आज 26 जून का दिन है जिस दिन 1975 के बहुत से बड़े अखबारों के सम्पादकीय स्थान खाली छोड़ दिये गये थे क्योंकि इससे एक दिन पहले 25 जून को देश में इमरजेंसी लागू करके नागरिकों के मौलिक या मूलभूत अधिकार निरस्त कर दिये गये थे। इमरजेंसी तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 12 जून, 1975 को अपना लोकसभा चुनाव इलाहाबाद उच्च न्यायालय से अवैध घोषित होने के 12 दिनों बाद ही लागू कर दी थी। मगर इन 12 दिनों में देश में उस समय स्व. जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में राजनैतिक भूचाल लाने वाली घटनाएं लगातार घट रही थीं। समूचा विपक्ष इन्दिरा गांधी के इस्तीफे की मांग कर रहा था। वास्तव में यह दिन भारत के लोकतन्त्र के लिए काला दिन था मगर इसके 18 महीने बाद ही 1977 के जनवरी महीने में इमरजेंसी लगाने वाली इन्दिरा गांधी ने खुद ही इसे पूरी तरह हटाने की घोषणा कर दी थी और इसके तुरन्त बाद लोकसभा के चुनाव कराने की घोषणा भी कर दी गई थी। बेशक हम काले दिन को याद रखते हैं मगर इमरजेंसी हटने वाले दिन को भूल जाते हैं।
हम कभी यह सवाल नहीं पूछते कि आखिरकार इन्दिरा जी ने इमरजेंसी हटाने का फैसला क्यों किया? वे कौन से एेसे कारण थे जिनकी वजह से उन्हें भारत में पुनः लोकतन्त्र बहाल करने की घोषणा करनी पड़ी? यह इतना बड़ा सवाल है जिसकी तरफ हमारे राजनैतिक जगत ने जानबूझ कर कभी ध्यान नहीं देना चाहा। आज तक किसी भी राजनैतिक दल ने इमरजेंसी हटाये वाले दिन का जश्न मनाने के बारे में क्यों नहीं सोचा? इसके पीछे एक ही कारण नजर आ सकता है कि प्रत्येक राजनैतिक दल को इसमें सत्तापरक सुविधा का एहसास होता है। लोकतन्त्र की शासन व्यवस्था में भी सभी अधिकार सत्ता के पास होते हैं मगर लोगों के पास सबसे बड़ा हथियार उनके मौलिक अिधकार होते हैं जिनका संरक्षण संविधान के नियमों के अनुसार देश की न्यायपालिका करती है। अतः इमरजेंसी हटाये जाने का जश्न मनाना लोगों का मौलिक अधिकार भी बनता है।
जाहिर तौर पर जश्न किसी भी उजले पक्ष का ही बनता है जिससे काले पक्ष को हम दुरास्वप्न समझ कर भुला सकें और उजले पक्ष के विभिन्न अवयवों को और मजबूत बना सकें परन्तु हम काले पक्ष को याद करके उजले पक्ष की चलताऊ मुद्रा पर इठलाने में ही स्वयं को बड़-भागी समझते रहते हैं। लोकतन्त्र में स्वतन्त्रता की सर्वदा रक्षा करने के लिए नागरिकों को सजग रहना पड़ता है। जब 1977 में लोकसभा चुनावों की घोषणा हो गई तो दिल्ली के जनसंघ के उस समय के एक प्रादेशिक नेता स्व. दलजीत टंडन ने संयुक्त जनता पार्टी की जनसभा में सवाल खड़ा किया कि इमरजेंसी लगने से पहले कांग्रेस पार्टी के प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी अखबार ‘नेशनल हेराल्ड’ का आमुख वाक्य हुआ करता था कि ‘फ्रीडम इज इन पेरिल डिफेंड इट विद योर माइट’ अर्थात ‘आजादी खतरे में है अपनी पूरी ताकत से इसकी रक्षा करो’ । श्री टंडन ने तर्क दिया कि इमरजेंसी के दौरान कांग्रेस ने लोगों की उस स्वतन्त्रता का हरण कर लिया जो इसने आजादी की लड़ाई लड़ते वक्त लोगों को देने का वादा किया था और जिसे संविधान लागू करके दिया गया था।
