लातिनी या लैटिन अमेरिकी देशों में पिछले कुछ वर्षों से जो समाजवादी या दक्षिणपंथ विरोधी राजनैतिक लहर चल रही है उससे इस क्षेत्र का सबसे बड़ा देश ब्राजील भी अछूता नहीं रहा है और यहां पुनः ‘बूट पालिश ब्वाय’ के नाम से प्रख्यात लोकप्रिय नेता श्री लूला 12 वर्ष बाद पुनः राष्ट्रपति चुनाव जीत गये हैं। बचपन में लोगों के जूतों की पालिश करके अपना गुजारा चलाने वाले ‘लुला’ पहली बार जब 2002 में ब्राजील के राष्ट्रपति चुने गये थे तो दोनों अमेरिकी महाद्वीपों में उनके नाम का जादू छा गया था। लूला उस समय पूरी दुनिया के देशों के दबे-कुचले व पिछड़े गरीब लोगों के लिए आशा की किरण बनकर उभरे थे। उनकी लोकप्रियता इतनी जबर्दस्त थी कि चार वर्ष बाद हुआ 2006 का राष्ट्रपति चुनाव भी वह आसानी से जीत गये थे। वह 2002 से 2010 तक अपने देश के राष्ट्रपति रहे और इस दौरान उन्होंने ब्राजील की अर्थव्यवस्था का नक्शा ही बदल कर रख दिया और बेरोजगारी के मोर्चे पर भी बड़ी सफलता प्राप्त की और अपने देश को दुनिया की आठवें नम्बर की अर्थव्यवस्था बना दिया। उनका आठ वर्ष का यह शासन आम ब्राजीली नागरिकों के उत्थान के लिए जाना जाता है जिसमें महंगाई को भी पूरी तरह नियन्त्रण मंे रखा गया था। वह अपने शासन के दौरान महंगाई की दर को 14 प्रतिशत से चार प्रतिशत तक लाने में सफल रहे थे। लगातार तीन बार राष्ट्रपति न बनने की शर्त होने की वजह से 2010 के चुनावों में उनकी लेबर पार्टी ने राष्ट्रपति पद पर श्रीमती दिलमा रोऊसफ को उतारा था जो भारी बहुमत से विजयी रही थी। वह 2014 का चुनाव भी जीतीं मगर सत्ता में रहते हुए 2016 में उनपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे जिसके लपेटे में श्री लूला भी आ गये। 2018 में उन्हें न्यायालय ने दोषी भी करार दिया परन्तु 2019 में वह दोषमुक्त घोषित कर दिये गये। इसकी वजह से ब्राजील में दूसरी रूढ़ीवादी समझी जाने वाली पार्टी ने 2018 का चुनाव जीता और श्री जैर बोलसाेनारो राष्ट्रपति चुने गये। बोलसाेनारो ने ब्राजील की जनता का विभिन्न मुद्दों पर ध्रुवीकरण किया जबकि आर्थिक मोर्चे पर वह असफल होते रहे। उनके शासनकाल में महंगाई की दर पुनः दस प्रतिशत से ऊपर पहुंच गई और सरकार पर कर्जों का अम्बार लग गया। जब लुला ने 2010 में सत्ता त्यागी थी तो ब्राजील सरकार पर उसके सकल घरेलू उत्पादन के मुकाबले कर्जा 52 प्रतिशत था जो अब बढ़कर 100 प्रतिशत से अधिक हो चुका है और अर्थव्यवस्था में ब्राजील 12वें नम्बर पर खिसक चुका है।
लूला के पुनः राष्ट्रपति बनने से इस देश के गरीब व कम आय वाले तबके के लोगों में उम्मीद की किरण जगी है कि श्री लूला अपने पुराने शासनकाल की तरह इस बार भी उनके लिए कल्याणकारी योजनाएं लायेंगे। पिछले कार्यकाल में लूला ने गरीब तबके के लोगों को सीधे आर्थिक मदद देने का फैसला इस शर्त के साथ किया था कि वे अपने बच्चों को स्कूल भेजें और नियम से उनका स्वास्थ्य परीक्षण करायें। दरअसल लूला ब्राजील के लोगों मे यह विश्वास जगा कर पुनः राष्ट्रपति पद पर पहुंचे हैं कि वह उनके देश में पुनः निम्न, मध्यम वर्ग व गरीबों को राहत देने की योजनाएं चलायेंगे और बेरोजगारी को नियन्त्रित करके महंगाई को काबू में रखेंगे। इस देश में नागरिकों का ध्रुवीकरण भी आर्थिक मुद्दों पर ही हुआ है। लूला चुंकि वामपंथ या लोकतान्त्रिक समाजवाद की तरफ झुके हुए माने जाते हैं तो समाज के निचले तबके का उन्हें भरपूर समर्थन मिला है। परन्तु बोलसाेनारो के मुकाबले उनकी जीत मात्र .8 प्रतिशत वोटों से ही हुई है।
श्री लुला को 50.9 प्रतिशत व बोलसानारों को 49.1 प्रतिशत मत मिले हैं। इससे समझा जा सकता है कि मतदाताओं का ध्रुवीकरण कितना भयंकर था। लेकिन लैटिन अमेरिकी देशों के सन्दर्भ में यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है कि यहां के लोगों का झुकाव वामपंथ की समर्थक कही जाने वाली पार्टियों की तरफ क्यों हो रहा है ? जबकि वेनेजुएला जैसे देश का बंटाधार वामपंथी नेतृत्व की वजह से ही हुआ। इसकी वजह यह मानी जा रही है कि इन सभी देशों में बाजार मूलक अर्थव्यवस्था ने आय में भारी विषमता बढ़ाई है जिसकी वजह से लोगों का रुझान समाजवाद की तरफ हुआ है। मेक्सिको से लेकर अर्जेटीना, होंडुरास, पेरू, चिलेकोलांबिया,
बोलिविया आदि तक सभी में पिछले चुनावों में समाजवादी विचारधारा के नेता ही चुनाव जीते हैं। मगर ब्राजील का मामला निराला है क्योंकि यहां रूढि़वादियों व समाजवादियों के बीच मुश्किल से एक प्रतिशत का अन्तर भी नहीं है। इसलिए श्री लुला के लिए राह आसान नहीं मानी जा रही है। उन्हें सबसे
पहले बदहाल अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करना होगा और लोगों के बीच की दरारें कम करनी होंगी। जहां तक भारत का सवाल है तो ब्राजील के साथ इसके समबन्ध हर दौर में ही मधुर रहे हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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