भारत में साम्प्रदायिक हिंसा का इतिहास जितना पुराना है उतना ही पुराना राजनीतिक हिंसा का भी है। कभी राजाओं के राजमहल में सत्ता के लिए षड्यंत्र रचे जाते थे, प्रतिद्वंद्वियों को खत्म करने के लिए खून की नदियां बहा दी जाती थीं। आज के दौर में जब हम राजनीतिक हिंसा की बात करें तो जेहन में सबसे पहले पश्चिम बंगाल और केरल राज्य पर ही ध्यान जाता है। दोनों ही राज्यों में राजनीतिक हिंसा का जारी रहना देश के लिए चिन्ता का विषय है। पश्चिम बंगाल देश का ऐसा राज्य है जिसने एक से बढ़कर एक विचारक और नेता दिए हैं। वास्तव में इस राज्य को भारत की विचारशक्ति की सबसे उपजाऊ जमीन कहा जा सकता है।
रूढि़वादी वामपंथी विचारों को क्रांतिकारी संशोधनों के साथ भारतीय पृष्ठभूमि में लागू करने का विचार देने वाले स्वर्गीय एम.एम. राय से लेकर कांग्रेस की गांधीवादी विचारधारा से निकले सैनिक क्रांति का आह्वान करने वाले नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और विशुद्ध अहिंसक गांधी विचार को फैलाने वाले विधानचन्द्र राय से लेकर अतुल्य घोष तक बंगाल से ही राष्ट्रीय राजनीति में चमके। राष्ट्रगान के लेखक प्रख्यात कवि रविन्द्रनाथ टैगोर भी इसी भूमि की उपज थे। यही नहीं देश में सत्तारूढ़ भाजपा के संस्थापक स्वर्गीय डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पूर्व राष्ट्रपति डा. प्रणव मुखर्जी भी इसी राज्य की देन हैं। क्रांतिकारियों में श्याम जी कृष्ण वर्मा को लेकर रासबिहारी बोस तक न जाने कितने आजादी के दीवाने इस धरती ने देखे।पश्चिम बंगाल की जनता ने 34 साल तक वामपंथियों का शासन देखा।
बार-बार सत्ता उन्हें सौंपकर विशिष्ट सिद्धांतों के लिए अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की मगर लोगों द्वारा दिए गए सत्तापूरक जनादेश ने वामपंथियों ने प्रशासनिक मशीनरी के स्थान पर दलीय या पार्टी कार्यकर्ताओं की शासन प्रणाली को मजबूत करने की सुविधा प्रदान कर दी थी जिसका लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं हो सकता क्योंकि नागरिक सरकारी प्रशासनिक प्रणाली में दलगत भावना की कोई जगह नहीं है। इसीलिए किसी भी सरकारी कर्मचारी के किसी भी राजनीतिक दल के सक्रिय कार्यकर्ता होने पर हमारे देश में प्रतिबंध है। 34 वर्षों के शासन में माकपा और उसके सहयोगी दलों ने पार्टी कार्यकर्ताओं की मार्फत समानांतर प्रशासनिक प्रणाली स्थापित करने में सफलता हासिल कर ली। राज्य के ग्रामीण और सुदूर इलाकों में माकपा पार्टी के शिविर चलते रहे जिनमें हथियारों से लैस कार्यकर्ता भाग लेते रहे। राज्य में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या का सिलसिला ऐसा शुरू हुआ जो अब तक खत्म नहीं हो रहा।
भारत की राजनीतिक संस्कृति और लोकतंत्र की वैचारिक भिन्नता को सहनशीलता के आइने में ही देखा जाएगा। कोई कम्युनिस्ट हो सकता है, कोई भाजपाई हो सकता है, कोई कांग्रेसी हो सकता है, कोई तृणमूल कांग्रेस का नेता हो सकता है मगर किसी दूसरे विचार को मानने वाले व्यक्ति की हत्या का अधिकार किसी दूसरे विचार से जुड़े व्यक्ति को कैसे मिल सकता है? वहां सैकड़ों कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की हत्या की गई, हिंसा की घटनाओं में हजारों लोगों ने अपना जीवन खो दिया। पश्चिम बंगाल में जब वामपंथियों का शासन था तो उसके कार्यकर्ताओं ने विपक्षी पार्टियों को निशाना बनाया। विपक्षी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया। अब जबकि बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार है और मुख्य विपक्षी दल कम्युनिस्ट पार्टी है और भाजपा भी वहां अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज कराने के लिए प्रयासरत है तो ऐसे में भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं पर लगातार हमले होना एवं उनकी हत्या होना इस बात की पुष्टि करता है कि स्थितियां वैसी की वैसी ही हैं। जो काम वामपंथी करते रहे हैं वही अब सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता कर रहे हैं।
राजनीतिक सभ्यता को ताक पर रखकर पूरी तरह से लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्वस्त करने वाले वामपंथी दल अब हाशिये पर हैं। क्या कोई भूल सकता है 21 जुलाई 1993 की घटना को जब पश्चिम बंगाल सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे यूथ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर खुलेआम गोलियां चलवाई गई थीं जिसमें 13 लोग मारे गए थे। नंदीग्राम, सिंगूर और लालगढ़ की ङ्क्षहसा को कौन भुला सकता है। वामपंथियों ने गरीब आदमी के आंदोलन को कुचलने के लिए हिंसा का तांडव किया। कौन नहीं जानता कि प. बंगाल में माओवादी हर जिले, कस्बे और गांव से व्यापारियों, ठेकेदारों, इंजीनियरों से धन वसूलते रहे। यह काम वामपंथी कार्यकर्ता ही करते थे। खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले वामपंथी दलों ने जानबूझ कर इस्लामी कट्टरपंथ और अलगाववाद की अनदेखी की जिसका परिणाम यह हुआ कि पश्चिम बंगाल को पाकिस्तान बनाने की साजिशें हो रही हैं। (क्रमश:)