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अन्तरधार्मिक विवाहों का भारत !

भारत विविध संस्कृतियों का देश ईसा के पूर्व काल से ही रहा है जब बौद्ध धर्म के उदय के बाद इसमें क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ परन्तु सहिष्णुता का भाव इससे नहीं छूटा।

भारत विविध संस्कृतियों का देश ईसा के पूर्व काल से ही रहा है जब बौद्ध धर्म के उदय के बाद इसमें क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ परन्तु सहिष्णुता का भाव इससे नहीं छूटा। बाद में मध्य काल में आठवीं शताब्दी के शुरू में भारत में इस्लाम धर्म के पदार्पण के बाद इसमें क्लिष्टता और कसावट आनी शुरू हुई परन्तु इसके बावजूद सहिष्णुता का भाव इसके समाज में विद्यमान रहा और मुगलकाल आने के बाद 16वीं शताब्दी में अकबर व जहांगीर के शासनकाल में ऐसी स्थितियां बनती चलती गईं कि अन्तरधार्मिक विवाहों का प्रचलन द्विपक्षीय आधार पर बढ़ता चला गया। हिन्दू व मुस्लिम विवाहों में सामान्यता आती चली गई। 17वीं शताब्दी तक ऐसे विवाहों को सामाजिक मान्यता मिल चुकी थी।  किन्तु मुगल दरबारों में मौजूद मुल्ला व काजियों की धर्मांधता को अकबर व जहांगीर ने इस प्रकार नियन्त्रण में किया हुआ था कि शाहजहां के शासनकाल तक भारत में अकबर द्वारा शुरू किये गये ‘दीने इलाही’ धर्म का ही संवत चलता था।
शाहजहां के शासनकाल में मुल्ला व काजियों को जब अपेक्षाकृत स्वतन्त्रता मिली और शाहजहां ने रियाया पर करों का बोझ लादना शुरू किया जिससे वह अपनी मनपसन्द के भवनों का निर्माण करा सके तो काजियों ने हिन्दू-मुस्लिम अन्तरधार्मिक विवाहों की वैधता पर सवालिया निशान लगाना शुरू किया और अन्त में शाहजहां ने अंतरधार्मिक विवाहों पर प्र​तिबन्ध लगाने का फरमान जारी कर दिया। उसने इतना ही नहीं किया बल्कि अकबर व जहांगीर के शासनकाल में बनाये गये सभी हिन्दू मन्दिरों को तोड़ने का आदेश भी दिया। अकेले काशी में ही शाहजहां ने 76 हिन्दू मन्दिर तोड़ने का फरमान जारी किया था। इसके बावजूद शाहजहां अपने ज्येष्ठ पुत्र ‘दारा शिकोह’ को वली अहद घोषित कर चुका था जबकि दारा शिकोह की रुचि बजाय शस्त्र ज्ञान के शास्त्र ज्ञान में रहती थी और हिन्दू धर्म शास्त्रों के फारसी में अनुवाद को वरीयता देता था तथा साधुओं व फकीरों का विशेष सम्मान करता था।
शाहजहां अपने राजकाज के काम को बिना मुल्ला-मौलवियों और काजियों के विरोध के चलाना चाहता था और हिन्दू रियाया से अधिकाधिक कर वसूलना भी चाहता था क्योंकि देश की पूरी अर्थव्यवस्था उन्हीं के हाथ में थी जिससे वह अपनी महंगी भवन निर्माण परियोजनाओं को लागू कर सके। उसकी अर्थव्यवस्था इतनी जर्जर हो चुकी थी कि जब उसके पुत्र औरंगजेब के हाथ में सत्ता आयी तो शाही राजस्व खजाना लगभग खाली था। मगर औरंगजेब के समय में हिन्दू-मुस्लिम विवाहों पर पाबन्दी होने की वजह से वैवाहिक सम्बन्ध इकतरफा इस्लाम कबूल करने की शर्त पर हो गये। काजियों की तब उसके दरबार में तूती बोला करती थी।
