आगामी 1 फरवरी को वित्तमन्त्री निर्मला सीतारमन नये वित्त वर्ष का बजट लोकसभा में पेश करेंगी। जाहिर है कि यह बजट नये वर्ष के लिए भारत की आर्थिक रूपरेखा प्रस्तुत करेगा और बतायेगा कि अर्थव्यवस्था में किन क्षेत्रों का विकास हो रहा है और किनमें अधिक मेहनत करने की जरूरत है। बेशक इसमें सरकार द्वारा प्राप्त राजस्व पावतियों और अनुमानित खर्च का लेखा-जोखा भी होगा। 1991 से बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का दौर जारी होने के बाद सरकार जिस तरह से स्वयं को व्यापारिक व वाणिज्यिक गतिविधियों से अलग करती जा रही है उसका भारत के लोगों पर असर मिला-जुला रहा है। कृषि व उद्योग क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश लगातार कम होते जाने की वजह से देश में बड़े उद्योग घरानों की वाणिज्यिक गतिविधियों में तूफानी विविधीकरण हुआ है और रोजगार अवसर सुलभ कराने की जिम्मेदारी का भी स्थानान्तरण हुआ है। इस क्रम में सबसे बड़ी विसंगति यह पैदा हो रही है कि भारत में अमीर व गरीब के बीच की खाई चौड़ी हो रही है और सम्पत्ति का संचयन एक विशेष सुविधा सम्पन्न समुदाय के पास होता जा रहा है। यह हकीकत इस तथ्य के बावजूद है कि भारत की सकल विकास वृद्धि दर केवल कोरोना काल के दो वर्षों को छोड़कर विश्व के अन्य विकसित कहे जाने वाले देशों के मुकाबले बहुत उत्साहजनक रही है जिसे हम औसतन छह प्रतिशत के करीब कह सकते हैं। भारत में विदेशी निवेश के प्रति आकर्षण भी कम नहीं हुआ है और इसके साथ ही इसमें दुनिया का औद्योगिक उत्पादन केन्द्र बनने की संभावनाएं भी बढ़ी हैं। खासतौर पर चीन की आर्थिक व सामाजिक विषमताएं देखते हुए भारत को आदर्श उत्पादन केन्द्र के रूप में देखा जा रहा है। परन्तु भारत के विकास का यदि कोई सबसे बड़ा पैमाना हो सकता है तो वह इसके भूमिहीन व साधनविहीन मजदूर की क्रय क्षमता के आंकलन का है। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था ने जिस उपभोक्तावादी संस्कृति को जन्म दिया उससे यह वर्ग अछूता रहा हो ऐसा भी नहीं हैं क्योंकि यह सम्पन्न वर्ग द्वारा लगातार टैक्नोलोजी उन्नयन के दौर में बेकार समझी गई वस्तुओं का उपभोक्ता बन रहा है और महंगाई व बाजार के प्रभावों से बढ़ी हुई उसकी आय का अधिकांश हिस्सा इन्हीं वस्तुओं पर खर्च हो रहा है। यह स्थिति भारत के महानगरों या शहरों में है परन्तु गांवों के भूमिहीन मजदूरों की स्थिति यह नहीं है। गांवों में यह वर्ग आज भी सीमित मजदूरी के भरोसे अपनी रोटी के जुगाड़ में ही लगा हुआ है। इसका निष्कर्ष भी निकल सकता है कि भारत में बहुत तेजी के साथ शहरीकरण का दौर शुरू करने में बाजार मूलक अर्थव्यवस्था की भूमिका है। मगर बढ़ते शहरीकरण के बावजूद हम पाते हैं कि राष्ट्रीय सम्पत्ति का संचयन सम्पन्न कहा जाने वाला वर्ग ही कर रहा है। विश्व आर्थिक मंच पर जो आंकड़े रखे गये उनके अनुसार भारत की 40 प्रतिशत सम्पत्ति पर केवल एक प्रतिशत लोगों का ही अधिकार है जबकि भारत की जनसंख्या 140 करोड़ के लगभग आंकी जा रही है। मंच में कुछ और आंकड़े भी रखे गये जिनका निष्कर्ष यही निकलता है कि भारत में आर्थिक विषमता बढ़ रही है जबकि सरकार को सर्वाधिक राजस्व जनसंख्या का यही 90 प्रतिशत वर्ग देता है। यदि राष्ट्रीय सम्पत्ति के अधिकांश भाग पर भारत के दस प्रतिशत लोगों का ही अधिकार होगा, जैसा कि विश्व आर्थिक मंच की आक्सफैम रिपोर्ट कह रही है तो भारत में सम्पत्ति का बंटवारा न्यायोचित तरीके से नहीं हो पा रहा है। यह विषय बहुत गंभीर है क्योंकि हम स्वतन्त्र भारत में अधिसंख्य लोगों की राष्ट्रीय सम्पत्ति में हिस्सेदारी को सीमित नहीं कर सकते और न ही सरकारी सहायता पर निर्भर करने वाले लोगों की संख्या में इजाफा कर सकते हैं।
भारत में अभी तक जो भी विकास हुआ है वह इसके लोगों के बूते पर ही हुआ है। समूची अर्थव्यवस्था के दायरे में जब कोई किसान अपनी मेहनत से भरपूर फसल उगाता है तो वह भारत के अन्न भंडार को भरपूर रखने में अपना अंशदान देता है। इसी प्रकार जब कोई मैकेनिक अपने फन से बिगड़ी हुई मशीनरी को पुनः संचालित कर देता है तो वह राष्ट्रीय बचत में अपना अंशदान करता है। अतः राष्ट्रीय सम्पत्ति में हिस्सेदारी का उसका भी हक बनता है। इसी प्रकार हर क्षेत्र में कार्यरत प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्रीय विकास में अपना योगदान देता है। सरकार जब लोकतन्त्र में जनता से राजस्व वसूल कर उसी पर खर्च करने की योजनाएं बनाती है तो उसका लक्ष्य गरीब को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने का होता है। अतः हमें गंभीरता से विचार करना होगा कि आर्थिक असमानता बढ़ने के क्या कारण हैं। हम आंख मींच कर विकास के मामले में पश्चिम या कम्युनिस्ट चीन का अंधानुकरण नहीं कर सकते इस तरफ स्वयं संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने ही पिछले दिनों ध्यान आकृष्ट किया था। हम आंख मींच कर अपने शिक्षण संस्थानों व चिकित्सा संस्थानों के निजीकरण की तरफ नहीं बढ़ सकते और इन क्षेत्रों को आकर्षक मुनाफा देने वाले व्यवसाय के रूप में नहीं देख सकते।
इस सन्दर्भ में हमें भारत की सांस्कृतिक स्थापनाओं के साये में ही अपनी नीतियां तय करनी होंगी और वंचित लोगों की सकल राष्ट्रीय सम्पत्ति में भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी जिससे भारत उत्तरोत्तर तरक्की की सीढि़यां चढ़ता जाये। शिक्षा व स्वास्थ्य के साथ ग्रामीण क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश को बढ़ावा देना मजबूत होती अर्थव्यवस्था के फल को चखने के समान ही होता है क्योंकि इन क्षेत्रों में किया गया निवेश दीर्घकालीन लाभ का होता है जिसका लाभ आने वाली पीढि़यों तक को मिलता है। हमारी आर्थिक नीतियों में इन तत्वों का समावेश होना भी जरूरी है।