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उपचुनावः मतदाता की जय

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भारत के लोकतन्त्र की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि अब देश के मतदाता ही फैसला करते हैं कि किसको जिताना है और ​किसको परा​जित करना है। पिछले सत्तर सालों में एेसा एक बार नहीं बल्कि कई बार हो चुका है। जिस किसी भी राजनैतिक दल ने मतदाताओं की सजगता और बुद्धिमत्ता को कम करके आंकने की कोशिश की है हमेशा उसे मुंह की खानी पड़ी है। आज घोषित हुए कई राज्यों के विधानसभा व लोकसभा उपचुनावों के नतीजों से जो सन्देश निकला है वह यही है कि भारत के लोकतन्त्र को जीवन्त और ऊर्जावान बनाये रखने वाले मतदाता हैं न कि नेता! किस हिसाब से मतदाताओं ने फैसला दिया है कि बड़े-बड़े राजनैतिक पंडित भी सिर खुजलाने लगें और सोचने पर मजबूर हो जायें कि ‘गांधी बाबा’ इन्हें कौन सी घुट्टी पिला कर गये हैं कि ये मिट्टी में दबे हुए सोने को निकाल कर सियासी जमातों को आइना दिखा देते हैं और एेलान कर देते हैं कि उन्हें खरे-खोटे में फर्क करना बड़े इत्मीनान से आता है। मुझे याद है कि अस्सी के दशक में जब स्व. हेमवती नंदन बहुगुणा ने इन्दिरा जी का साथ छोड़कर लोकसभा से इस्तीफा देकर पुनः उपचुनाव लड़ा था तो प्रधानमन्त्री पद पर काबिज होने के बावजूद इन्दिरा जी ने स्थापित परंपरा को तोड़कर चुनाव प्रचार जमकर किया था और पौड़ी गढ़वाल के लोगों से बहुगुणा जी को हराने की खुली अपील की थी मगर मतदाताओं ने बहुगुणा जी को भारी मतों से जिताकर सिद्ध किया था कि उन पर न तो सत्ता का रुआब और न ही प्रचार का प्रभाव काम कर सकता है।

उनके लोकतान्त्रिक अधिकार पर सिर्फ उनका ही अधिकार है। बेशक यह अधिकार उन्हें आजादी की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस पार्टी ने ही दिलाया है मगर इसके प्रयोग करने की उनकी सामर्थ्य को कोई भी चुनौती नहीं दे सकता। अतः उत्तर प्रदेश के कैराना लोकसभा उपचुनाव का जो परिणाम निकल कर आया है उससे आश्चर्य में पड़ने की जरा भी जरूरत नहीं है क्योंकि अभी तक कोई भी एेसा सूरमा पैदा नहीं हुआ है जो लोगों के दिमाग में उठने वाले सवालों को खत्म कर सके। यह इलाका उन स्व. चौधरी चरण सिंह की ग्रामीण राजनीति की आधारशिला रहा जिसने एक जमाने में पूरे उत्तर भारत में वह हुंकार पैदा की थी जिससे भारत की राजनीति में एेसा विकल्प तैयार होने लगा था जिसमें सिर्फ भारत मूलक विकास की नई इबारत तैयार हो सकती थी। क्योंकि मेहनतकश किसान, मजदूर, दस्तकार व छोटे रोजगारी से लेकर नई पीढ़ी के युवा अपनी जाति-बिरादरी और मजहब को दरकिनार करके एकजुट होने लगे थे और सत्ता में अपनी भागीदारी मांगने लगे थे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण जनता दल (लोक) के अध्यक्ष श्री शरद यादव हैं जिन्होंने अपने लम्बे संसदीय जीवन में सिर्फ चौधरी साहब के मूल्यों को केन्द्र में रखकर ही राजनीति की है।

अन्दाजा लगाइये कि यदि कैराना से खुदा न ख्वास्ता शरद यादव चुनाव लड़ रहे होते तो आज प. उत्तर प्रदेश का क्या नजारा होता? यकीन मानिये इस इलाके के लोग जड़ से उस बुराई को समाप्त कर देते जिसने उनके सामाजिक जीवन को पिछले छह साल से जहन्नुम बना रखा था। कैराना कोई केवल कस्बा नहीं है बल्कि यह उस हिन्दोस्तानी संस्कृति का तीर्थ स्थल भी है जहां कभी भारतीय संगीत के महान शास्त्रीय गायक उस्ताद अब्दुल करीम खान की खयाल गायकी को शाही सल्तनत से लेकर जागीरदारों के महल अपनी रौनक बनाने को उतावले रहते थे। जिस सरजमीं पर कभी संगीत के रागों की स्वर लहरियों पर खेतों में काम करने वाले किसान-मजदूर भी लहराने लगते हों वहां अगर हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे के खून के प्यासे बना दिये गये हों तो न चरण सिंह की विरासत काम कर सकती थी और न उस्ताद अब्दुल करीम खान की ‘खानकाही’ मगर इसे हम जाट और मुसलमान के दायरे में रखकर देखने की गलती आज भी कर रहे हैं। हालांकि जिस तरह यहां के मतदाताओं ने अपना फैसला दिया है उससे साबित हो रहा है कि हिन्दोस्तान का गन्ना उगाने वाला किसान जब अपने खेतों में काम करता है तो वह न हिन्दू होता है न मुसलमान बल्कि निखालिस किसान होता है और उसकी समस्याओं को हुकूमत को इसी नजर से देखना होगा।

बिना शक यही चौधरी चरण सिंह की विरासत है जिसका प्रदर्शन यहां के लोगों ने सियासत को परे फेंक कर एक बार फिर करने की हिम्मत दिखाई है। यह हार-जीत किसी पार्टी की नहीं बल्कि कैराना की महान विरासत की है जिसमें अब्दुल करीम खान साहब के स्वरों की मीठी गूंज भी शामिल है और चौधरी साहब की ग्रामीण जनता के विकास के नीति-वाक्य भी। यह भविष्य की राजनीति का वह झरोखा है जिसे स्वयं मतदाताओं ने खोला है। जहां तक अन्य उपचुनावों के परिणामों का सवाल है तो स्पष्ट है कि प. बंगाल में ममता दी की सियासत में लोगों का पक्का यकीन मौजूद है मगर बिहार के जोकीहाट उपचुनाव से जो हवाएं उठी हैं वे जमीन से जेल तक लालू जी की यात्रा की ‘नामानिगारी’ करके नीतीश कुमार को चेतावनी दे रही हैं कि मुसीबत में यारी तोड़ने का मिजाज सियासत का अन्दाज कैसे हो सकता है? सियासत आतिशगिरी का फन नहीं होती !

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