादेश की हिफाजत चुनाव आयोग को उस तरह करनी होगी जिस तरह सरकारी खजाने को महफूज रखने के लिए कड़ी चौकसी की जाती है। भारत का संविधान इस मामले में चुनाव आयोग को पूरी तरह अधिकार सम्पन्न इस प्रकार बनाता है कि उसे देश का कोई भी बड़े से बड़ा हुक्मरान अपने दायरे में नहीं ले सकता। भारत के महान लोकतन्त्र की यही तो खूबी और खूबसूरती है कि यहां की जनता के फैसले को चुनाव आयोग पूरी ईमानदारी के साथ इस कदर सुरक्षित रखता है कि 1977 के चुनावों से पूर्व पूरे देश में इमरजेंसी लगाकर हर लोकतान्त्रिक संस्थान को पंगु बनाने वाली स्व. इन्दिरा गांधी के खिलाफ जनता का फैसला आता है तो चुनाव आयोग उसे महफूज रखने के लिए हर जरूरी कदम इस तरह उठाता है कि मतदाता का लोकतन्त्र में डगमगाया विश्वास पुनः जम सके। अतः सवाल किसी विशेष राजनैतिक दल का नहीं बल्कि लोकतन्त्र का है।
कुछ वर्षों पहले तक पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का दबदबा था और भाजपा समेत अन्य विपक्षी दल मतदान से जुड़ी आशंकाओं के बारे में सत्ताधारी दल के विरुद्ध शिकायतें लेकर जाया करते थे। चुनाव आयोग उस समय भी पूरी निष्पक्षता के साथ अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए लोगों के विश्वास को दृढ़ बनाये रखता था। इसका मूल सिद्धान्त यह है कि चुनाव आयोग की निगाह में मतदान प्रणाली के शुरू होते ही सभी राजनैतिक दलों की स्थिति एक समान हो जाती है। अक्सर मतदाताओं को यह गलतफहमी रहती है कि किसी राज्य का मुख्यमन्त्री अथवा राष्ट्रीय चुनावों के सन्दर्भ में प्रधानमन्त्री चुनाव प्रचार के दौरान अपनी हैसियत का लाभ उठा सकता है मगर चुनावी मैदान में चुनाव आयोग के समक्ष उसकी हैसियत उस समय केवल उसके राजनैतिक दल के नेता की होती है। उसकी चुनाव सभाओं का खर्चा सरकार नहीं उठाती बल्कि उसका दल उठाता है। बेशक पद पर होने की वजह से उसे वे सब सुविधाएं (प्रमुख रूप से सुरक्षा आदि) मिलती हैं जिनकी दरकार उसका पद करता है। अतः यह नियम भी भारतीय व्यवस्था में बेवजह नहीं है कि एक बार चुनाव प्रक्रिया शुरू होने पर उसमें सर्वोच्च न्यायालय भी दखल नहीं दे सकता। ये सब कायदे-कानून लोगों को लोकतन्त्र का मालिक बनाने के लिए ही स्थापित किये गये हैं और इनका संरक्षक चुनाव आयोग को आधारभूत रूप में बनाया गया है।
दरअसल बाबा साहेब अम्बेडकर ने जो संवैधानिक व्यवस्था हमें सौंपी उसमें इसके चारों पाये विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका व चुनाव आयोग को इस प्रकार खुद मुख्तारी सौंपी कि किसी भी पाये के गफलत में आने पर उसे दूसरा पाया झिंझोड़ कर जगा सके और लोकतन्त्र की इमारत को कमजोर होने से बचा सके, लेकिन चारों पायों में से 90 के दशक के पहले तक सबसे कम चर्चा चुनाव आयोग की हुई है। इसकी प्रमुख वजह यही थी कि कुछ राज्यों में छोड़कर राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक माहौल कमोबेश सीधी बहती नदी की तरह था मगर इसी दशक के दौरान ही राजनीति में भयंकर भूचाल ‘मंडल और कमंडल’ की राजनीति को लेकर भी आया। इस पर कुछ विशेषज्ञों की पुख्ता राय चुनाव आयोग पर एक आरोप की तरह थी। आज के माहौल में भी यह प्रश्न दोनों तरफ से खुला हुआ कहा जा सकता है मगर इसका दोष मूल रूप से लगातार स्तरहीन और सड़क छाप बनते राजनैतिक विमर्श को दिया जा सकता है जिसने राजनीतिज्ञों की चुनावी भाषा को चौराहों की चकचक में बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी है मगर यह सोचना फिजूल होगा कि इस राजनैतिक माहौल का लोकतन्त्र के अन्य स्तम्भों पर कोई असर नहीं पड़ सकता। परोक्ष रूप से यह असर पड़ता है और इसकी प्रतिध्विन भी हम यदा-कदा सुनते रहते हैं। जिस प्रकार उत्तर प्रदेश के कैराना लोकसभा उपचुनाव में वहां के जिलाधिकारी की भूमिका की बाद में न्यायिक समीक्षा हुई है, उससे सबक सीखा जा सकता है।