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योगी और गहलोत की सदाकत

कोरोना वायरस से लड़ने के लिए लागू किया गया लाॅकडाऊन भी रोज नये रंग दिखा रहा है। एक तरफ यह आम लोगों के संयम की परीक्षा ले रहा है

कोरोना वायरस से लड़ने के लिए लागू किया गया लाॅकडाऊन भी रोज नये रंग दिखा रहा है। एक तरफ यह आम लोगों के संयम की परीक्षा ले रहा है तो दूसरी ओर इंसानियत को तोल रहा है और तीसरी तरफ जहालत में डूबे लोगों को हकीकत की जमीन पर खड़ा कर रहा है मगर इन सबसे ऊपर यह लोगों द्वारा चुनी गई लोकतान्त्रिक सरकारों की लोक कल्याण दृष्टि को ‘प्रिज्म’ से गुजार कर उसके जन अनुरागी होने का प्रमाण मांग रहा है। इस कसौटी पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ इस तरह खरे उतरे हैं कि उनके भगवा वस्त्रों की कीर्ति किसी कौतुक के समान समाज में नव ऊर्जा का संचार करती प्रतीत होती है। राजस्थान के मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत भी उनके साथ कदम ताल करते हुए लाॅकडाऊन के मानवतावादी पक्ष को अपना धर्म बना कर राजनीतिक आग्रहों से पीछा छुड़ा चुके लगते हैं। तथ्य यह है कि योगी जी भारतीय जनता पार्टी के धनुर्धर हैं जबकि गहलौत कांग्रेस के तीरन्दाज, परन्तु लोक कल्याण में दोनों का पक्ष लोकपक्ष इस प्रकार बना कि कोटा (राजस्थान) में फंसे हजारों विद्यार्थियों को मुसीबत से निकालने के लिए उत्तर प्रदेश परिवहन की सैकड़ों बसें लाॅकडाऊन के सख्त पहरे में युवा पीढ़ी को ढांढस बन्धाती अपने मां-बाप के घर से आये किसी सुखद सन्देश को सुनाने लगीं। योगी जी की आलोचना करने में उनके आलोचक अक्सर बतौर प्रदेश का मुख्यमन्त्री  के उनके आदेशों को  लोक प्रताड़ना के दायरे में खड़ा करने का प्रयास करते हैं परन्तु कोरोना संकट ने उनके साधू स्वभाव को जिस तरह चित्रित किया है उससे साफ हो गया है कि योगी व्यावहारिकता में सम्यक न्यासी कोई संन्यासी ही हैं और राजनीति में उनका आचरण संविधान की समानता और बराबरी के सिद्धान्त को लागू करने में किसी की कोई परवाह नहीं करता। जिन लोगों ने गोरखपुर के सांसद के रूप में उनके कार्यकाल को देखा है वे भलीभांति जानते हैं कि अपने इलाके में जापानी बुखार ( एन्सिफलाइटिस) को समाप्त करने के लिए उन्होंने अपने चारों लोकसभा सदस्य काल में किसी भी सरकार को चैन से नहीं बैठने दिया। कोटा शहर राजस्थान का कोचिंग मुख्यालय माना जाता है जहां विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने के लिए तैयारी करने युवा विद्यार्थी जाते हैं।
 इस शहर को मुख्यालय के रूप मे विकसित करने में श्री अशोक गहलोत की अपने पूर्व मुख्यमन्त्री काल में अहम भूमिका रही है। विभिन्न कोचिंग संस्थानों में पढ़ने वाले छात्र लाॅकडाऊन का प्रथम चरण शुरू होने से ही कुलबुला रहे थे कि उन्हें उनके घरों में भेजने की व्यवस्था की जाये। जब लाॅकडाऊन का दूसरा चरण शुरू हुआ तो योगी जी को लगा कि युवाओं को राहत की जरूरत है और उन्होंने इस बाबत राजस्थान के मुख्यमन्त्री से बात की और दोनों ने तय किया कि लाॅकडाऊन की शर्तों का पालन करते हुए छात्रों को उनके गृह जिलों तक पहुंचाया जाये और इतनी बसों की व्यवस्था की जाये कि आवश्यक दूरी बनाये रख कर छात्र सफर कर सकें। 
