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शशि थरूर, फिर थोथा गरूर!

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यह कैसा दुर्योग है कि न तो कांग्रेस और न ही भाजपा के नेताओं को भारत की उस राजनैतिक पार्टी के इतिहास का सही ज्ञान है जिसने इस देश को अंग्रेजों की दो सौ साल की दासता से मुक्ति दिलाकर भारत के लोगों को प्रजातन्त्र की वह सौगात दी जिसमें यहां के अनपढ़ व मुफलिस कहे जाने वाले लोगों को मुल्क का मालिक बनाया गया। सबसे पहले कांग्रेस के कथित नेता शशि थरूर की खबर लिये जाने की जरूरत है जिन्हें स्वतन्त्रता संग्राम के महायोद्धा और आजाद भारत के पहले प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू की महान विरासत के बारे में सतही ज्ञान तक नहीं है। आधुनिक राजनैतिक इतिहास का कक्षा दस का विद्यार्थी भी इस तथ्य को जानता है कि भारत के स्वाधीनता संग्राम की ज्वाला से तप कर बाहर निकले आजाद भारत की राजनीति में ‘स्व. कामराज नाडार’ एकमात्र एेसे नेता थे जो दिल दहला देने वाली भयंकर गरीबी की विभीषिका में अपना पूरा बचपन व युवावस्था काट कर न केवल तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री पद तक पहुंचे थे बल्कि स्वयं पं. जवाहर लाल नेहरू ने ही उन्हें अपनी पार्टी कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष तब बनाया था जब 1962 में चीनी आक्रमण में पराजित होने के बाद पं. नेहरू का विश्वास पूरी तरह डगमगा गया था और कांग्रेस का पूरे भारत में00 एकछत्र राज होने के बावजूद इसके क्षेत्रीय व केन्द्रीय नेताओं की छवि भ्रष्टाचार के छिटपुट आरोपों के चलते धूमिल होने लगी थी।

मई 1964 में मृत्यु होने तक पं. नेहरू का यह सबसे बड़ा अवसाद काल था और एेसे विकट समय में उन्हें कामराज की याद इसलिए आयी थी क्योंकि श्री कामराज पूर्ण रूपेण दबे-कुचले व गरीब जनता के एेसे प्रतिनि​िध थे जिन्होंने गांधीवाद के रास्ते पर चल कर सत्ता के शिखर से लेकर सड़क तक गरीबों के हकों मंे अपनी सरकार को इस प्रकार खड़ा कर दिया था कि उन्हीं के राज्य के राजनेता समझे जाने वाले स्वतन्त्र भारत के प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल स्व. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को भी उनकी जन-राजनीति के सामने झुकना पड़ा था और स्वीकार करना पड़ा था कि कामराज एेसे राजनीतिज्ञ हैं जिनसे राजनीति स्वयं कुछ सीखने की मुद्रा में खड़ी हो जाती है। पं. नेहरू स्वयं इंग्लैंड से उच्च शिक्षा प्राप्त थे और उनका बचपन राजकुमारों की तरह बीता था, इसके बावजूद भारत आकर उन्होंने जब अपने देश की गरीबी देखी तो पूरे दस वर्ष तक वह गांवों का भ्रमण करते रहे थे और ग्रामीणों की समस्याओं से जूझते रहे थे। नेहरू स्वयं में दूरदृष्टा राजनीतिज्ञ थे और पूरी दुनिया में उनका रुतबा एेसे राजनेता का था जिसके आगे तब का अमेरिकी ‘राष्ट्रपति आजनहावर’ भी खुद को कहीं अल्पज्ञानी समझता था।

उन्हीं पं. नेहरू ने अपने अवसादकाल में कामराज की शरण ली जिन्होंने तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री पद को छोड़ कर कांग्रेस अध्यक्ष बनना स्वीकार किया। 1963 के अन्त में ‘कामराज योजना’ की मार्फत पं. नेहरू ने अपनी पार्टी के कायाकल्प का बीड़ा उठाया। कामराज एेसे व्यक्ति थे जिन्हें गरीबी की वजह से कक्षा छह की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर एक कपड़े की दुकान पर नौकरी करनी पड़ी थी। वह रात को उसी दुकान के बाहर सोकर उसकी चौकीदारी भी करते थे और किसी प्रकार अपनी विधवा मां का पेट पालते थे। दुकान पर नौकरी करते हुए ही किशोर अवस्था में पहुंचने पर उन्होंने तमिल अखबारों को पढ़कर राजनीति में रु​िच लेनी शुरू की और युवावस्था आने पर वह गरीबों के हक की लड़ाई लड़ने वाले एेसे सिपाही बन गये कि उन्हें जनता ने अपनी सिर-आंखों पर बिठा लिया और बाद में वह मद्रास राज्य बनने पर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के पद छोड़ने पर मुख्यमन्त्री बने और बचपन में गरीबी की वजह से शिक्षा से मरहूम रहे कामराज ने पहला कार्य अपने राज्य में शिक्षा पद्धति में सुधार का ही किया।

