‘‘जमीन-मकान सब तुम्हें मुबारक
मुझे दादा जी के आदर्शों की वसीयत मिली है,
मेहनत के रास्ते ही मिलता है अपना हक
विरासत में यही नसीहत मिलती है…’’
अक्सर मैं अनेक परिवारों में दादा को पौत्र-पौत्रियों के साथ खेलते देखता हूं तो पाता हूं कि दादा बच्चों का बार-बार हाथ पकड़ते हैं। दादा बच्चों का हाथ इसलिए नहीं पकड़ते कि वह खुद न लड़खड़ा जाए बल्कि इसलिए पकड़ते हैं कि कहीं बच्चे गिर न जाएं। कहते हैं दादा-दादी का अपने पौत्र-पौत्रियों के साथ बहुत स्नेह होता है। यह कहावत बार-बार कही जाती है कि ‘मूल से ज्यादा ब्याज प्यारा होता है।’ जैसे अपनी मां को देखता हूं, उनकी जान मेरे बच्चों में बसती है। शायद आज की तारीख में उन्हें मुझसे ज्यादा मेरे बच्चों से प्यार है और जब बच्चों को दादा-दादी कहते लिपटते, प्यार करते देखता हूं तो मुझे अपने जीवन में इस प्यार की बहुत कमी महसूस होती है। विधि की विडम्बना ही रही कि मेरे पूजनीय दादा श्री रमेश चन्द्र जी की शहादत 12 मई, 1984 को हुई, तब मैं बहुत छोटा था। इस तरह मैं और दो छोटे भाई दादाश्री के स्नेह से वंचित ही रहे।
हर वर्ष जब दादा जी का शहादत दिवस आता तो मैं पूजनीय पिता अश्विनी कुमार को देखता और महसूस करता कि वह भावनाओं के समन्दर में कितना बह रहे हैं। सही अर्थों में दादा जी की कलम की विरासत को सम्भालने का श्रेय एक सम्पादक के तौर पर मेरे पिता श्री अश्विनी कुमार को ही जाता है। मुझे आज स्वयं पर गर्व हो रहा है कि मैं उस परिवार का हिस्सा हूं जिसके दो वट वृक्षों ने राष्ट्र की एकता, अखंडता और साम्प्रदायिक सद्भाव को बरकरार रखने के लिए अपनी जान न्यौछावर कर दी। इस दिन मेरे पिताजी दादा जी की एक छोटी डायरी के पन्नों को पलट-पलट कर देखते और दादा जी की कलम को अपने सामने रखते। आज वही डायरी मेरे हाथ में है, जिनके पन्नों पर श्रीराम चरित मानस की चौपाइयां और गुरुबाणी की पंक्तियां लिखी हुई हैं। एक पन्ने पर लिखा है-
‘‘मेरे राम राय, तू संता का संत,
तेरे सेवक को वो किछु नाही,
जम नहीं आवे नेड़े।’
मुझे आज पिताश्री की कही बातें याद आती हैं। वे कभी-कभी शहादत की पूरी दास्तां सुनाया करते थे। जो कुछ भी मैंने सुना और जितना मैंने पंजाब की सियासत के इतिहास को पढ़कर जाना कि दादा जी ने आतंकवाद के दौर में, सीमा पार की साजिशों, विफल होते प्रशासन, बिकती प्रतिबद्धताओं और लगातार मिल रही धमकियों के बीच शायद जानबूझ कर शाहादत का मार्ग चुन लिया था। पड़दादा लाला जगत नारायण जी पूर्व में ही आतंकवाद का दंश झेल शहीद हो चुके थे। तब कुछ रिश्तेदारों और मित्रो ने समझाया कि जालंधर छोड़ कर कहीं और चले जाएं परन्तु एक ही जिद आयु पर्यत्न उनका शृंगार बनी रही।
असत्य के साथ समझौते से तो अच्छा है कि उस मृत्यु का वरण कर लिया जाए जो राष्ट्र की अस्मिता को समर्पित हो। अन्याय मुझे विवश कैसे कर लेगा? मैं आर्य पुत्र हूं। सत्य लिखना मेरा धर्म है, कलम मेरा ईमान है। मैं सत्यपथ का पथिक हूं। आगे जो मेरा प्रारब्ध, मुझे स्वीकार।
मेरे पिता श्री अश्विनी कुमार ने भी जालंधर से पंजाब केसरी, हिन्द समाचार और जगबाणी का प्रकाशन बंद कर कहीं और जाने की सलाह का कड़ा प्रतिरोध किया। पंजाब केसरी का दिल्ली से प्रकाशन तो एक जनवरी, 1983 में ही शुरू हो चुका था। मेरे पिता जानते थे िक परिवार के पंजाब छोड़ने का अर्थ पंजाब के हिन्दुओं को असहाय छोड़ना और राष्ट्र के विभाजन को निमंत्रण देना होगा। जालंधर से अखबार का प्रकाशन बंद हुआ तो पंजाब का हिन्दू दूसरे राज्यों में पलायन कर जाएगा, क्योंकि उनका नेतृत्व करने वाला कोई रहेगा ही नहीं। उसी दिन मेरे पिता श्री ने दादा की कलम उठाई और लिखना शुरू कर दिया।
दादा जी के संबंध में उन्होंने काफी कुछ लिखा। आज मैं अपना दायित्व पूरा कर रहा हूं। हमारे लिए पत्रकारिता ऐसा न्यायपूर्ण अस्त्र जो अन्याय और असत्य का विरोध करते हुए सामाजिक जीवन में मानवतावादी मूल्यों का पक्षधर है। मेरे दायित्व निर्वाह में मुझे आकाश और अर्जुन का साथ सबल प्रदान करता है। मेरी मां किरण चोपड़ा सामाजिक जीवन में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। हमारे सामने चुनौतियां बहुत हैं, हम आज भी अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। परिस्थितियां कुछ भी हों, यह कलम चलती रहेगी। यही दादा जी को सच्ची श्रद्धांजलि है।
‘‘हमने उन कुन्द हवाओं में जलाए हैं चिराग
जिन हवाओं ने पलट दी है बिसाते अक्सर।’’