लोकतन्त्र में प्रत्येक चुनाव राजनीतिक दलों को कोई न कोई सबक देकर जाता है। यह सबक लोकतन्त्र की मालिक कही जाने वाली जनता ही इन दलों को सिखाती है। कुशल और सफल राजनीतिज्ञ इस सबक को बहुत जल्दी सीख लेते हैं। 1967 में जब पहली बार कांग्रेस पार्टी की नौ राज्यों में पराजय हुई और लोकसभा में भी इसे 20 के लगभग सांसदों का मामूली बहुमत प्राप्त हुआ तो प्रधानमन्त्री के पद पर स्व. इन्दिरा गांधी थीं।
उन्होंने इसी वर्ष जयपुर में हुए कांग्रेस पार्टी के अधिवेशन में बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने का प्रस्ताव रखा था जिसे तब इस पार्टी के मठाधीशों, जिनमें स्व. मोरारजी देसाई से लेकर अतुल्य घोष व कामराज तक शामिल थे, ने कोई तवज्जो नहीं दी परन्तु इन्दिरा जी देश की जनता का ‘मूड’ भांप चुकी थीं और समझ चुकी थीं कि आम जनता का कांग्रेस में विश्वास बनाये रखने के लिए नीतिगत बदलाव जरूरी होगा।
उस समय विपक्ष की हालत वैसी थी जैसी आज है। जिन राज्यों में कांग्रेस हार रही थी वहां मिलीजुली खिचड़ी संविद सरकारें बन रही थीं जिनमें कम्युनिस्ट व जनसंघ जैसी धुर विरोधी पार्टियां सरकार में शामिल थीं (ठीक वैसे ही जैसे आज महाराष्ट्र में कांग्रेस व शिवसेना शामिल हैं) दिल्ली के हाल में हुए विधानसभा चुनाव हालांकि एक अर्ध राज्य की सरकार बनाने के लिए हुए हैं मगर इनमें भाजपा की करारी हार से इस पार्टी के शीर्षस्थ नेताओं ने सबक लेने में देरी नहीं दिखाई है।
गृहमन्त्री अमित शाह ने यह स्वीकार करके कि चुनाव प्रचार के दौरान उग्र भाषा और तल्ख जंगी तेवरों का प्रदर्शन पार्टी के खिलाफ गया है, बताता है कि पार्टी आत्ममंथन करके ही इस निष्कर्ष पर पहुंची है। भाजपा अपने तेवरों में परिवर्तन करने की तरफ अग्रसर है, इसका दूसरा प्रमाण यह है कि पार्टी अध्यक्ष श्री जगत प्रकाश नड्डा ने ‘मुंह फट’ केन्द्रीय मन्त्री गिरिराज सिंह को तलब करके पूछा है कि हुजूर अपनी ‘मेहरबानियां’ बरसाना कब बन्द करेंगे।
भारत की आम जनता को यह तो शायद मालूम नहीं होगा कि गिरिराज बाबू किस विभाग के मन्त्री हैं मगर यह जरूर मालूम है कि जनाबेवाला ‘जबानतराशी’ का महकमा बहुत जिम्मेदारी के साथ चलाते आ रहे हैं। जनाब ने फरमा दिया कि देवबन्द का ‘इस्लामिक दारूल उलूम’ आतंकवाद पनपाने का अड्डा है। देवबन्द के मौलाना और मौलवियों की आजादी की लड़ाई में भूमिका से भारत का बच्चा-बच्चा वाकिफ है कि किस तरह इस संस्थान से निकले लोगों ने न केवल स्वतन्त्रता संघर्ष में भाग लिया था बल्कि पाकिस्तान निर्माण का भी पुरजोर तरीके से विरोध किया था।
यह पक्का इतिहास है इसे कोई नहीं बदल सकता। जाहिर है कि भाजपा के एेसे उग्र कथनों से पार्टी को नुकसान हो रहा है जिसमें संशोधन किया जाना चाहिए और पार्टी ने इस तरफ काम भी करना शुरू कर दिया है मगर दूसरी तरफ प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस है जिसका अन्दाज खुदकशी से कमतर नहीं है। इस पार्टी के कुछ नेताओं के कारनामों से तो ऐसा लगता है कि इसे खत्म करने की सुपारी खुद कांग्रेस ने ही पकड़ रखी है।
मध्य प्रदेश में कमलनाथ किनारे-किनारे बहुमत के बूते पर अपनी कांग्रेस सरकार बाखूबी चला रहे हैं मगर विधानसभा चुनावों में अपने जिले ग्वालियर तक में कांग्रेस को विजय दिला पाने में असमर्थ रहे ज्योतिरादित्य सिन्धिया अपनी ही पार्टी की सरकार के दुश्मन नम्बर एक बने हुए हैं और उन्हें सुहा नहीं रहा है कि यह सरकार चल कैसे रही है जबकि वह इस बार लोकसभा का भी चुनाव हार चुके हैं।
हुजूर हर दो महीने बाद एक ऐसा शगूफा छोड़ देते हैं जिससे विपक्ष में बैठी भाजपा की भुजाएं फड़कने लगें और वह कमलनाथ सरकार को काम न करने दे। जब दिसम्बर 2018 में कमलनाथ सरकार बनी तो हुजूर ने अपनी पसन्द के मन्त्रियों को सरकार में शामिल कराने के लिए कई तरह से दबाव बनाया था और जब वे मन्त्री बन गये तो उन्होंने बजाय भोपाल में जाकर माथा टेकने के ग्वालियर में आकर पूर्व ‘श्रीमन्त साहब’ के दरबार में माथा टेक कर ऐलान कर दिया था कि वे तो वैसे ही चलेंगे जैसा ग्वालियर के पूर्व नरेश का हुक्म होगा।
लोकतन्त्र में ये राजसी अन्दाज किसी कीमत पर न तो स्वीकार किया जा सकता है और न ही इनसे पार्टी का भला हो सकता है। सियासत आम जनता की सेवा के लिए होती है, हुकूमत करने के लिए नहीं। दिल्ली में पार्टी की हार से सभी कांग्रेसियों को जो सबक सीखना चाहिए था ठीक उसके उलट किया जा रहा है। पार्टी के भीतर से यदि यह सन्देश जाता है कि उसका कोई नेता दल हित पर निजी हित को तवज्जो देता है तो जनता भी इसी हिसाब से सोचने लगती है।
राजनीतिज्ञ के लिए निजी हित के कोई मायने नहीं होते क्योंकि वह राजनीति में जो कुछ भी पाता है वह केवल पार्टी की बदौलत ही पाता है। पार्टी के मजबूत रहने में ही उसकी मजबूती होती है मगर जो लोग सोचते हैं कि हुकूमत उनका खानदानी पेशा है उन्हें लोकतन्त्र में राजनीति से दूर रहना चाहिए।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण स्व. वी.पी. कृष्णा मेनन थे जो केरल की वनकोर रियासत के दीवन के वारिस थे। कांग्रेस की राजनीति शुरू करते ही उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति लोकहित में दान कर दी थी और लोकसेवा को अपना उद्देश्य बनाया था मगर क्या जमाना आ गया है कि अब लोग राजनीति में अपनी सम्पत्ति बचाने के लिए ही आते हैं। खुदा खैर करे।
आदित्य नारायण चोपड़ा