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किसानों की दुर्दशा और भारत !

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किसानों में व्याप्त असन्तोष से भारत की अर्थव्यवस्था का सही अंदाजा लग सकता है। यह इस तथ्य का संकेत है कि हम जिस विकास वृद्धि दर की बात कर रहे हैं उसका सम्बन्ध ग्रामीण धरातल से न होकर केवल बाजार के उस गणित से है, जो उत्पादन और मूल्य के बीच अपना स्थान तय करती है। निश्चित रूप से यह गणित विकास की गति की रफ्तार तो बताता है मगर सर्वव्यापी प्रभाव की गारंटी नहीं देता। यह उलझन तब और बढ़ जाती है जब देश की साठ प्रतिशत कृषि आधारित व ग्रामीण जनता इससे अलग-थलग महसूस करती है और उसे इस विकास वृद्धि दर का असर अपने उत्पादों पर कहीं नजर नहीं आता है। इस मामले में स्व. चौधरी चरण सिंह ने जो फार्मूला दिया था उसे बड़े से बड़ा अर्थशास्त्री नकारने की हिम्मत नहीं जुटा सकता। उन्होंने 1980 में प्रधानमंत्री पद से मुक्त होने के बाद जो पुस्तक ‘नाइट मेयर आफ इंडियन इकोनामी’ (भारतीय अर्थव्यवस्था का दुरास्वप्न) लिखी उसमें स्पष्ट किया कि पश्चिमी देशों के विकास के माडल का अंधानुकरण करके हम भारत का समावेशी विकास नहीं कर सकते। इसके लिए हमें एेसी आर्थिक व्यवस्था का सृजन करना होगा जिसमें ग्रामीण अर्थव्यवस्था की उत्पादकता को बढ़ाकर उसका समुचित बाजार मूल्य तय हो सके। कृषि व ग्रामीण क्षेत्रों में पूंजी निर्माण (कैपिटल फार्मेशन) करके ही इसका हल ढूंढा जा सकता है।

इसके लिए सरकारी नीतियां बाजार मूलक न होकर गांव व कृषि मूलक बनानी होंगी और खेती की लागत को कम करते हुए उत्पादकता बढ़ाकर किसान को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य इस प्रकार देना होगा कि वह औद्योगिक उत्पादन की लाभप्रदता का मुकाबला अपने बूते पर ही कर सके। इससे ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों के बीच की खाई को पाटने में मदद मिलेगी और गांवों का विकास सुनिश्चित होगा जो इन इलाकों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार इस प्रकार करेगा कि किसानों की अगली पीढि़यां डाक्टर, इंजीनियर व वैज्ञानिक बनने के साथ राष्ट्रीय राजनीति में अग्रणी भूमिका निभा सकेंगी। आजकल हम जो देश में वातावरण देख रहे हैं वह बाजार मूलक अर्थव्यवस्था से उपजे विसंगत उपायों की देन है। एक तरफ खेती की लागत लगातार बढ़ रही है और दूसरी तरफ किसानों की उपज के दामों में उत्पादन बढ़ने से गिरावट दर्ज हो रही है, खेती जन्य उत्पाद अन्य औद्योगिक उत्पादों की तुलना में यथोचित मूल्य से वंचित हैं। हमने खेती के लिए बीमा योजना बनाई है वह बजाय किसानों को लाभ पहुंचाने के बीमा कम्पनियों को लाभ पहुंचा रही है। इसका उदाहरण मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के किसान हैं जिन्हें अपने खेतों के लिए खाद खरीदने के लिए निजी व्यापारियों को ऊंचे दाम देने पड़ रहे हैं।

किसानों के लिए खाद खरीदने को लेकर आधार कार्ड को जरूरी बना दिया गया है। इससे लाखों किसान प्रदेश सरकारों के प्राधिकृत विक्रय केंद्रों से खाद ले नहीं पा रहे हैं और उन्हें मजबूरन काला बाजार में ऊंचे दामों पर खाद खरीदनी पड़ रही है। इन राज्यों में बाकायदा खाद माफिया सक्रिय हो चुका है जो किसानों का खून चूस रहा है। दूसरी तरफ वह जब अपनी उपज को लेकर बाजार में जाता है तो इसकी सप्लाई जबर्दस्त होने पर उसके भाव इस तरह जमीन पर लिटा दिए जाते हैं कि उसे अपनी लागत वसूल करनी तक भारी पड़ जाती है। हालांकि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है परन्तु उसके खरीद केंद्रों पर भारी भ्रष्टाचार के चलते उसकी पूरी उपज खरीदी ही नहीं जाती है जिससे वह आढ़तियों के पास जाकर औने-पौने दामों में अपनी उपज को बेचने के लिए मजबूर होता है। अतः किसान जब अपनी खेती के जरूरी सामान के लिए बाजार में जाता है तब भी उसे कालाबाजारियों के चंगुल में फंसना पड़ता है और जब वह अपनी उपज बेचने के लिए बाजार में जाता है तब भी उसे मुनाफाखोरों की शरण में जाना पड़ता है। इससे एक तरफ उसका लागत मूल्य बढ़ता है और दूसरी तरफ फसल मूल्य घटता है। अतः खेती लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही है मगर उसके द्वारा उत्पादों का सीदा सम्बन्ध महंगाई से होता है और गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के भरण-पोषण से होता है।

