राजनीति में जब विचारों को बाजार की तराजू पर रखकर तोल दिया जाता है तो लोकतन्त्र में लोकशक्ति की जगह ‘सियासी मुनाफा’ ले लेता है। कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी ने वित्त मन्त्री श्री अरुण जेतली के बजट पर शेयर बाजार द्वारा दिखाए गये विपरीत रुझान पर जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है वह इसी श्रेणी में आती है। भारत के पूंजी बाजार में शुक्रवार को शेयरों की बिकवाली का दौर चलने से जो गिरावट दर्ज हुई उसे मोदी सरकार के विरुद्ध ‘अविश्वास प्रस्ताव’ जैसा कहकर राहुल गांधी ने सिद्ध कर दिया है वह स्वीकार करने लगे हैं कि इस देश की राजनीति वैचारिक सिद्धान्तों से निर्देशित न होकर उस ‘शेयर बाजार’ से निर्देशित हो रही है जिसमें पूंजी (रोकड़ा) लगाकर ही पूंजी (रोकड़ा) कमाई जाती है। वस्तुतः यह देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष की स्वीकारोक्ति है कि वह वर्तमान मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के समक्ष आत्मसमर्पण करते हैं।
श्री राहुल गांधी को शेयर बाजार की बजट पर प्रतिक्रिया पर ‘ट्वीट’ करने से पहले गंभीरता के साथ अपनी पार्टी के उस गौरवशाली इतिहास पर नजर डालनी चाहिए थी जिसकी आर्थिक नीतियों ने इस देश के विकास की बुनियाद रखी और दुनिया के सबसे बड़े ‘मध्यम उपभोक्ताओं’ के बाजार में तब्दील किया। उन्हें सोचना चाहिए था कि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के जनक डा. मनमोहन सिंह ने कभी भी अपने द्वारा रखे गये बजटों पर शेयर बाजार द्वारा व्यक्त की गई प्रतिक्रिया पर तवज्जो नहीं दी। मनमोहन सिंह के हर बजट पर शेयर बाजार कुलांचे भरने लगता था मगर उन्होंने हमेशा यही कहा कि ‘मुझे नहीं पाता कि शेयर बाजार में क्यों तेजी और मन्दी आती है?’ उन्हें कम से कम इतना तो सोचना चाहिए था कि बजट में शेयर बाजार में निवेशित धन पर वित्त मन्त्री ने जो दीर्घावधि पूंजी लाभ कर (लोंग टर्म कैपिटल गेन टैक्स) लगाया है वह उन बड़े देशी व विदेशी पूंजी निवेशकों से भारत के राजस्व खाते को मजबूत बनाने के लिए लगाया है जो इस देश की अर्थव्यवस्था से ही लाभ उठा रहे हैं।
श्री जेतली द्वारा लोंग टर्म टैक्स लगाने का स्वागत किया जाना चाहिए था क्योंकि उनके इस कदम से भारत की अर्थव्यवस्था मंे बड़े निवेशकों का विश्वास सुदृढ़ होगा। श्री राहुल गांधी को सोचना चाहिए था कि जब पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी यूपीए-2 सरकार में वित्त मन्त्री थे तो उन्होंने संसद में ही घोषणा की थी कि भारत कोई ‘टैक्स हैवंस’ जैसा देश नहीं है जिसकी अर्थव्यवस्था विदेशी कम्पनियों को करों में माफी या छूट देने से चलती हो। उन्होंने एेलान किया था कि भारत में जो कोई कम्पनी भी कारोबार करके मुनाफा कमायेगी उसे यहां के नियमों के अनुसार टैक्स जमा करना होगा। जाहिर तौर पर किसी भी देश की सरकार ही व्यापार करने के वातावरण को तैयार करती है और इसके बदले में वांछनीय कर लगाकर अपने खजाने को मजबूत करती है जिससे वह देश के जरूरतमन्द लोगों की मदद के लिए आवश्यक धन जुटा सके और जरूरी विकास का ढांचा खड़ा कर सके। श्री जेतली ने शेयर बाजार में धन निवेश करने वालों पर जो 10 प्रतिशत ‘लोंग टर्म कैपिटल गेन टैक्स’ लगाया है उसका सन्देश यही है कि भारत कोई खैराती मुल्क नहीं है कि यहां के पूंजी बाजार में धन लगाकर कोई भी बड़ा देशी या विदेशी निवेशक मुनाफा कमाता रहे और सरकार उसे शाबाशी देती रहे जैसा कि ‘टैक्स हैवंस’ देशों में होता है।