दरअसल यह आमुख वाक्य लोगों के लोकतान्त्रिक अधिकारों के सन्दर्भ में था भी। अतः 1977 के चुनावों में नेशनल हेराल्ड से आमुख वाक्य का हटाया जाना भी बहुत बड़ा मुद्दा बन गया था जिसे जनसंघ के नेताओं के अलावा समाजवादी नेताओं जैसे जार्ज फर्नांडीज व मधुलिमये आदि ने भी उठाया। हमें इमरजेंसी हटाये जाने के दिन के जश्न से जुड़े अन्य मुद्दों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। इमरजेंसी के दौरान सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार लगभग समाप्त हो गया था। महंगाई की हालत यह थी कि यह नकारात्मक चक्र में पहुंच गई थी। ट्रेनें समय पर चलने लगी थीं। अपराधों में गुणात्मक कमी आ गई थी। दुकानदार कोई जखीरेबाजी या कालाबाजरी नहीं करते थे। राशन की दुकानों से पूरा राशन मिलता था। मगर हर नागरिक को रात्रि दस बजने से पहले घर पहुंचना होता था। बाजार खुलने और बन्द होने का निश्चित समय था। मगर लोग आजादी के साथ अपने राजनैतिक विचार व्यक्त नहीं करते थे और न कहीं चौराहों पर जमघट लगा कर चर्चा करते नजर आते थे लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय मोर्चे पर राजनीति में उस समय कहीं कुछ एेसा घट रहा था जिससे इंदिरा गांधी बेचैन हो रही थीं जबकि राष्ट्रीय मोर्चे पर देश के सभी बड़े-बड़े विपक्षी नेता जेलों में बन्द पड़े हुए थे। अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत की प्रतिष्ठा लगातार दागदार हो रही थी। विश्व संस्थाओं के मंचों पर भारत की अहमियत वह नहीं रही थी जो इसकी लोकतान्त्रिक देश की पुख्ता पहचान होने की वजह से बनी हुई थी। कुछ लोकतान्त्रिक पश्चिमी देशों ने खुलकर भारत की आलोचना करनी शुरू कर दी थी।
मानवाधिकार संस्थाओं के वैश्विक संगठनों ने भारत को बहुत निचले पायदान पर पहुंचा दिया था। यहां तक कि राष्ट्रसंघ में भी भारत की लोकतान्त्रिक पहचान पर सवालिया निशान लगने लगे थे। अतः नवम्बर 1976 के महीने से ही इन्दिरा जी ने इमरजेंसी में ढील देनी शुरू की और पैरोल पर विपक्षी नेताओं को जेल से रिहा करना शुरू किया। सबसे पहले रिहा होने वाले ओडिशा के नेता स्व. बीजू पटनायक थे जिन्होंने रिहा होते ही इन्दिरा गांधी के शासन के खिलाफ वक्तव्य जारी किया और लोगों से लोकतन्त्र के लिए जद्दोजहद करने की अपील की। इसके बाद नेताओं को क्रमबद्ध तरीके से जेल से छोड़ा जाने लगा और उनकी कहानियां लोगों में पहुंचती रहीं।
जेल से छूटे हर नेता ने इन्दिरा गांधी को निशाने पर लेकर उनके खिलाफ लोकतान्त्रिक जंग छेड़ने का आह्वान करना शुरू किया और जनवरी 77 आते-आते इन्दिरा गांधी ने इमरजेंसी को हटाने की घोषणा कर दी। अतः जनवरी की उस तारीख को यह देश लोकतन्त्र के जश्न के दिन में क्यों न मनाये? हमें इमरजेंसी लगाये जाने वाले दिन के साथ ही इसे हटाये जाने वाले दिन को भी याद रखना होगा और भारत के लोकतन्त्र का जश्न भी मनाना होगा।