सामान्य भारतीय मुसलमानों की वेशभूषा तक भी अपनी क्षेत्रीय संस्कृति के अनुसार ही हुआ करती थी केवल कुछ अमीर- उमराओं और ‘अशराफिया’ जागीरदारों को छोड़ कर। मगर मुगल सल्तनत के हुक्मनामों को दरकिनार करती हमें भारत की कश्मीर संस्कृति मिलती है जिसमें हिन्दू-मुस्लिम अंतरधार्मिक विवाह 19वीं सदी के शुरू तक हुआ करते थे। दूल्हे-दुल्हन का केवल कश्मीरी होना लाजिमी शर्त होती थी। उनका धर्म, कौम या पूजा पद्धति कौन सी है उससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। इसकी मुख्य वजह यह थी कि कश्मीर में तीन बार धर्मान्तरण हुआ हिन्दू से मुसलमान और मुसलमान से हिन्दू तथा फिर हिन्दू से मुसलमान हुई थी। इससे कश्मीरियों के खूनी व खानदानी रिश्ते नहीं बदले थे। भारत के अन्य राज्यों उत्तर प्रदेश व राजस्थान में भी हमें ऐसे धर्मान्तरण की घटनाएं देखने को मिलती हैं मगर इनमें एकबारगी में ही धर्मान्तरण हुआ। अतः जहांगीर के शासनकाल में अंतरधार्मिक विवाह सामान्य हो चले थे। उत्तर प्रदेश व पंजाब तथा अन्य पश्चिमी प्रान्तों में जाट, गुर्जर, राजपूत, त्यागी आदि ऐसी जातियां हैं जो हिन्दू व मुसलमान दोनों में आज भी मिलती हैं। इनमें भी पंजाब एेसा अग्रणी राज्य था जहां 1857 से पहले तक हिन्दू-मुसलमान का भेद नामचारे का था।
एक संस्कृति, एक बोली व भाषा एक पहनावा लगभग एक जैसा खानपान (पंजाब के मुसलमान गाय मांस खाना वर्जित मानते थे) पंजाबियों की पहचान थी। उनका धर्म उनकी पहचान बीसवीं सदी में मुहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग ने बनाया जिसमें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों व शिक्षकों तथा बरेलवी उलेमाओं की मुख्य भूमिका थी। पंजाब की संस्कृति में लोहड़ी मनाने का त्यौहार भी पांच सौ साल पुराना ही है। गुर्जर ‘दुल्लहा भट्टी’ नौजवान मुगल सैनिकों से पंजाबी युवतियों की रक्षा करता था। इनमें हिन्दू व मुसलमान दोनों होते थे। इसी के करीब हीर-रांझा की प्रेमकथा का वर्णन मिलता है जिसमें रांझा अन्त में नाथ सम्प्रदाय का जोगी हो जाता है। पंजाब में धर्म को महत्व कभी नहीं दिया गया जबकि इंसानी रिश्ते सर्वोच्च वरीयता रखते थे।
मानवीय सम्बन्धों के बीच धर्म का कोई महत्व नहीं होता मगर यह भी देखना जरूरी होता है कि इन मानवीय सम्बन्धों की आड़ में कहीं किसी विशेष वर्ग के युवक या युवती के साथ अन्याय न होने पाये। हमारा राष्ट्रवाद इतना कमजोर नहीं हो सकता कि वह हिन्दू-मुस्लिम विवाह से कमजोर होने लगे। सबसे पहले हर युवा व युवती को अपनी मनपसन्द का साथी चुनने का अधिकार संविधान देता है। उसके इस अधिकार की सुरक्षा करना सरकार का धर्म है। हिन्दू-मुसलमान से पहले हम इंसान हैं। बेशक इस तथ्य को गहराई से समझने की जरूरत मुसलमानों को ज्यादा है क्योंकि उनके मुल्ला-मौलवी और काजी मुस्लिम बिरादरी की बात बड़े जोश-खरोश से करते हैं जिसकी प्रतिक्रिया में हिन्दू कट्टरवाद पनपता है। मोहब्बत तो वह शह है जिसे हिन्दू-मुसलमान का नहीं बल्कि ‘महबूब’ का ही ‘पास’ रहता है।
मुहब्बत मेें नहीं है फर्क जीने और मरने का 
उसी को देख कर जीते हैं जिस जालिम पे दम निकले 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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