पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री शहबाज शरीफ ने भारत के साथ सम्बन्धों को लेकर जिस तरह की ‘शीरी बयानी’ की है उसका एक मोटा अर्थ यह निकाला जा सकता है कि पाकिस्तान पिछले 75 वर्षों में भारत के प्रति रवैये से तंग आ चुका है और आपसी सम्बन्धों में अब नई शुरूआत चाहता है। परन्तु यह नई शुरूआत तभी हो सकती है जब पाकिस्तान यह दिल से महसूस करें कि अपने तामीर होने के वक्त से लेकर आज तक भारत के प्रति उसकी नीयत व नीति ‘साबूत’ नहीं रही है जिसका सबसे बड़ा खामियाजा उसकी अवाम को भुगतना पड़ा है। कोई भी मुल्क खुद को किसी दूसरे मुल्क से दुश्मनी की बुनियाद को अपने वजूद की शर्त नहीं बना सकता। पाकिस्तान में पिछले 75 सालों से यही होता रहा है और इसने हिन्दोस्तान से दुश्मनी को अपने वजूद की शर्त बना रखा है। इसकी सिर्फ एक ही वजह हो सकती है कि जिस मजहब की बुनियाद पर पाकिस्तान 15 अगस्त, 1947 को भारत से टूट कर अलग हुआ था वह पूरी तरह बेमानी और हवाई थी। इसका सबूत हमें 16 दिसम्बर, 1971 को तब मिला जब बांग्ला संस्कृति का पैरोकार मुस्लिम बहुल पूर्वी पाकिस्तान इससे अलग होकर ‘बांग्लादेश’ बन गया।
जाहिर है कि पाकिस्तान आज भी जिस जमीन पर तामीर है वह भारतीय संस्कृति के रंग से ओत-प्रोत धरती ही है। इसके बावजूद इस मुल्क के रहनुमाओं ने मुसलसल भारत से रंजिश व दुश्मनी के तौर-तरीकों को ही जारी रखा और उस कश्मीर को बहुत बड़ा मुद्दा बना डाला जिस पर अक्तूबर 1947 में पाकिस्तान की फौजों और कबायलियों ने हमला किया था। सबसे पहले पाकिस्तान को यह स्वीकार करना होगा कि कश्मीर में उसकी भूमिका एक आक्रमणकारी देश की है। श्री शहबाज शरीफ ने अबू धाबी के अल-अरबिया टीवी को दिये गये एक साक्षात्कार में कहा है कि वह भारत व इसके प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के साथ दोनों देशों के बीच के सभी मसलों पर बातचीत को तैयार हैं जिनमें कश्मीर का मुद्दा भी शामिल है। बेशक जनाब शरीफ साहब को इस हवाले से 1972 के उस शिमला समझौते की तहरीर पर निगाह मार लेनी चाहिए जो भारत व पाकिस्तान के बीच हुआ था और जिसमें लिखा हुआ है कि दोनों देशों को अपने सभी विवादों का हल बातचीत के जरिये अमन तरीके से ही निकालेंगे। मगर इसके बाद पाकिस्तान ने जो भी हरकतें की हैं उनका जायजा भी शहबाज शरीफ को लेना होगा और 1989 के बाद से भारत में शुरू किये गये आतंकवाद पर अपनी गलती माननी होगी।
1999 में बेवजह ही कारगिल युद्ध करके पाकिस्तान ने क्या हासिल किया सिवाय इसके कि उसने कश्मीर को सुलगाने में एक और कदम आगे बढ़ाया? यह बहुत अच्छी बात है कि शरीफ साहब यह महसूस कर रहे हैं कि भारत से तीन-तीन युद्ध लड़ने के बाद पाकिस्तान को सिवाय मुफलिसी, बेरोजगारी व भुखमरी के कुछ और हासिल नहीं हुआ। एेसा होना ही था क्योंकि कश्मीर के मुद्दे पर जो जुनून पाकिस्तानी हुक्मरानों ने अपनी अवाम के बीच फैलाया उसकी कैफियत बस इतनी भर थी कि किसी भी तरह पाकिस्तान का वजूद खतरे में न पड़े। वरना इतिहास गवाह है कि जब पाकिस्तान बना था तो दोनों मुल्कों की अवाम के बीच रिश्तों में इस हकीकत के बावजूद खलिश नहीं थी कि पाकिस्तान बनाने के लिए पश्चिमी पंजाब में मुस्लिम लीग के कारिन्दों ने हिन्दुओं व सिखों का इस इलाके से पूरी तरह सफाया कर दिया था और लाखों परिवारों को अपना पुश्तैनी घर-बार छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था जबकि दस लाख के करीब लोगों का कत्लोगारत हुआ था। इसके बावजूद साझा पंजाबी संस्कृति में इतनी कशिश थी कि पाकिस्तान व हिन्दोस्तान के लोगों को एक-दूसरे के देश में आने-जाने में ज्यादा रुकावटें नहीं आती थीं। बजाये पासपोर्ट के परमिट से ही काम चल जाता था। मगर 1965 में जनरल अयूब के सलाहकार फौजी हुक्मरानों व प्रोफेसर से विदेशमन्त्री बनंे जुल्फिकार अली भुट्टो ने अमेरिकी सैनिक साजो-सामान की धौंस में भारत के खिलाफ आक्रमण कर दिया जिसमें भारत की फौजों ने लाहौर में प्रवेश करके पाकिस्तान के होश उड़ा दिये। जिसके बाद ताशकन्द समझौता हुआ और उसके बाद पाकिस्तान 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के मोर्चे पर भारत ने पूरे पाकिस्तान को ही बीच से चीर कर दो टुकड़ों में बांट दिया और पाकिस्तान के 93 हजार सैनिकों ने भारत की सेना के समक्ष आत्मसमर्पण करके त्राहिमाम किया। अगर शहबाज शरीफ को यह एहसास हो गया है कि भारत उनके मुल्क का पड़ोसी देश है और अपने पड़ोसी के साथ उन्हें बेहतर व खुशनुमा ताल्लुकात बना कर रहना चाहिए तो उन्हें सबसे पहले मुल्क से दहशतगर्द तंजीमों के साथ ही उन इस्लामी कट्टरपंथी सोच के पैरोकारों पर भी लगाम लगानी होगी जो हिन्दोस्तान और हिन्दुओं के खिलाफ जेहादी जुनून पैदा करते हैं।
यह तो एक हकीकत है कि अगर भारतीय उपमहाद्वीप के भारत व पाकिस्तान देश मित्रतापूर्वक सम्बन्धों में बन्धकर एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हुए आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं तो चालू सदी का इतिहास कुछ और हो सकता है। मगर पाकिस्तान तो परमाणु बम लेकर बैठ गया है और इसे अपनी ताकत समझता है जबकि जाहिराना तौर पर अपनी धरती को आतंकवाद की जरखेज जमीन बना कर उसने पूरी दुनिया के सामने ही खतरे का सामान पैदा कर दिया है। इसके बावजूद यदि शहबाज शरीफ यह समझते हैं कि भारत के साथ दोस्ती करना ही उनके मुल्क की तरक्की का एकमात्र रास्ता है तो उन्हें सबसे पहले कश्मीर राग छोड़ कर इंसानियत का राग गाना चाहिए और मजहब के दायरे से निकल कर मुल्क के ‘दयार’ के बारे में सोचना होगा।
‘‘बारहा देखी हैं उनकी रंजिशें
पर कुछ अबके सरगिरानी और है
देके खत मुंह देखता है नामाबर
कुछ तो पैगामे जबानी और है।’’
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com