हाई स्कूल तक ‘एक समान शिक्षा प्रणाली और मिड-डे मील’ योजना को तमिलनाडु में चला कर उन्होंने भारत ही नहीं बल्कि समूचे एशियाई देशों को चौंका दिया। सबसे बड़े अफसोस की बात यह है कि नौसिखिये कांग्रेस सांसद शशि थरूर को यह तक पता नहीं है कि नेहरू ने अपने जीवनकाल में ही देश के सबसे गरीब राजनीतिज्ञ को कांग्रेस अध्यक्ष बनाकर सिद्ध कर दिया था कि भारतीय लोकतन्त्र के सत्ता शिखर पर पहला अधिकार गरीब आदमी का ही है परन्तु इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ यहीं तक सीमित नहीं है। जब नेहरू जी की मृत्यु के बाद कांग्रेस पार्टी के सामने अगला प्रधानमन्त्री चुनने की चुनौती आयी तो कांग्रेस कार्यसमिति के अधिसंख्य सदस्यों ने राय दी कि श्री कामराज ही इस पद के सर्वथा योग्य व्यक्ति हो सकते हैं। इस पेशकश को उस महान सपूत ने यह कहकर ठुकरा दिया कि ‘आप लोग समझते क्यों नहीं कि भारत का प्रधानमन्त्री बनने के लिए हिन्दी भाषा जानना बहुत जरूरी है। मैं इस पद के योग्य नहीं हूं क्योंकि मुझे केवल तमिल भाषा ही आती है।’ जिस पार्टी की इतनी शानदार विरासत स्व. कामराज के रूप में इतिहास का अमिट हिस्सा हो अगर उसका कोई नेता यह कहने की मूर्खता करता है कि आज नेहरू जी की वजह से कोई चायवाला भी प्रधानमन्त्री बन सकता है तो उसे कांग्रेस पार्टी में रहने का अधिकार नहीं है क्योंकि एेसा कहकर उसने बेवजह एेसी बहस को जन्म देने की कोशिश की है जिसका भारत के लोकतन्त्र से कोई लेना-देना नहीं है।

नेहरू जी की मृत्यु के बाद स्व. लालबहादुर शास्त्री का प्रधानमन्त्री पद के लिए चयन करके स्व. कामराज ने यही सिद्ध किया था कि देश के सर्वोच्च पद पर वह गरीब व्यक्ति भी पहुंच सकता है जो बचपन में केवल एक पैसा न होने की वजह से अपने स्कूल जाने के लिए नौका में बैठने की जगह नदी को तैर कर पार करता था और कांग्रेस आन्दोलन में जुड़ने पर जिसने शुरू में कांग्रेस कार्यालय मंे दरियां बिछाई थीं। शास्त्री जी की असमय मृत्यु होने पर स्व. इं​िदरा गांधी का प्रधानमन्त्री पद के लिए चुनाव भी मोरारजी देसाई के मुकाबले स्व. कामराज ने ही किया था, वह तब भी कांग्रेस के अध्यक्ष थे। इसकी वजह कोई परिवारवाद या नेहरू निष्ठा नहीं थी बल्कि कांग्रेस पार्टी को जीवन्त बनाये रखने का वह प्रयास था जो उस समय केवल नेहरू के आभामंडल की छाया में ही उनकी पुत्री के सत्तारूढ़ होने से पूरे देश में नव ऊर्जा का संचार कर सकता था। इस तथ्य को कामराज से बेहतर कोई दूसरा व्यक्ति नहीं समझ सकता था क्योंकि वह जानते थे कि उत्तर भारत की राजनीति का राष्ट्रीय राजनीति में कितना महत्व है।

जिस देश का इतिहास तो यह हो कि इसकी राजनीति में सक्रिय सबसे गरीब कांग्रेस अध्यक्ष ने देश को दो-दो प्रधानमन्त्री दिये हों वहां तंजों के माध्यम से राजनीति को निजी स्तर पर गिराना पूरे राजनैतिक विमर्श का विनाश करना ही है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इस बारे में सोचें कि शशि थरूर 2019 के चुनाव आते-आते और क्या गुल खिला सकते हैं। जो व्यक्ति यह कह सकता है कि महात्मा गांधी के जन्म दिवस पर छुट्टी बन्द कर देनी चाहिए, भारत का राष्ट्रगान ‘सावधान’ की मुद्रा मंे खड़े होकर गाये जाने की जगह अमेरिकी तर्ज पर हाथ सीने पर धर कर गाया जाना चाहिए, वह अमेरिका जाकर ही राजनीति में हाथ आजमाए तो बुरा सुझाव तो नहीं है?

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