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शरद पवार बनाम अजित पवार

चुनाव आयोग ने देश के सबसे अनुभवी नेताओं में से एक श्री शरद पवार द्वारा 1998 में स्थापित की गई राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को उनके भतीजे अजित पवार की पार्टी मान कर कहीं न कहीं उस प्राकृतिक न्याय की अवधारणा को ठेस पहुंचाई है जिसमें किसी साधारण भारतीय परिवार का जीवित दादा अपने पोते तक के परिवार का अभिभावक कहलाता है। 1998 में भारतीय मूल के मुद्दे पर श्री शरद पवार ने कांग्रेस पार्टी छोड़ कर अपनी अलग कांग्रेस पार्टी तब बनाई थी जब वह वाजपेयी सरकार के सत्ता में रहते लोकसभा में विपक्ष के नेता थे। हालांकि उनकी पार्टी का असर महाराष्ट्र से बाहर नाममात्र का ही रहा मगर जनता के दिमाग में आज भी राष्ट्रवादी कांग्रेस का मतलब शरद पवार ही माना जाता है। मगर चुनाव आयोग ने कुछ तकनीकी आधार पर अजित पवार के गुट को ही असली राष्ट्रवादी कांग्रेस करार दिया है। बेशक शरद पवार ने ही अपने भतीजे अजित पवार को अंगुली पकड़ कर राजनीति में चलना सिखाया हो मगर पिछले वर्ष अजित पवार ने राष्ट्रवादी कांग्रेस से नाता तोड़ कर राज्य की भाजपा व शिंंदे गुट की शिवसेना सरकार से हाथ मिला लिया और वह कुछ राष्ट्रवादी विधायकों के साथ दल-बदल कर गये और उन्होंने अपने गुट को ही असली पार्टी कहना शुरू कर दिया। उनके सामने शिन्दे गुट के शिवसेना विधायकों का उदाहरण था जो श्री उद्धव ठाकरे की शिवसेना से टूटकर अलग हुए थे और बाद में चुनाव आयोग ने उन्हीं के गुट को असली शिवसेना मानकर उन्हें ही पार्टी का चुनाव निशान भी दे दिया था।
शिवसेना के 56 में से 40 से अधिक विधायक एकनाथ शिन्दे के साथ चले गये थे और चुनाव आयोग ने इसे ही आधार मानकर उनके गुट को असली शिवसेना मान लिया था। ठीक इसी तर्ज पर चुनाव आयोग का फैसला राष्ट्रवादी कांग्रेस के बारे में भी आया है। चुनाव आयोग के अनुसार राष्ट्रवादी कांग्रेस के पूरे देश में कुल विधायक व सांसद 81 हैं। इनमें से 57 का समर्थन अजित पवार के साथ है जबकि 28 का श्री शरद पवार के साथ परन्तु पांच विधायक व एक सांसद एेसे हैं जो दोनों ही गुटों को समर्थन देते हैं। चुनाव आयोग ने अपने फैसले में कहा है कि यदि इन छह जनप्रतिनिधियों को भी श्री शरद पवार के साथ मान लिया जाये तो भी बहुमत अजित पवार के पक्ष में रहता है और लोकतन्त्र में बहुमत से ही फैसला होता है। चुनाव आयोग ने अजित पवार के पक्ष में फैसला देते हुए इस फार्मूले को ही अपना पैमाना माना और पार्टी संगठन में इन दोनों नेताओं की हैसियत का जायजा नहीं लिया। लोकतन्त्र में पहले से स्थापित परंपराओं और उदाहरणों या नजीरों का भी महत्व होता है। इस मामले में 1969-70 की चुनाव आयोग की नजीर हमारे सामने है जब कांग्रेस पार्टी का पहला विभाजन हुआ था। उस समय स्व. इंदिरा गांधी कांग्रेस पार्टी की ही प्रधानमन्त्री थीं और उन्हें ही कांग्रेस कार्यकारिणी ने पार्टी से निकाल दिया था और उनकी प्राथमिक सदस्यता भी निरस्त कर दी थी। इसके बावजूद लोकसभा में उनके गुट के कांग्रेसी सांसदों का बहुमत उनके साथ था।
यह मामला चुनाव आयोग पहुंचा था। उस समय मुख्य चुनाव आय़ुक्त स्व. एस.पी. सेनवर्मा थे। कांग्रेस के दोनों गुट स्वयं को असली कांग्रेस पार्टी माने जाने की दलीलें दे रहे थे। तब चुनाव आयोग ने अपना निर्णय देकर एक नजीर पेश की थी। तब श्री सेनवर्मा ने कांग्रेस पार्टी के चुनाव निशान दो बैलों की जोड़ी को जब्त (फ्रीज) कर दिया था और दोनों गुटों को कांग्रेस का नाम देते हुए एक के साथ संगठन व दूसरे के साथ इंदिरा शब्द जोड़ दिया था। दोनों पार्टियों को नये चुनाव चिन्ह भी आवंटित किये थे। कांग्रेस (संगठन) को चरखा कातती हुई महिला व कांग्रेस (इंदिरा) को गाय-बछड़ा। मगर वर्तमान में चुनाव आयोग ने पार्टियों की संगठन व्यवस्था पर ध्यान न देते हुए केवल चुने हुए प्रतिनिधियों की संख्या बल के आधार पर अपना फैसला देना उचित समझा है।
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के संविधान के अनुसार अलग होने के समय से क्या अजित पवार गुट के कदमों की समीक्षा नहीं की जानी चाहिए थी। चुनाव आयोग को देश के राजनैतिक दलों की अन्तर्व्यवस्था का भी पर्यवेक्षक बनाया गया है और उनके संचालन का निरीक्षक भी बनाया गया है। अतः पार्टी संविधान के अऩुसार राजनैतिक दलों के कामकाज को होते देखना उसकी जिम्मेदारी बनती है। श्री शरद पवार ने अजित गुट के टूट जाने के बाद अपनी पार्टी की हर गतिविधि से चुनाव आयोग को परिचित कराना अपना दायित्व समझा था। अतः इस मामले में चुनाव आयोग को शिवसेना की भांति फैसला करने से पहले सभी आयामों की तरफ गौर से देखना चाहिए था खासकर चुनाव निशान ‘घड़ी’ अजित पवार को गुट को देते समय। चुनाव आयोग एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष संवैधानिक संस्था है। इसका हर फैसला दूध का धुला सा दिखना जरूरी होता है जिससे लोकतन्त्र हर हालत में जमीन से लेकर शिखर तक मजबूत हो सके। अगर आज विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियां खानदानी कदीमी परचून की दुकानों की तरह चल रही हैं तो चुनाव आयोग की ही यह जिम्मेदारी बनती है कि वह उनके भीतर लोकतन्त्र को स्थापित करने के लिए जरूरी कार्रवाई करें, इसके अख्तियार उसके पास हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस के विभाजन के मसले पर उसका यह कह देना कि पार्टियां सही अर्थों में आंत​रिक चुनाव नहीं करती हैं और किसी प्राइवेट कम्पनी की तरह चलती हैं। काफी नहीं है।

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