कर्नाटक चुनावों में इस बार जिस प्रकार मतदाताओं ने उत्साह दिखाया है उसे देख कर निश्चित रूप से कहा जाता है कि उनका निर्णय भी निर्णायक होगा और कर्नाटक में पूर्ण बहुमत की सरकार भी बनेगी। विभिन्न चुनाव बाद (एक्जिट पोलों) नतीजों का यदि गंभीरता के साथ संज्ञान न भी लें तो इतना तो कहा ही जा सकता है कि मतदाताओं का फैसला त्रिशंकु विधानसभा के लिए नहीं होगा। राज्य में जिस तरह का चुनावी वातावरण पूरे प्रचार के दौरान रहा उससे यह नतीजा निकालना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है कि इस बार चुनाव परिणाम 2018 की तर्ज पर नहीं आयेंगे क्योंकि मतदाताओं के बढ़े प्रतिशत ने यह सन्देश तो दे ही दिया है कि उनका ‘मूड’ आर-पार का फैसला करने का है। यह आर-पार की लड़ाई निश्चित रूप से कांग्रेस व भाजपा के बीच ही रहेगी क्योंकि मतदाताओं ने 2018 के नतीजों से यह सबक सीखा लगता है कि किसी एक प्रमुख पार्टी को पूर्ण बहुमत न देने की वजह से खंडित जनादेश होने पर चुनावों के बाद बनने वाली सरकारें भी खंडित ही रह पाती हैं जिसकी वजह से कई बार मुख्यमन्त्री तक बदले जाते हैं और चुने हुए विधायकों की निष्ठा में परिवर्तन भी विभिन्न कारणों से हो जाता है। यदि हम कर्नाटक का इतिहास देखें तो यहां स्व. निजलिंगप्पा से लेकर स्व. देवराज अर्स व बी.डी. जत्ती जैसे प्रतिभाशाली व दूरदर्शी राजनेता हुए हैं ।
इनके अलावा भी कर्नाटक ने आजादी के बाद से ही ऐसे-ऐसे नेता दिये जिन्होंने इस राज्य के सर्वांगीण विकास में अपनी भूमिका अदा की और कृषि से लेकर विज्ञान तक के क्षेत्र में इस राज्य की महत्ता स्थापित की। मगर कर्नाटक के साथ अपनी क्षेत्रीय पहचान का भी विशेष महत्व रहा है। अपनी विशिष्ट कन्नडिगा संस्कृति पर इस राज्य के लोगों को शुरू से ही गर्व रहा है अतः 70 के दशक में जब इसके मुख्यमन्त्री रहे स्व. देवराज अर्स ने इस राज्य का नाम मैसूर से बदल कर कर्नाटका रखा तो यहां की जनता ने स्व. अर्स को बहुत ऊंची नजर से देखा। इमरजेंसी के बाद 1977 में कांग्रेस के पुनः टूट जाने के बाद स्व. अर्स को प्रधानमन्त्री पद तक का दावेदार माना जाने लगा था परन्तु वर्तमान दौर की राजनीति पुराने दौर के मुकाबले पूरी तरह बदल चुकी है लेकिन कर्नाटक के मिजाज से यह बात आज भी नहीं बदली है कि इसके लोगों ने कभी भी अपने ऊपर दिल्ली से लादे हुए नायकों को स्वीकृति नहीं दी। यह हकीकत मध्यकालीन भारत से लेकर आधुनिक लोकतान्त्रिक भारत तक में जारी है। यही वजह है कि वर्तमान विधानसभा चुनावों में कर्नाटक के क्षेत्रीय नेताओं को लेकर चुनाव प्रचार के दौरान भी काफी गहमा-गहमी रही है। अतः आजादी के बाद से इस राज्य में जो भी पार्टी सत्ता में रही है उसे क्षेत्रीय नेतृत्व को राजनीति की कमान देनी ही पड़ी है।
कांग्रेस पार्टी के इन्दिरा गांधी काल में बार-बार मुख्यमन्त्रियों को बदलने की सजा इस पार्टी को कई बार भुगतनी पड़ी और 1985 से यह राज्य कांग्रेस के प्रति लगभग बागी ही हो गया था। जब 1977 में बनी जनता पार्टी दो वर्ष बाद ही चौराहे पर बिखर गई तो इसी पार्टी के श्री राम कृष्ण हेगड़े ने 1985 के चुनावों में अपनी सरकार बनाई जिसे उन चुनावों में भाजपा के जीते 18 विधायकों का समर्थन भी प्राप्त था। इसके बाद से ही भाजपा ने इस राज्य में श्री बी.एस. येदियुरप्पा के नेतृत्व में अपनी ताकत बढ़ानी शुरू की और वह इस राज्य के विपक्ष के एक कद्दावर नेता के रूप में उभरते चले गये इसके बावजूद वह कभी भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं दिला पाये और हर बार उन्हें बाहर से निर्दलीय व अन्य पार्टियों के विधायकों के बीच तोड़फोड़ करके मुख्यमन्त्री बनना पड़ा। वह कुल चार बार मुख्यमन्त्री बने और कभी अपना कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाये।
1985 के बाद राज्य में केवल तीन बार ही पूरे पांच साल तक किसी एक पार्टी की सरकार रही। इनमें दो बार कांग्रेस के नेतत्व में, एक बार भाजपा के नेतृत्व में। कांग्रेस ने अपने मुख्यमन्त्रियों को नहीं बदला मगर भाजपा ने कई मुख्यमन्त्री बदले। इन सरकारों के गढ़ न होने से हुए चुनावों में कभी मतदान प्रतिशत इतना नहीं रहा जितना कि इस बार हुआ है। अतः विश्लेषक मान रहे हैं कि इस बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनने की बारी है। दक्षिण के राज्यों का मिजाज देखते हुए यह माना जाता है कि इस पूरे दक्षिण भारत के लोगों का अपनी संस्कृति के प्रति विशेष मोह रहा है। इसके एेतिहासिक कारण हैं लेकिन भारत की एकता में भी इन राज्यों का अटूट विश्वास रहा है। यही वजह है कि आठवीं शताब्दी में दक्षिण के केरल से निकल कर आदि शंकराचार्य ने उत्तर से लेकर दक्षिण व पूर्व से लेकर पश्चिम भारत की यात्रा की और भारत के लोगों को आपस में जोड़ने का तरीका निकाला ।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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