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नियन्त्रण रेखा पर स्थायित्व?

अरुणाचल प्रदेश के तवांग इलाके में चीनी सैनिकों के भारतीय इलाके में अतिक्रमण के प्रयास में भारतीय सैनिकों से हुए संघर्ष के बाद विगत 20 दिसम्बर को दोनों और की सेनाओं के कमांडरों के बीच जो वार्ता का दौर चला उसमें नियन्त्रण रेखा पर सुरक्षा व स्थायित्व बनाये रखने की सहमति बनी।

अरुणाचल प्रदेश के तवांग इलाके में चीनी सैनिकों के भारतीय इलाके में अतिक्रमण के प्रयास में भारतीय सैनिकों से हुए संघर्ष के बाद विगत 20 दिसम्बर को दोनों और  की सेनाओं के कमांडरों के बीच जो वार्ता का दौर चला उसमें नियन्त्रण रेखा पर सुरक्षा व स्थायित्व बनाये रखने की सहमति बनी। विगत 9 दिसम्बर को चीनी सैनिकों ने तवांग क्षेत्र में सीनाजोरी दिखाई थी जिसके बाद भारतीय सैनिकों ने उन्हें पीछे धकेलने की कार्रवाई की थी और इस प्रक्रिया में भारतीय सेना के कुछ जवान जख्मी भी हुए थे। विगत 2020 वर्ष के जून महीने के बाद से सैनिक कमांडरों की यह 17वीं बैठक थी जो कि नियन्त्रण रेखा की स्थिति के बारे में हुई। सर्वविदित है कि दून 2020 में लद्दाख की गलवान घाटी इलाके में चीनी सैनिकों ने नियन्त्रण रेखा का उल्लंघन करते हुए भारतीय क्षेत्र में जबरन प्रवेश किया था जिसे नाकाम करने की कार्रवाई में भारत के 20 जांबाज जवानों ने शहादत पाई थी मगर जवाब में चीनी सेना के भी पचास के लगभग जवान हलाक करने की खबर आयी थी। सवाल यह है कि चीन जून 2020 के बाद से अब तक कई बार लद्दाख से अरुणाचल जाती नियन्त्रण रेखा के साथ छेड़छाड़ करके इसे बदलने के प्रयासों में जुटा हुआ है और हर बार सैनिक कमांडरों की बैठक करके नियन्त्रण रेखा पर स्थायित्व रखने के प्रयास किये जाते हैं। 
आखिरकार यह सिलसिला कब तक चल सकता है क्योंकि चीन की नीयत साफ दिखाई नहीं देती है। इसका माकूल जवाब देने का उत्तर भारत की कूटनीति व रक्षा नीति में छिपा हुआ है। जहां तक सीमाओं की रक्षा का सवाल है तो उसके लिए देश के रक्षामन्त्री श्री राजनाथ सिंह जिम्मेदार  हैं और विदेश व कूटनीति की बागडोर विदेशमन्त्री एस. जयशंकर के हाथ में है। राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में भारत की सेनाओं का पूरी दुनिया में बहुत ऊंचा सम्मान व रुतबा है क्योंकि विश्व के सैनिक मानकों पर पूर्णतः पेशेवर सेना है जिसका लक्ष्य राष्ट्र की रक्षा करने के साथ ही इंसानियत की सुरक्षा करना भी है। अतः सेना के मोर्चे पर भारत पूरी तरह से बेफिक्र है कि उसकी सीमाओं की एक इंच भूमि भी कोई दूसरा देश नहीं ले सकता मगर कूटनीति के मोर्चे पर देश का राजनैतिक नेतृत्व काम करता है। भारत में  अन्ततः सेना राजनैतिक नेतृत्व के दिशा-निर्देशों पर ही काम करती है। अतः भारत व चीन के सेना कमांडरों की जो 17वीं बैठक विगत 20 दिसम्बर को चुशूल-मोल्डों सरहद के चीनी हल्के में हुई उसके बाद जारी संयुक्त वक्तव्य में कहा गया कि ‘‘दोनों पक्षों के बीच अपने-अपने देश के नेताओं से मिले निर्देशों के अन्तर्गत नियन्त्रण रेखा पर शेष बचे मसलों के जल्दी से जल्दी हल के लिए खुलकर गहराई से बातचीत हुई। दोनों पक्ष अंतरिम रूप से इस बात पर सहमत हैं कि लद्दाख के पश्चिमी क्षेत्र के सरहदी इलाके में जमीनी स्थायित्व व सुरक्षा कायम हो’’ अतः स्पष्ट है कि राजनैतिक नेतृत्व के दिशा-निर्देशन में ही भारत की सेनाएं किसी भी दूसरे देश से लगी सीमाओं की रक्षा के सन्दर्भ में समुचित कदम उठाती हैं। 
