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चीन की ‘नीयत’ और भारत

चीन के साथ पिछले तीन वर्षों से भारत के सम्बन्ध जिस तल्खी के दौर से गुजर रहे हैं उसकी मूल वजह चीन की वह खोट भरी नीयत ही है

चीन के साथ पिछले तीन वर्षों से भारत के सम्बन्ध जिस तल्खी के दौर से गुजर रहे हैं उसकी मूल वजह चीन की वह खोट भरी नीयत ही है जिसके चलते वह भारतीय सीमाओं में अतिक्रमण करता रहता है। जून 2020 में लद्दाख की गलवान घाटी में तैनात भारतीय सैनिकों के साथ चीनी फौजियों ने जिस तरह की हाथापाई और संघर्ष किया था उसमें भारत के 20 रणबांकुरे शहीद हो गये थे और उसके बाद से चीनी फौजें भारतीय सीमा क्षेत्र में घुस कर बैठ गई थीं। वैसे तो चीन की तरफ से बार-बार आपसी सम्बन्धों को सामान्य बनाने की बात कही जाती रही है मगर इसकी कथनी में भी फर्क देखने में आता रहता है। भारत की आन्तरिक राजनीति में भी चीन के रवैये को लेकर पिछले कुछ वर्षों से लगातार गर्मी बनी रहती है और विपक्षी दल सरकार की आलोचना करते रहते हैं परन्तु इतना निश्चित है कि जून 2020 से भारत-चीन की सीमाओं पर तनावपूर्ण माहौल लगातार बना हुआ है जिसे दूर करने के लिए अभी तक दोनों सेनाओं के कमांडर स्तर की 19 दौर की वार्ताएं भी हो चुकी हैं मगर नतीजा भारत की अपेक्षानुरूप नहीं निकल पाया है। ऐसे वातावरण के बीच दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग शहर में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी व चीन के राष्ट्रपति शी-जिन-पिंग के बीच आमने-सामने की बातचीत की संभावनाएं ‘ब्रिक्स’ सम्मेलन के चलते बलवती हुई हैं। श्री मोदी 22 अगस्त को दक्षिण अफ्रीका की यात्रा पर रवाना हुए हैं। वह ब्रिक्स ( ब्राजील, रूस, भारत, चीन व दक्षिण अफ्रीका) सम्मेलन में तीन दिन तक भाग लेंगे। इसमें चीन के राष्ट्रपति भी भाग लेने आ रहे हैं जबकि रूस के राष्ट्रपति वीडियो कान्फ्रेंस के जरिये ही इसमें शामिल होंगे।
 पिछले तीन साल में यह पहला मौका होगा जब श्री मोदी व शी-जिन-पिंग के बीच कायदे से आपसी बातचीत हो सकती है और इसमें दोनों देशों के आपसी सम्बन्धों के बारे में रचनात्मक बातचीत हो सकती है। भारत के रक्षा व कूटनीतिक विशेषज्ञ शुरू से ही सावधान कर रहे है कि चीन लद्दाख से गुजर रही सीमाओं नियन्त्रण रेखा को बदल देना चाहता है जिसकी वजह से लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश से लगी सीमाओं में यह परिवर्तन करने पर आमादा लगता है। चीन के बारे में भारत में यह धारणा बन चुकी है कि जून 2020 के बाद से वह भारत की कम से कम दो हजार वर्ग कि.मी. भूमि को कब्जाये बैठा है। उसके साथ कमांडर स्तर की जो वार्ताएं होती हैं उनमें किश्तों में वह भारतीय जवानों को पुरानी चौकियों पर तैनात होकर सुरक्षा करने को सहमति देता है और पीछे हटने का नाटक करता रहता है मगर भारत के इलाके वाले क्षेत्र में सैनिक निर्माण कार्य भी करता रहता है।  
पूरा भारत चीन की इस खोटी नजर को भलि-भांति पहचानता है क्योंकि 1962 में अकारण ही इसने भारत की पीठ में छुरा घोंपते हुए विश्वासघात करके हमला कर दिया था और इसकी फौजें असम राज्य के ‘तेजपुर’ तक आ गईं थीं। बाद में प. नेहरू की अन्तर्राष्ट्रीय छवि को देखते हुए विश्व के अधिसंख्य देशों ने चीन को इस कदर जलील किया कि इसे अपनी फौजें पीछे हटाने के लिए मजबूर होना पड़ा मगर उस समय चीन भारत का पूरा अक्साई चिन इलाका अपने कब्जे में लेकर बैठ गया। तब से यह क्षेत्र इसके कब्जे में है मगर 1963 में पाकिस्तान ने एक और शातिराना हरकत की और पाक अधिकृत कश्मीर का काराकोरम घाटी वाला पांच हजार वर्ग कि.मी. का इलाका इसे सौगात में दे दिया और चीन के साथ नया सीमा समझौता कर लिया। इतना ही नहीं जब 2003 में भाजपा नीत एनडीए की वाजपेयी सरकार ने तिब्बत को चीन का हिस्सा स्वीकार किया तो चीन ने सिक्किम को भारतीय संघ का हिस्सा मानने के साथ ही अरुणाचल प्रदेश पर अपना अधिकार जमाना शुरू कर दिया। अतः चीन की विस्तारवादी नीति के प्रति हमें हमेशा ही सजग रहने की जरूरत है। यह ऐसा कम्युनिस्ट देश है जिसका यकीन अब पूंजीवादी विस्तारवाद पर भी हो गया है और यह दुनिया के कम विकसित व गरीब देशों को इसी नीति के चलते नयी साम्राज्यवादी व्यवस्था कायम करना चाहता है। मगर भारत की स्थिति अब 1962 वाली नहीं है और वह एेसी स्थिति में 2006 में ही आ गया था जब भारत के तत्कालीन विदेशमन्त्री भारत रत्न स्व. प्रणव मुखर्जी ने राष्ट्रसंघ महासभा की बैठक के समानान्तर ही ब्रिक्स संगठन की मजबूत आधारशिला रख दी थी। बेशक इसमें चीन भी शामिल था मगर प्रणव दा इस संगठन के बहाने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से पूरी दुनिया में अमेरिका व पश्चिमी यूरोपीय देशों की वह दादागिरी तोड़ना चाहते थे जिसके चलते इन देशों ने दुनिया के अधिकांश वित्तीय स्रोतों व आय स्रोतों पर अपना अधिपत्य जमा रखा था। बाद में ब्रिक्स बैंक की स्थापना होना इसका प्रमाण भी है। 
अब इसी ब्रिक्स संगठन में दुनिया के 23 और देश शामिल होना चाहते हैं और जोहान्सबर्ग ब्रिक्स सम्मेलन का इस बार यही प्रमुख एजेंडा भी है। मगर भारत को सीधा मतलब चीन से है जो जून 2020 से ही भारत के लद्दाख क्षेत्र में अपनी सीनाजोरी चला रहा है और भारत को अपना माल निर्यात करने में भी हर साल तरक्की कर रहा है। भारत में चीनी कम्पनियों का कारोबार कम नहीं है लेकिन चीन भारत का पड़ोसी भी है। 1959 में स्वतन्त्र देश तिब्बत को हड़पने के बाद अब इसकी सीमाएं सीधे भारत से सटती हैं और समुद्री सीमाएं तो पहले से ही इससे लगती हैं। अतः हमें बड़े शान्त चित्त और कूटनीति से इसके साथ सम्बन्धों को सामान्य बनाना होगा।

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