मोदी वापस क्यों आयेंगे? - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

मोदी वापस क्यों आयेंगे?

2024 के लोकसभा चुनावों में अब साठ दिन का समय भी शेष नहीं बचा है। इन चुनावों की विशेषता यह है कि इसमें सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की तरफ से खड़ा किया गया विमर्श पूरी तरह स्पष्ट और नेतृत्व मूलक है जबकि विपक्षी इंडिया गठबन्धन की तरफ से खड़ा किया जा रहा कोई भी विमर्श एकमुश्त नहीं है और इस गठबन्धन में शामिल 27 राजनीतिक दल अपनी–अपनी सुविधा के अनुसार क्षेत्रीय स्तर पर विमर्श खड़ा कर रहे हैं और ऐलान कर रहे हैं कि वे ही अपने राज्यों में भारतीय जनता पार्टी को शिकस्त दे सकते हैं। स्वतन्त्र भारत की राजनीति में कई ऐसे पड़ाव आये हैं जब विपक्ष ने संगठित होकर सत्तारूढ़ पार्टी को हुकूमत से बेदखल करने में सफलता भी प्राप्त की है और मुंह की भी खाई है। यदि हम 1971 और 1977 के चुनावों का ही विश्लेषण करें तो पायेंगे कि जब विपक्षी दल एकत्रित होकर गोलबन्द इस तरह से होते हैं कि उनके निशाने पर सत्तारूढ़ पार्टी की सरकार की नीतियों के खिलाफ भी कोई एकीकृत विमर्श आम जनता के बीच पहुंच कर उसकी दुखती रग को छूने लगता है तो उनकी विजय हो जाती है। इसका उदाहरण 1977 के लोकसभा चुनाव माने जाते हैं जो कांग्रेस की तत्कालीन इन्दिरा गांधी सरकार के खिलाफ विपक्षी दलों ने एकत्र होकर लड़े थे और जीत हासिल की थी। ये चुनाव जून 1975 से दिसम्बर 1976 तक लागू आन्तरिक इमरजेंसी के विभिन्न प्रावधानों की पृष्ठभूमि में लड़े गये थे। अतः इमरजेंसी का इन्दिरा गांधी द्वारा लागू किया जाना विपक्ष का मुख्य केन्द्रीय विमर्श था । इस दौरान नसबन्दी के नाम पर भारत के आम लोगों पर ‘जौर- जुल्म’ हुआ था और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को समाप्त कर दिया गया था। अखबारों पर सेंसरशिप लागू कर दी गई थी। अतः विपक्ष को सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस के खिलाफ एेसा जनविमर्श खड़ा करने में कोई परेशानी नहीं हुई जो उनके रोजाना की व्यावहारिक जीवन की मुश्किलों से सीधा जुड़ा हुआ था। हालांकि इमरजेंसी के दौरान महंगाई पर पूरी तरह नियन्त्रण था और इन्दिरा गांधी का गरीबों की सहायतार्थ लागू किया जा रहा 12 सूत्री कार्यक्रम भी खूब प्रचारित किया जा रहा था। इसके बावजूद समूचे उत्तरी, पश्चिमी व अंशतः पूर्वी भारत में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया था, मगर दक्षिण भारत के उस समय के चार राज्यों में कांग्रेस का विजयी रथ नहीं रुक सका था और लोकसभा में इसकी 153 सीटें आयी थीं।
