आज ही के दिन यानी 11 सितंबर 1893 को स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के शिकागो में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में पूरी दुनिया का दिल जीत लिया था। विवेकानंद ने कहा था- हे अमेरिकावासी बहनों और भाइयों, आपने जिस सौहार्द और स्नेहपूर्णता के साथ हम लोगों का स्वागत किया है। उससे मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। इस एक बात ने अमेरिका सहित पूरे विश्व का दिल जीत लिया था।
124 साल पहले 30 साल की उम्र में विवेकानंद ने लोगों को कर्म का ज्ञान दिया था। उन्होंने कहा था कि मंदिर में बैठे रहने से भगवान नहीं मिलेगा, लोगों की सेवा करने से पुण्य मिलेगा। जहां विदेशों में वह भारत और भारत की संस्कृति का गुणगान करते थे, वहीं देश में आने पर धर्म में आ चुकी रूढ़ियों पर कुठाराघात भी करते थे।
1893 को दिए भाषण के 124 साल पूरे होने के मौके पर जानते हैं कि उन्होंने क्या कहा था-
अमेरिका के बहनों और भाइयो..!!
आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है. मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं. मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं. मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है. मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है. हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं.
मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है. मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इस्त्राइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था. और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी. मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है. भाइयो, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है:
संस्कृत श्लोक –
“रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव”।।
हिन्दी अनुवाद-:
जैसे विभिन्न नदियाँ अलग-अलग स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं ठीक उसी प्रकार से अलग-अलग रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अन्त में भगवान में ही आकर मिल जाते हैं. यह सभा जो अभी तक की सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है, स्वतः ही गीता के इस अदभुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है.
संस्कृत श्लोक –
“ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः”।।
हिन्दी अनुवाद-
जो कोई मेरी ओर आता है वह चाहे किसी प्रकार से हो,मैं उसको प्राप्त होता हूँ. लोग अलग-अलग रास्तो द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं.
सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधमिर्ता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं. इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है. कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है. कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं.
अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है. मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा.
अंत में सब ईश्वर में मिल जाते हैं
विवेकानंद ने कहा था कि जिस तरह अलग-अलग स्त्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में जाकर मिलती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो। भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं। यह सम्मेलन जो आज तक आयोजित की गई सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है।
अायोजन के लिए शहरों में हुई थी वोटिंग
बताते चलें कि साल 1893 का विश्व धर्म सम्मेलन कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज करने के 400 साल पूरे होने पर आयोजित किए गए विशाल विश्व मेले का एक हिस्सा था। अमेरिकी नगरों में इस आयोजन को लेकर इतनी उत्सुकता थी कि अमेरिकी सीनेट में न्यूयॉर्क, वॉशिंगटन, सेंट लुई तथा शिकागो के बीच मतदान कराना पड़ा था, जिसमें शिकागो को बहुमत मिला।
जमशेदजी टाटा थे उसके सहयात्री
इस आयोजन में 2.75 करोड़ लोग शामिल होने आए थे। रोजाना डेढ़ लाख से ज्यादा लोग वहां आते थे और पूरा आयोजन देखने के लिए 150 मील चलना पड़ता था। विवेकानंद 31 मई 1893 को मुंबई से यात्रा प्रारंभ करके याकोहामा से एम्प्रेस ऑफ इंडिया नामक जहाज से वेंकुअर पहुंचे थे, जहां से ट्रेन के जरिये वह शिकागो पहुंचे थे। जहाज में उनके साथ युवक जमशेदजी टाटा भी थे, जो बाद में बड़े उद्योगपति बने।