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चन्द्रमा भारत की मुट्ठी में !

भारत चन्द्रमा पर उतर चुका है। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में इसने अपना लोहा पूरी दुनिया से मनवा भी लिया है। चांद के दक्षिणी बर्फीले छोर पर उतरने वाला यह दुनिया के पहला देश भी बन चुका है।

भारत चन्द्रमा पर उतर चुका है। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में इसने अपना लोहा पूरी दुनिया से मनवा भी लिया है। चांद के दक्षिणी बर्फीले छोर पर उतरने वाला यह दुनिया के पहला देश भी बन चुका है। इसके लिए भारत के वैज्ञानिकों को जितना भी श्रेय दिया जाये वह कम है। 75 साल पहले ही आजाद हुए मुल्क की यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है क्योंकि इस दौरान भारत ने बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं और कई युद्धों का सामना भी किया है इसके बावजूद इसने अपना वैज्ञानिक दृष्टिकोण औझल नहीं होने दिया और तमाम तरह के राजनैतिक झंझावतों के बीच इसने प्रगति का मार्ग नहीं छोड़ा। 
भारत का वैज्ञानिक पथ इतना आसान भी नहीं रहा है कि चन्द्रमा पर यह यका-यक ही पहुंच गया हो। इसके पीछे हमारे युगदृष्टा राजनेताओं से लेकर भारत पर मर-मिटने वाले वैज्ञानिकों का भारी श्रम रहा है। क्या संयोग है कि जिस वर्ष 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया उसी वर्ष के फरवरी महीने में पं. जवाहर लाल नेहरू ने अंतरिक्ष विज्ञान में खोज के लिए भारतीय राष्ट्रीय समिति बनाई (इनकोसपार) बनाई और इसकी जिम्मेदारी भारत के दो महान वैज्ञानिकों होमी जहांगीर भाभा व विक्रम साराभाई को दी। इसे भी क्या कम संयोग मानेंगे कि इस समिति में जिस वैज्ञानिक की पहली भर्ती हुई वह कोई और नहीं बल्कि भारत के राष्ट्रपति पद तक पहुंचे स्व. एपीजे अब्दुल कलाम थे। बाद में अब्दुल कलाम भारत के ‘मिसाइल मैन’ के रूप में भी प्रसिद्ध हुए। इसके बाद जब 1969 आया तो इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते विक्रम साराभाई ने इस अंतरिक्ष समिति का सारा कार्यभार संभालते हुए इसका नया नामकरण भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान शोध संगठन (इंडियन सप्स रिसर्च आर्गेनाइजेशन-इसरो) रखा। इसके बाद 1972 से 84 के बीच प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर सतीश धवन ने इस संगठन को अपनी वैज्ञानिक व तकनीकी क्षमताओं के साथ प्रबन्धकीय दक्षता के साथ विश्व के अन्तरिक्ष विज्ञान शोध केन्द्रों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। 
वैज्ञानिक धवन के साथ प्रख्यात धातु वैज्ञानिक श्री ब्रह्म प्रकाश का नाम लिखा जाना भी बहुत जरूरी है जिन्होंने परमाणु शोध से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र तक में अतुलनीय योगदान दिया। वह एकमात्र इंजीनियर थे जिन्होंने वैज्ञानिक शोधों में भारत की प्रतिभा को चमकाया। इसके बाद इसरो में एक से बढ़कर एक वैज्ञानिक आये जिन्होंने भारत की इस चन्द्रमा यात्रा को सफल बनाने में अपना अमूल्य योगदान दिया। इन्हीं वैज्ञानिकों की लगातार मेहनत के फलस्वरूप हमने चन्द्रयान एक से चन्द्रयान दो तक का सफर पूरा किया और भारत को दक्षिणी छोर पर उतरने वाला दुनिया का पहला देश बनाया। यह इतिहास मैंने इसलिए लिखा है जिससे राजनैतिक कोलाहल के बीच हम कहीं अपने वैज्ञानिकों के योगदान को भुला न बैठें। अतः सबसे पहली बधाई के पात्र हमारे वे वैज्ञानिक ही हैं जिन्होंने अपने श्रम से भारत को इस योग्य बनाया और भारत माता के मुकुट में चन्द्रमा को लाकर ही जड़ दिया।
 भारत के 140 करोड़ लोगों को उनका दिया हुआ यह ऐसा तोहफा है जिससे भारतीय लोकतन्त्र की शोभा और बढ़ी है। भारत ने पूरी दुनिया को दिखा दिया है कि इसकी संसदीय प्रणाली की पारदर्शी लोकतान्त्रिक प्रशासनिक व्यवस्था में वह दम-खम और सामर्थ्य है कि यह इसकी मिट्टी में पड़े रत्नों को निकाल कर उन्हें चमका सकती है। निश्चित रूप से चांद पर पहुंचने को हम भारत के लोगों की विजय ही कहेंगे क्योंकि उन्हीं से शक्ति लेकर इस देश के राजनीतिज्ञों ने भारत के वैज्ञानिक शोध कार्यक्रमों को परवान चढ़ाया है। क्योंकि पुरातन सत्य यह भी है कि वही देश तरक्की कर सकता है जिसमें विद्वानों व वैज्ञानिक प्रतिभा को लोगों का सम्मान-सत्कार किया जाता है। भारत अब चन्द्रमा की शक्ति से लैस हो चुका है। अतः स्वयं समझा जा सकता है कि इसकी आभा से पूरी मानव जाति का कल्याण ही होगा और भारत की तो यह परंपरा रही है कि मानव कल्याण के लिए ही इसके ‘ऋषि दधीची’  से लेकर ‘गांधी’ तक जैसे मनीषियों ने सर्वदा अपनी 
छाती पर वार झेले हैं। अमेरिका, रूस व चीन के बाद चन्द्रमा का शोध करने वाले देशों में शामिल हो जाने के बाद भारत की जिम्मेदारी और बढ़ गई है कि वह दुनिया को अपनी एकात्म शक्ति के भरोसे ज्यादा खुशहाल बनाने के प्रयासों में जुट जाये। वैज्ञानिकों के साथ सहयोग करने के लिए प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी को बधाई और देश की महान जनता को भी बधाई।

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