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मतदाताओं में भारी उत्साह

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के लिए मतदान का काम पूरा हो चुका है। इन दोनों राज्यों के मतदाताओं ने सभी दलों के प्रत्याशियों का भाग्य ईवीएम मशीनों में बन्द कर दिया है जो आगामी 3 दिसम्बर को खुलेंगी परन्तु मतदाताओं में मतदान के लिए जो उत्साह दोनों ही राज्यों में देखने को मिला है वह लोकतन्त्र के लिए सुखद है। वैसे इन दोनों राज्यों में मुख्य मुकाबला कांग्रेस व भाजपा के बीच ही है और दोनों पार्टियां ही एक-एक राज्य में सत्तारूढ़ भी हैं। भाजपा मध्य प्रदेश में तो कांग्रेस छत्तीसगढ़ में। 2000 तक दोनों राज्य एक ही थे। मगर दोनों राज्यों के चुनावी मुद्दे अलग-अलग ही कहे जायेंगे। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार ने जहां सुशासन व जनकल्याण को चुनावी मुद्दा अपनी पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं के माध्यम से बनाने का प्रयास किया वहीं मध्य प्रदेश में कांग्रेस की तरफ से भाजपा की शिवराज चौहान सरकार के कथित कुशासन को चुनावों के केन्द्र में लाने का प्रयास किया और पार्टी की तरफ से जनकल्याण की सात गारंटियां भी देने की घोषणा की गई।
राज्य में कांग्रेस के नेता श्री कमलनाथ को मध्य प्रदेश का चुनावों के बाद का मुख्यमन्त्री जिस तरह निरुपित किया गया उससे इस पार्टी के नेताओं का अति आत्मविश्वास ही झलकता है। जबकि दूसरी तरफ भाजपा ने अपनी तरफ से किसी क्षेत्रीय नेतृत्व को आगे करके उसे मुख्यमन्त्री के चेहरे के रूप में पेश नहीं किया और पूरा चुनाव प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे को आगे रखकर उनकी छवि के साये में लड़ा। यह तो 3 दिसम्बर को ही पता चलेगा कि मध्य प्रदेश में कमलनाथ की जयकार के जो नारे लगाये जा रहे थे उनसे मतदाता कितने प्रभावित रहे क्योंकि कमलनाथ लगातार लोगों को यह एहसास करा रहे थे कि 2018 के चुनावों के बाद भी राज्य की जनता ने कांग्रेस को ही जनादेश देकर उनकी सरकार बनवाई जिसे बाद में इस्तीफा संस्कृति को लागू करके ज्योतिरादित्य सिन्धिया से पार्टी बदलवा कर भाजपा ने चुरा लिया। इस प्रकार ये चुनाव वर्तमान में भाजपा के नेता ज्योतिरादित्य सिन्धिया के लिए भी प्रतिष्ठा का प्रश्न बने हुए हैं क्योंकि ग्वालियर-चंबल संभाग को श्री सिन्धिया के पूर्व राजघराने का असली प्रभाव क्षेत्र माना जाता है। इस क्षेत्र में 230 सदस्यीय विधानसभा की कुल 34 सीटें हैं जिनमें से पिछली बार कांग्रेस को 24 सीटें मिली थीं और भाजपा को सात। इसे सिन्धिया का प्रभाव माना जा रहा था क्योंकि तब वह कांग्रेस पार्टी में थे। इस बार बाजी पलट चुकी है।
सिंधिया अब भाजपा में हंै और उनके राजघराने की राजधानी ग्वालियर शहर का मेयर 50 साल बाद कांग्रेस पार्टी का बना है। मगर यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि मध्य प्रदेश भाजपा में यदि कोई सबसे बड़े कद का नेता है तो वह मुख्यमन्त्री शिवराज चौहान ही हैं । उनकी राजनीति बेशक हिन्दुत्व की है मगर उसमें शालीनता का पुट हमेशा रहा है (कुछ अपवादों को छोड़ कर )। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सामाजिक संरचना का रसायन भारत के अन्य हिन्दी भाषी राज्यों से अलग रहा है। इसका कारण यह है कि राज्य का समाज वर्तमान समय में भी अर्ध सामन्ती परंपराओं और रवायतों को मानने वाला माना जाता है जिसकी वजह से राजनीति में धर्म का भी असर रहता आया है। इस मुद्दे पर भी कांग्रेस के नेता रहने के बावजूद कमलनाथ ने शिवराज सिंह की राजनीति को जिस तरह काटने की कोशिश की है उसकी वजह से इस बार हिन्दुत्व चुनावों में कोई मुद्दा नहीं बन सका। बहस सख्त हिन्दुत्व और उदार हिन्दुत्व पर ही होती रही। परन्तु राज्य में भ्रष्टाचार भी एक मुख्य मुद्दा बन कर उभरा।
दरअसल जिस तरह राज्य प्रशासन में लोगों की तकलीफों और लगभग हर क्षेत्र में कर्मचारियों के आन्दोलनों की बाढ़ मध्य प्रदेश में रही उससे भी मतदाताओं का प्रभावित होना स्वाभाविक प्रक्रिया लग रही है। किन्तु शिवराज चौहान ने चुनावों से दो महीने पहले ही लाडली बहिना योजना चलाकर जिस तरह बाजी को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया वह भी वर्तमान गलाकाट प्रतियोगी राजनीति में नजरंदाज करने वाला पक्ष नहीं है। इस योजना का कितना असर राज्य की महिला मतदाताओं पर पड़ता है, यह देखने वाली बात होगी। लेकिन कांग्रेस ने फौज की अग्निवीर व पुरानी पेंशन योजना की वकालत करके राज्य के युवा वर्ग को रिझाने का प्रयास भी बहुत ही शिद्दत के साथ किया है।
जहां तक छत्तीसगढ़ का सवाल है तो यहां विपक्ष को सत्तारूढ़ पार्टी ने अपने एजेंडे से हटने ही नहीं दिया। परन्तु अन्तिम दिनों में महादेव ऐप घोटाले की गूंज होने से कांग्रेस व भूपेश बघेल को कुछ नुकसान जरूर हो सकता है। कुल मिलाकर दोनों राज्यों में जो भी सरकारें बनेंगी वे निश्चित रूप से इकतरफा ही होंगी क्योंकि वोटिंग प्रतिशत और लोगों का उत्साह संकेत दे रहा है कि वे इस पार या उस पार का निर्णायक फैसला देने जा रहे हैं। वैसे पिछली बार भी मतदान जमकर हुआ था। लेकिन पिछली बार की तरह ही गांवों में जमकर मतदान हुआ है और शहरी मतदाता सुस्त रहे हैं।

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