भारत की न्यायपालिका स्वतन्त्र भारत द्वारा अपनायी गयी लोकतान्त्रिक प्रणाली के ताज में हमेशा ‘कोहिनूर हीरे’ की तरह रही है जिसकी चमक से पूरा भारत दमकता रहा है। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि 25 जून, 1975 को लगाई गई इमरजेंसी के 18 महीनों के कार्यकाल में न्यायपालिका की यह चमक क्यों समाप्त हो गई थी तो उसका आसान उत्तर दिया जा सकता है कि स्व. इदिरा गांधी ने आन्तरिक इमरजेंसी भी संविधान के प्रावधान का इस्तेमाल करके लगाई थी जिसकी वजह से सर्वोच्च न्यायालय मजबूर था। मगर 1977 में जब केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार बनी तो उसने संविधान से आन्तरिक इमरजेंसी लगाये जाने का प्रावधान ही समाप्त कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय देश का शासन संविधान के अनुसार चलते देखने के प्रति उत्तरदायी है, इसी वजह से उसे संसद द्वारा बनाये गये कानूनों की समीक्षा करने का अधिकार भी बाबा साहेब अम्बेडकर देकर गये हैं। भारत में यह उक्ति बेकार में ही नहीं बनी है कि कानून से ऊपर कोई नहीं है। स्वतन्त्र भारत में संविधान लागू होने के बाद इसके अपने यथार्थ और अवधारणाएं हैं।
भारत के लोगों ने ही देखा है कि किस प्रकार 1991 से 1996 तक प्रधानमन्त्री रहे स्व. पी.वी. नरसिम्हाराव को भ्रष्टाचार के मामले में अदालतों के चक्कर काटने पड़े थे। अतः अदालत की निगाह में न कोई नेता होता है और न अभिनेता अथवा कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति। वह केवल भारत का नागरिक होता है। हमारा संविधान समानता और बराबरी के आधार पर ही बना हुआ है। अतः जब देश के 14 राजनैतिक दलों के नेताओं की तरफ से सर्वोच्च न्यायालय में यह याचिका दायर की गई तो वर्तमान सरकार के इशारे पर सीबीआई व प्रवर्तन निदेशालय जैसी जांच एजेंसियां विपक्ष के नेताओं के खिलाफ मुकदमे दर्ज करने में भेदभाव बरतती है तो सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने इसे पहली नजर में ही खारिज कर दिया और पूछा कि क्या नेताओं के लिए कानून लागू करने के मामले में अलग से नियम बनेंगे? विपक्षी दलों का यदि यह तर्क है कि ऐसा होने से विपक्षी दलों के लिए राजनीति में एक समान परिस्थितियों को विषम बना दिया जाता है तो यह न्यायालय की राय में पूर्णतः राजनैतिक मामला है जिसका उत्तर कानून में नहीं खोजा जा सकता। राजनैतिक द्वेष से की गई कार्रवाई को कानून का जामा पहना कर लागू करने की किसी भी कार्रवाई का जवाब सिर्फ कानूनी ही हो सकता है और कानून किसी भी नागरिक द्वारा किये गये अपराध अथवा आरोपों का ही संज्ञान ले सकता है। विपक्षी दलों द्वारा यह याचिका दायर करने से पहले इस बात का बहुत शोर मचाया जा रहा था कि इससे विपक्षी दलों की संवैधानिक एकता होगी।
लोकतन्त्र में इस प्रकार का विमर्श कैसे तैयार किया जा सकता है, यह भी स्वयं में आश्चर्य का विषय हो सकता है क्योंकि विभिन्न राजनैतिक दलों की कोई भी एकता केवल राजनैतिक एकता ही होती है, बेशक उसके विभिन्न आयाम हो सकते हैं जिनमें से एक संविधान का संरक्षण भी निश्चित रूप से हो सकता है परन्तु संवैधानिक एकता किस प्रकार से हो सकती है जबकि प्रत्येक राजनैतिक दल का अपना अलग-अलग संविधान होता है। प्रश्न यह है कि जिन-जिन विपक्षी नेताओं के खिलाफ सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय जांच कर रहा है उनके खिलाफ जांच एजेंसियों के पास पुख्ता सबूत क्या है जिनके आधार पर जांच एजेंसियां इन नेताओं को अदालतों में पेश कर सकें। इस सम्बन्ध में इन जांच एजेंसियों को मिले अधिकारों की समीक्षा का मामला उठता है। मगर ये एजेंसियां संसद के किसी कानून द्वारा नहीं बनाई गई हैं बल्कि शासनादेश जारी करके बनाई गई हैं जिनका उद्देश्य भ्रष्टाचार समाप्त करना ही है।
यदि जांच एजेंसियों के निशाने पर केवल विपक्ष के नेता ही आते हैं तो इसे गैर कानूनी इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि एजैंसियों को उनके खिलाफ ही सबूत मिलने के साक्ष्य मिले। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दायर याचिका में केवल ये आंकड़े दिखा देना कि 2014 के बाद से एजैंसियों ने जितने भी मामले राजनैतिक नेताओं के खिलाफ बनाये हैं उनमें से 95 प्रतिशत विपक्षी नेताओं के खिलाफ हैं, पूरी तरह राजनैतिक मामला है। इसका उत्तर न्यायपालिका किस प्रकार दे सकती है। इस पर फैसला देने का हक तो केवल भारत की जनता को है जो वह चुनावों के माध्यम से देती है। मगर न्यायमूर्ति श्री चन्द्रचूड़ ने विपक्ष नेताओं के लिए न्याय के दरवाजे बन्द नहीं किये हैं और कहा है कि यदि व्यक्तिगत रूप से किसी नेता अथवा कुछ नेताओं के खिलाफ द्वेषपूर्ण कार्रवाई की जाती है तो उनके मामलों पर अदालत गौर करने के लिए राजी है और तत्सम्बन्धी दिशा-निर्देश देने के बारे में विचार कर सकती है मगर राजनीतिज्ञों की जमात को नागरिकों की जमात से अलग रख कर नहीं देख सकती।