इसके पीछे तर्क यह दिया गया था कि इन्दिरा गांधी के 12 सूत्री कार्यक्रम ने दक्षिण भारत के आम लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी औऱ इन क्षेत्रों में इदिरा जी की व्यक्तिगत लोकप्रियता बाकायदा बरकरार रही थी। उत्तर– दक्षिण की राजनीति में यह खड़ा विभाजन पहली बार हमें देखने को मिला था। बेशक लोकतान्त्रिक अधिकारों पर दक्षिण में भी इमरजेंसी के दौरान सरकारी शिकंजा कसा हुआ था मगर अपने दैनिक जीवन की सुगमता की वजह से इस क्षेत्र के लोग इन्दिरा जी से खुश थे। यह तस्वीर का एक पहलू है। दूसरा पहलू इससे पहले हुए 1971 के चुनाव थे । इन चुनावों की एेतिहासिकता इसी बात से सिद्ध होती है कि इनमें किसानों के सबसे बड़े नेता और राजनीति में खरे ईमानदार माने जाने वाले चौधरी चरण सिंह भी एक अनजान कम्युनिस्ट नेता विजयपाल सिंह से मुजफ्फरनगर से चुनाव हार गये थे। इतना ही नहीं देश के सबसे बड़े सेठ टाटा मुम्बई से और बिड़ला जी झुंझुनू से पराजित हो गये थे जबकि क्रिकेट के सुपर स्टार नवाब मंसूर अली खां पटौदी की गुड़गांव क्षेत्र से जमानत जब्त हो गई थी। पूर्व राजा- महाराजाओं की बात करें तो भरतपुर के नरेश बृजेन्द्र सिंह को परास्त होना पड़ा था। इतिहास स्वयं को किस प्रकार दोहराता है, इसकी नजीर भी 2024 के चुनाव होने जा रहे हैं। इन चुनावों से पहले 1969 में कांग्रेस का विभाजन सिंडीकेट (मोरारजी देसाई, कामराज निजलिंगप्पा आदि नेताओं का गुट) व इंडिकेट (इन्दिरा गांधी, जगजीवन राम व फखरुद्दीन अली अहमद का गुट) में हो चुका था और इन्दिरा जी के साथ इन दो नेताओं के अलावा और कोई नेता नहीं था। कांग्रेस के सभी बड़े नेता सिंडिकेट के सदस्य थे। लोकसभा में भी कांग्रेस के सदस्यों का विभाजन हो गया था जिसकी वजह से इन्दिरा जी की सरकार अल्ममत में रह गई थी और वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी व दक्षिण की द्रमुक पार्टी के सहारे अपनी सरकार चला रही थीं। चुनावों से पहले ही उन्होंने 14 बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था और राज-महाराजाओं व नवाबों का प्रविपर्स समाप्त कर दिया था। दोनों ही मामलों में ये कानून इन्दिरा गांधी ने अध्यादेशों की मार्फत लागू किये थे। इन्हें सर्वोच्च न्यायालय मे चुनौती दे दी गई थी जिसने इन्हें गैर कानूनी या असंवैधानिक घोषित कर दिया था। देश में जारी इस राजनीतिक हलचल से आम आदमी सीधे प्रभावित हो रहा था और सोच रहा था कि कल तक जिस इन्दिरा गांधी को विपक्षी नेता ‘गूंगी गुडि़या’ बताया करते थे वह अचानक ही किस तरह शक्ति पुंज्ज बन कर आम आदमी से अपने नेतृत्व का लोहा मनवा रही है। सर्वोच्च न्यायालय से बैंक राष्ट्रीयकरण व प्रिवीपर्स उन्मूलन के रद्द हो जाने के बाद इन्दिरा जी ने लोकसभा भंग करा कर नये चुनाव कराने का फैसला संसद की अवधि मंे एक वर्ष का समय शेष रह जाने के बावजूद किया और जनता को सन्देश दिया कि वह देश से अमीर–गरीब के बीच की खाई को पाटना चाहती हैं दूसरी तरफ विपक्ष के तमाम नेता उन पर आरोप लगा रहे थे कि वह अपनी जिद के आगे संविधान को नहीं मानती हैं । उन्होंने कांग्रेस पार्टी को तोड़ कर अधिनायकवादी रुख अपनाते हुए संगठन से ऊपर व्यक्ति को रखा। तब कांग्रेस के विभाजन की संवैधानिक प्रक्रिया चुनाव आयोग ने पूरी कर दी थी और इन्दिरा जी की कांग्रेस को गाय- बछड़ा व सिंडिकेटी कांग्रेस को चरखा कातती महिला का चुनाव निशान आवंटित कर दिया था। मगर इस पूरे प्रकरण के दौरान भारत के आम जन मानस में यह