यह राष्ट्रहित में भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने वाला कदम है, जिसका स्वागत होना चाहिए था मगर श्री राहुल गांधी ने इसकी वजह से शेयर बाजार में आयी गिरावट को मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नाम दे डाला। यह पूरी तरह आर्थिक वरीयताओं का मतिभ्रम है। एक तरफ राहुल गांधी मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों का विरोध करते हैं और दूसरी तरफ शेयर बाजार को आधार बनाकर उन्हीं नीतियों का समर्थन करते हैं जबकि एक लाख रु. वार्षिक मुनाफा कमाने वाले छोटे निवेशकों को वित्त मन्त्री ने कर छूट प्रदान की है। कांग्रेस अध्यक्ष को तो विपक्षी पार्टी का नेता होते हुए उलटे भाजपा सरकार को चेतावनी देनी चाहिए थी कि उसकी अभी तक की नीतियां कार्पोरेट क्षेत्र के हित में रही हैं। उनके हाथ में तो बजट वाले दिन ही राजस्थान व प. बंगाल में हुए उपचुनाव परिणामों का अस्त्र आया था जिसमें भाजपा प्रत्याशियों की शिकस्त हुई थी।
उन्हें तो मध्य प्रदेश व कर्नाटक जैसे राज्यों में कांग्रेस की विजय सुनिश्चित करने का बिगुल बजा देना चाहिए था और पूछना चाहिए था कि किसानों को उनकी उपज की लागत का जो डेढ़ गुना मूल्य दिया जायेगा उसकी कीमत तय करने का पैमाना क्या होगा? मगर कांग्रेस में हालत तो यह बनी हुई है कि यह पार्टी यह सोचकर बैठी हुई है कि लोग जब भाजपा से उकता जायेंगे तो उसे वोट डाल देंगे। मध्य प्रदेश चीख-चीख कर कह रहा है कि खुदा के बन्दो कोई एेसा रहनुमा इस सूबे को दो जो शिवराज सिंह की ‘चौहानी’ को चुनौती दे सके मगर माननीय राहुल गांधी सोच रहे हैं कि जब वक्त आयेगा तो देखा जायेगा, अभी तो चुनाव में कई महीने पड़े हैं। तब तक ट्वीटर से ही काम चलाओ? समझा यह जाना जरूरी है कि मुल्क की सियासी फिजां में जो बदलाव लाने की कोशिशें हो रही हैं उनका मुकाबला किसी ठहराव वाली सियासी सोच के साथ ही किया जा सकता है। आज भी कांग्रेस पार्टी में एेसे धुरंधरों की कमी नहीं है जो बाजार की राजनीति को विचारों की ‘शमशीर’ से ढेर करने की कूव्वत रखते हैं मगर राहुल गांधी तो खुद बाजार की राजनीति में उलझते जा रहे हैं! जबकि उनकी विरासत एेसी कमाल की विरासत है जिसका परचम आज भी हिन्दोस्तान के हर सूबे में टंगा हुआ है, जरूरत है तो बस इसे हवा में फहराने की मगर इसकी रहबरी करने के लिए दोस्त और दुश्मन की पहचान करने की अक्ल की इस तरह जरूरत है कि आने वाले कल में वे सब लोग एक घाट पर पानी पीते नजर आयें जो मौका परस्ती में अपनी खालें बदल कर मंजिल से भटकाने के लिए एक घाट पर पानी पीने का ढोंग रचते रहे हैं।