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उपचुनावों में भाजपा का डंका

देश के विभिन्न राज्यों में हुए लोकसभा व विधानसभा चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा को मिली विजय से यह संकेत मिलता है कि आम जनता में शासन के पक्ष में सकारात्मक विचार हैं। मगर यह भावना सर्वत्र एक जैसी हो यह भी नहीं है।

देश के विभिन्न राज्यों में हुए लोकसभा व विधानसभा चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा को मिली विजय से यह संकेत मिलता है कि आम जनता में शासन के पक्ष में सकारात्मक विचार हैं। मगर यह भावना सर्वत्र एक जैसी हो यह भी नहीं है। हालांकि उप चुनाव किसी भी पार्टी के लिए महत्वपूर्ण होने से पहले स्वयं जनता के लिए ही अधिक महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि इनमें स्थानीय मुद्दे वरीयता ले लेते हैं। इस सन्दर्भ में देखा जाये तो उत्तर प्रदेश के रामपुर व आजमगढ़ सीटों से हुए लोकसभा उप चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति के परिपक्व स्वरूप को दर्शाते हैं। इन दोनों ही स्थानों पर राज्य की क्षेत्रीय पार्टी समाजवादी के प्रत्याशी परंपरागत रूप से जीता करते थे। परन्तु पिछले 25 वर्ष की इस प्रदेश की जातिपरक राजनीति के दौर में पहली बार ऐसा हुआ है कि भाजपा के प्रत्याशियों को शानदार विजय मिलने की खबरें आयी हैं। रामपुर ऐसा इलाका माना जाता था जिसे प्रायः समाजवादी पार्टी अपना मजबूत गढ़ मानती थी और इसके नेता आजम खां बड़ी शान से ऐलान किया करते थे कि रामपुर की जनता मुलायम सिंह के इशारे पर ही अपना फैसला सुनाती है। उनका यह भ्रम इस बार राज्य के भाजपा के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने दूर कर दिया है। इतना ही नहीं आजमगढ़ की सीट पर भी मुलायम सिंह के भतीजे धर्मेन्द्र यादव को भोजपुरी फिल्मों के लोकप्रिय कलाकार दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ के हाथों पिछड़ना पड़ा है। आजमगढ़ से स्वयं मुलायम सिंह जीता करते थे और यह सीट उनके पुत्र व पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव के लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा देने की वजह से खाली हुई थी। अभी राज्य में विधानसभा चुनाव हुए साल भर भी नहीं बीता है, जिनमें श्री अखिलेश यादव विधानसभा के लिए चुने गये थे। यह चुनाव वह अपने पैतृक जिले इटावा की यादव बहुल मतदाता एक सीट से जीते थे। मगर आजमगढ़ में जिस तरह समाजवादी पार्टी ‘मुस्लिम-यादव’ सामाजिक गठजोड़ बना कर जीतती थी उसे योगी के राष्ट्रवादी समीकरण ने परास्त कर दिया है। बेशक इस सीट से बसपा उम्मीदवार गुड्डू जमाली भी प्रत्याशी थे, जिन्हें अच्छे खासे वोट भी मिले परन्तु वह भी भाजपा के राष्ट्रवादी समीकरण को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा सके। रामपुर में तो कमाल ही हो गया क्योंकि यहां के मतदाताओं ने मुस्लिम-यादव गठजोड़ का मिथक पूरी तरह निष्फल कर दिया और भाजपा प्रत्याशी को विजयश्री दिलाई। मगर राष्ट्रीय स्तर पर इन लोकसभा उपचुनावों के परिणामों का सन्देश यह भी है कि राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका हांशिये पर ही रहनी चाहिए क्योंकि इनके नेताओं में राष्ट्रीय समस्याओं को निपटाने की वह दूरदृष्टि नहीं होती जिससे राष्ट्रहित सर्वप्रथम स्थान प्राप्त कर सके। 
देश की संसद में पहुंच कर भी इन दलों के सांसद संकीर्ण पार्टी हितों के नजरियों से ही इन समस्याओं को देखते हैं। इसके साथ समाजवादी पार्टी राजनीति में ऐसी खानदानी दुकान है जिसकी गद्दी पर केवल पिता के बाद पुत्र ही बैठता आया है। परिवार मोह ऐसी पार्टियों का पहला लक्ष्य होता है। लोकतन्त्र में खानदानी राजनीति का यह रोग हालांकि सभी राज्यों में हमें मौजूद नजर आता है मगर उत्तर प्रदेश में यह कार्य कुछ ज्यादा सीनाजोरी के साथ हुआ। जाहिर है लोकसभा उपचुनाव राज्यों या स्थानीय मुद्दों पर नहीं लड़े जा सकते अतः मतदाताओं के दिमाग में कहीं न कहीं मोदी सरकार के कार्य भी रहे होंगे और मतदान करते समय उनके दिमाग में देश की राजनीति में उठ रहे ताजा मुद्दे भी रहे होंगे। इनमें सेना में अग्निवीरों की भर्ती का मुद्दा भी रहा होगा।  विपक्षी दलों खास तौर पर श्री अखिलेश यादव ने इस मामले में जो विचार व्यक्त किये, वे देश की युवा पीढ़ी को पसन्द नहीं आये। अतः उप चुनाव परिणाम अग्निवीर मुद्दे पर भी एक प्रकार से जनमत की पहचान कहे जा सकते हैं। दूसरी तरफ दिल्ली विधानसभा की राजेन्द्र नगर सीट पर सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी की विजय हुई यहां भाजपा प्रत्याशी चुनावी मशीनरी के विभिन्न तत्वों के अपने पक्ष में होने के बावजूद विजयी नहीं हो सका क्योंकि दिल्ली में ही भाजपा की केन्द्रीय सरकार भी है। मगर दूसरी तरफ यह पार्टी पंजाब की संगरूर विधानसभा सीट हार गई जहां से स्वयं मुख्यमन्त्री श्री भगवन्त मान पिछला विधानसभा चुनाव जीते थे। इसका कारण यह भी हो सकता है कि पंजाब की जनता विधानसभा में कमजोर विपक्ष को कुछ आवाज देना चाहती हो क्योंकि विधानसभा चुनावों में विपक्षी पार्टियां चारों खाने चित्त रही थी। वैसे विधानसभा उपचुनाव प्रायः स्थानीय समस्याओं को केन्द्र में रख कर ही लड़े जाते हैं और इक्का-दुक्का सीट पर सत्तारूढ़ पार्टी का हारना केवल सरकार को सावधान करना ही माना जाता है परन्तु लोकसभा उपचुनावों का सीधा सम्बन्ध राष्ट्रीय मुद्दों से होता है। इसलिए उत्तर प्रदेश के लोकसभा उपचुनाव अखिल भारतीय राजनीति की दिशा भी बताते हैं। इससे कम से कम यह तो पता चलता है कि राष्ट्रीय राजनीति में विपक्ष एवं सत्ता पक्ष जो विमर्श खड़ा करने चाहते हैं उनमें से किसका पलड़ा भारी है। निश्चित रूप से भाजपा का खड़ा किया राष्ट्रवाद का विमर्श विपक्ष पर भारी है और वह इसे बहुदिशा से भिन्न-भिन्न विरोधी आवाजें उठवा कर तोड़ने की स्थिति में नहीं है।

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