विमर्श पैठ बना गया था कि इन्दिरा गांधी बड़े सरमायेदारों व राजामहाराजाओं के खिलाफ गरीब आदमी की मदद करने के लिए नीतियां बनाना चाहती है जिसे विपक्ष संविधान और तानाशाही के नाम पर रोक देना चाहता है। इन चुनावों में भारतीय जनसंघ, स्वतन्त्र पार्टी, सिंडिकेट या संगठन कांग्रेस , संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय क्रान्तिदल, बीजू पटनायक की कांग्रेस आदि दलों ने एक साझा गठबन्धन बनाया जिसे ‘चौगुटा’ कहा गया। इन चुनावों में इन्दिरा कांग्रेस की तरफ से नारा दिया गया कि ‘वे कहते हैं इन्दिरा हटाओ, इन्दिरा जी कहती हैं गरीबी हटाओ- अब आप ही चुनिये’। दरअसल उस समय यह कोई नारा नहीं था बल्कि जन विमर्श था क्योंकि विपक्ष जो विमर्श खड़ा कर रहा था उसमें इन्दिरा गांधी को केन्द्र मंे रख कर उहें तानाशाह, अधिनायकवादी, संविधान न मानने वाली और संस्था से ऊपर खुद को मानने वाली व लोकतन्त्र की हत्या करने वाली नेता बताया जा रहा था। जनसंघ उन पर आऱोप लगा रहा था कि सऊदी अरब के रब्बात मुस्लिम सम्मेलन में उन्होंने अपने मन्त्री फखरुद्दीन अली अहमद को भेज कर भारत का अपमान कराया क्योंकि भारत कोई मुस्लिम देश नहीं है। वैसे भी इस सम्मेलन में फखरुद्दीन अली अहमद को प्रवेश नहीं दिया गया था और उन्हें रब्बात से बैरंग वापस कर दिया गया था। मगर इन्दिरा गांधी इस सबकी परवाह न करते हुए केवल एक बात कह रही थीं कि वह गरीबों के हित के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी दे सकती हैं। अब जरा इन परिस्थितियों की तुलना देश के मौजूदा माहौल से कीजिये। सीएए, राम मन्दिर, चुनाव आयोग आदि मुद्दों को लीजिये। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को भी विपक्षी इंडिया गठबन्धन इसी रंग में रंगने की कोशिश कर रहा है और उसके पास कोई एक मुश्त विमर्श नहीं है जो आम जनता के बीच पैठ बना सके।
इसमें शामिल अलग-अलग पार्टियों के नेता श्री मोदी को अलग-अलग मुद्दों पर कटघरे में खड़ा कर रहे हैं और उनकी सरकार पर साम्प्रदायिक एजेंडा चलाने व लोकतन्त्र की हत्या करके स्वयं को संविधान से भी ऊपर मानने की बात कर रहे हैं। मगर नरेन्द्र मोदी इन सबसे बेपरवाह होकर गरीब, अमीर किसान व महिलाओं के उत्थान की नीतियों की बात कर रहे हैं और बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौर में उस विकास माडल को लोगों को दे रहे हैं जो उनके दैनिक जीवन को सीधे प्रभावित करता है। 81 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन और हर घर बिजली व पानी तथा गरीब किसानों को सम्मान निधी व स्वास्थ्य सुरक्षा की आयुष्मान योजना ऐसी नीतियां हैं जिनसे मोदी के बारे में मोदी की गारंटी का विमर्श जन मानस के सिर चढ़ कर बोलता सा दिखाई दे रहा है विपक्ष के सामने सबसे बड़ी चुनौती मोदी ही हैं। अतः 2024 में उनका पुनः सत्ता में लौटना स्वाभाविक राजनैतिक प्रक्रिया है।

– राकेश कपूर 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

2 × five =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।