एक मुख्य वजह यह भी है कि कोटा में छात्र प्रायः ‘पेइंग गैस्ट’ के तौर पर रहते हैं जिससे उनकी कठिनाइयां लाॅकडाऊन में और बढ़ गई थीं। अतः योगी और गहलोत ने यह फैसला सिर्फ किसी अभिभावक की भूमिका में आने के बाद किया। मगर दूसरी तरफ वही योगी हैं जिन्होंने अपने राज्य में डाक्टरों या चिकित्सा कर्मियों अथवा पुलिस कर्मियों पर कुछ लोगों द्वारा किये जा रहे हमलों को इतनी गंभीरता के साथ लिया कि एेसे जाहिल लोगों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम तक लागू करने का आदेश दिया। यह भी योगी का साधू चरित्र दिखाता है क्योंकि ‘बचाने वाले’ को मारना हर धर्म में एेसा अन्याय है जिसका जवाब कड़ा दंड ही होता है। एेसे ही लोगों को शास्त्रों में ‘कर्महीन’ की संज्ञा दी गई है जिसका अपभ्रंश ‘कमीन’ शब्द बना और बाद में भारतीय समाज में एक गाली की तरह प्रयोग होने लगा मगर कर्महीनता जहालत से ही उपजती है क्योंकि इसकी बुनियाद व्यक्ति की कामचोरी होती है। यह कामचोरी ही उसे अन्धविश्वासी बनाती है और उसकी मानसिकता को मानवीयता के विरुद्ध विकसित करती है जिससे वह ‘जाहिल’ बन जाता है। कोरोना के मामले में हमें यह जहालत जहां-तहां देखने को मिल रही है जिसकी वजह से कुछ लोग लाॅकडाऊन की शर्तों को गैरजरूरी तक समझने की गलत​ी कर जाते हैं। दरअसल विज्ञान को झुठलाने की हर कोशिश जहालत ही कहलाई जायेगी। जब यह सिद्ध है कि कोरोना एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में उसके द्वारा छुए गये किसी भी सामान की मार्फत हो सकता है तो इसमें सामाजिक, भौतिक (शारीरिक) दूरी बनाये रखने के अलावा और क्या चारा हो सकता है। इसकी जांच करने के लिए अगर चिकित्सा कर्मचारी कहीं जाते हैं तो उन पर हमला किस वजह से किया जाये मगर क्या गजब हुआ कि मुरादाबाद में कुछ औरतों तक ने घरों की छत से उन पर पत्थर बरसाये। 
जरा गौर से सोचिये कि सारा बन्दोबस्त रात-दिन एक करके करने वाले यदि 37 पुलिस कर्मियों को कोरोना हो सकता है और पंजाब में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की इसी की वजह से मृत्यु हो सकती है और बीसियों डाक्टरों व चिकित्सा कर्मियों को भी कोरोना अपनी लपेट में ले सकता है तो ऐसे लोगों को ‘कोरोना वीर’ समझने के बजाय अगर उन्हें खलनायक बना कर व्यवहार किया जाये तो कौन सा धर्म और समाज इसे स्वीकार कर सकता है?  
 हम धर्मनिरपेक्ष देश केवल संविधान में लिखने के लिए नहीं हैं बल्कि असलियत में जमीन पर हम इसका पालन करते हैं और जहालत पालने वाले किसी भी व्यक्ति को मनमानी करने की छूट नहीं दे सकते। मजहब या धर्म भारत में किसी भी व्यक्ति का पूरी तरह निजी और नितान्त व्यक्तिगत मामला है। इसके आधार पर समाज में जहालत फैलाने की किसी भी नागरिक को छूट संविधान नहीं देता है। चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, एक नागरिक की हैसियत से पहले उसेे संविधान मानना होगा और बाद में देखना होगा कि वह हिन्दू है या मुसलमान। कोटा में पढ़ने वाले सभी धर्मों को मानने वाले छात्र हैं। इनकी मांग हिन्दू या मुसलमान के नजरिये से नहीं मानी गई है यह योगी और गहलौत की सदाकत है जिसने लाॅकडाऊन के भीतर से रास्ता ढूंढा है और युवा पीढ़ी को संबल प्रदान किया है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com­

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