कूटनीति के मोर्चे पर एस. जयशंकर ने पिछले दिनों ही संसद में कहा था कि सीमाओं पर शान्तिपूर्ण व सामान्य माहौल बनाये बिना चीन के साथ भारत के सम्बन्ध सामान्य नहीं बन सकते। इसका सीधा मतलब निकलता है कि भारत चाहता है कि चीन उसकी सीमा से लगी नियन्त्रण रेखा के बारे में अपनी नीति बदले। अतः सवाल यह है कि क्या चीन इसके लिए  राजी है और यदि है तो फिर उसकी सैनिक कार्रवाइयों का क्या मतलब है? जाहिर है कि चीन जब नियन्त्रण रेखा पर कोई गड़बड़ी करने की कोशिश करता है तो उसका लक्ष्य भारत को कूटनीतिक मोर्चे पर भी दबाव में लाने का होता है। अतः भारत को इसका जवाब अपने नीतिगत सिद्धान्तों के तहत ढूंढना पड़ता है। हाल ही उत्तराखंड की चीनी सीमा करीब श्री बदरीनाथ धाम से लगते औली क्षेत्र में अमेरिका के साथ संयुक्त युद्धाभ्यास किया था। इसके बाद ही 9 दिसम्बर को चीन ने अरुणाचल प्रदेश में यह सीनाजोरी की। मतलब साफ है कि चीन भारत के कूटनीतिक दांवों का जवाब सैनिक कार्रवाइयों से देना चाहता है जो कि उसकी बौखलाहट का प्रतीक कहा जा सकता है। बौखलाहट इसलिए है क्योंकि भारत की विदेशनीति और सुरक्षा नीति क्या होगी इसे चीन तय नहीं कर सकता। वह भारत का निकटतम पड़ोसी जरूर है मगर अपने पड़ोसी को किस हैसियत में रखना है इसका अधिकार तो भारत के पास है और उसकी विदेशनीति किन कूटनीतिक सिद्धान्तों पर कड़ी होगी, यह भी केवल भारत ही तय करेगा। इसलिए चीन जब बौखलाहट में नियन्त्रण रेखा पर कोई सैनिक कार्रवाई करता है तो वह विश्व समुदाय के बीच अपनी साख को और कम कर लेता है।
बेशक चीन आज विश्व की आर्थिक शक्ति है मगर भारत के साथ खुला युद्ध करने का खतरा वह मोल नहीं ले सकता क्योंकि भारत ने भी समुद्र से लेकर पहाड़ों तक उसकी घेराबन्दी करने की पूरी चौसर बिछा रखी है। हिन्द-प्रशांत महासागर क्षेत्र में भारत-आस्ट्रेलिया-जापान-अमेरिका का चतुर्भुजीय नौ सैनिक सहयोग है। यह सहयोग इस बात की गारंटी करता है कि समुद्री क्षेत्र में चीन यदि अपनी सीनाजोरी दिखाने की कोशिश करता है तो उसे मुंहतोड़ जवाब मिल सकता है। बेशक भारत चीन के साथ सहअस्तित्व व शान्ति चाहता है मगर यह काम बराबरी के स्तर पर आकर होना चाहिए, इसलिए चतुर्भुजीय सहयोग अमेरिका व चीन के बीच चल रही प्रतियोगिता में भारत को समुद्री क्षेत्र को जंगी अखाड़ा बनने से रोकने का अस्त्र थमाता है। परन्तु असली सवाल भारत-चीन सीमा पर खींची नियंत्रण रेखा की स्थिति बदले जाने से रोकने का है और साथ ही चीन के कब्जे से अक्साईचिन और पाकिस्तान द्वारा 1963 में भेंट की गई पाक अधिकृत कश्मीर की पांच हजार वर्ग किलोमीटर काराकोरम भूमि को लेने का भी है। यह कार्य आसान नहीं है मगर भारत का लक्ष्य यही होना चाहिए। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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