अपनी उपज बाजार में बेचने के बाद किसान स्वयं उपभोक्ता बन जाता है और अपने ही सामान की बढ़ी हुई कीमतों को देखकर दंग रह जाता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आलू है, जो इसकी उपज के समय सड़कों पर इस कदर रुला कि किसान के हिस्से में दो रुपए प्रति किलो भी नहीं आए और अब यह 20 रुपए किलो से भी ऊपर बिक रहा है। असल में यह वणिक वृत्ति का प्रसार है जो सरकारी उपायों की पोल खोल देता है। यदि सरकारी नीतियां ग्रामीण क्षेत्रों में पूंजी निर्माण मूलक होंगी तो इस प्रकार की विसंगति समाप्त हो जाएगी क्योंकि तब सिंचाई से लेकर अनाज व फल-सब्जी भंडारण की सुविधाओं का जाल फैला होने से कृषि जन्य उत्पादों की बाजार की मांग के अनुरूप समुचित सप्लाई होने का न्यायोचित मार्ग तैयार होगा और बेवजह महंगाई से भी छुटकारा मिलेगा। इस तरफ सबसे तेजी के साथ कार्य स्व. इंदिरा गांधी की सरकार के समय हुआ था आैर उन्होंने हरित क्रां​ित करने के साथ ही गांव मूलक लघु उद्योग स्थापित करने के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में पूंजी निर्माण की वृहद परियोजनाएं चलाई थीं। इतना ही नहीं इंदिरा जी ने 1980 और 84 के बीच पैट्रोलियम उत्पादों में भारत को आत्मनिर्भर बनाने हेतु भी एक योजना तैयार की थी और इसके तहत राजस्थान व गुजरात से लेकर अन्य राज्यों में गैस व पैट्रोल खोज का व्यापक खाका खींचा था। इसका सीधा सम्बन्ध भारत के ग्रामीण मूलक विकास से था क्योंकि उनके समय में ही कृषि क्षेत्र में डीजल की मांग में जबर्दस्त इजाफा दर्ज हुआ था मगर यह भी सत्य है कि 1991 में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने पर स्व. नरसिम्हा राव की सरकार के दौरान पूरे ग्रामीण व कृषि क्षेत्र को लावारिस बनाकर छोड़ दिया गया और इन इलाकों का विकास पूरी तरह रुक गया।

1996 से 2004 तक सर्वाधिक जोर सार्वजनिक कम्पनियों के बेचने पर रहा और पूरी हेकड़ी के साथ विनिवेश मन्त्रालय बना दिया गया। इस मन्त्रालय ने राष्ट्रीय सम्पत्ति को दहेज में मिले माले मुफ्त की तरह बेचा और वित्तीय घाटा पूरा करने के उपाय किए। विदेशी निवेश के नाम पर भारत की कृषि मूलक अर्थव्यवस्था को नकार दिया गया। किसान कार्ड के नाम पर धरती के अन्नदाता कहे जाने वाले को कर्ज के लालच में उलझा कर आत्महत्या की तरफ फैंक दिया गया। इसमें सुधार की कोशिश बेशक डा. मनमोहन सिंह ने प्रधानमन्त्री बनने पर की और अपने पहले बजट में गांवों में सिंचाई सुविधाओं से लेकर आधारभूत भंडारण क्षमता के निर्माण की तरफ जोर दिया। किसानों की कर्ज माफी में इसके बाद 76 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान करके यह सन्देश देने की कोशिश की गई कि सरकार बाजार मूलक अर्थव्यवस्था से उपजी विसंगतियों को पाटना चाहती है मगर यह प्रयास बाजार का चरित्र न बदले जाने की वजह से अधूरा ही रह गया और बाद में मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के कांडों में इस कदर घिर गई कि उसके बनाए गए सभी जन मूलक कार्यक्रम इसके बोझ में दब गए। अब जो दिक्कत किसानों को पेश आ रही है वह ढांचागत स्तर पर कोई बड़ा परिवर्तन किये बिना उसे सुरक्षा देने के तन्त्र को निजी कम्पनियों के हवाले छोड़ने पर आ रही है। इसका उदाहरण उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान हैं जिनका बकाया धन मिल मालिकों पर पड़ा हुआ है और सरकार इसकी देनदारी को फिर से बाजार की परिस्थितियों पर छोड़ रही है।

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