पंजाब में भारतीय जनता पार्टी अपना जिस तरह कायाकल्प करना चाहती है उसे सकारात्मक दृष्टि से देखा जाना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र में तभी सत्ता पक्ष पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ लोकोन्मुख शासन दे सकता है जबकि विपक्ष में मजबूत पार्टियां खड़ी हों। परन्तु इसके साथ यह भी हकीकत है कि केवल दल-बदल कर आये नेता ही किसी भी पार्टी को भरपूर ताकत नहीं दे सकते। इसकी सबसे बड़ी वजह यह होती है कि दूसरे दल से आये नेता सैद्धान्तिक रूप से अपनी नई पार्टी के साथ विचारधारा की प्रतिबद्धता से गहराई से नहीं जुड़ पाते। बेशक कैप्टन अमरेन्द्र सिंह अपने पिछले 45 वर्षों के राजनैतिक जीवन में केवल एक बार ही 1984 में कांग्रेस छोड़ कर अकाली दल में शामिल हुए थे और फिर वापस भी जल्दी ही आ गये थे, मगर इसके पीछे उनका व्यक्तिगत रोष ही था, सैद्धान्तिक मतभेद नहीं क्योंकि अकाली दल में जाने के बावजूद वह कांग्रेस के सिद्धान्तों पर ही अडिग रहे थे। इसी प्रकार पंजाब कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष श्री सुनील जाखड़ का मामला है। वह अपनी पार्टी में स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगे थे अतः रोष स्वरूप उन्होंने कांग्रेस को त्यागा। लेकिन दूसरी ओर भारत के राजनैतिक इतिहास में हमें कुछ ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जो एक दल से दूसरे दल में आने के बाद अपनी नई पार्टी के सिद्धान्तों के भाष्यकार तक बन गये।
ऐसे नेताओं स्व. आचार्य डा. रघुवीर का नाम लिया जा सकता है जो पचास के दशक में नेहरू मंत्रिमंडल में उपमंत्री थे मगर कांग्रेस की सदस्यता त्याग कर भारतीय जनसंघ में आ गये थे। डा. रघुवीर परम विद्वान थे। जनसंघ ने उन्हें अपना राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया। इसके बाद वह जीवन पर्यन्त जनसंघ में ही रहे और इसकी नीतियों में सुधार करते रहे। पंजाब में कैप्टन सिंह कांग्रेस के सफल मुख्यमंत्री थे। इसके बावजूद राज्य विधानसभा चुनावों से पहले उन्हें पार्टी हाईकमान ने एक तरह से बेइज्जत करते हुए इस्तीफा लिया और उनकी जगह एक नये चेहरे समझे जाने वाले चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना दिया। गद्दी से उतरने के बाद कैप्टन साहब ने अपने मन की बात को छिपाया नहीं और अपने जख्मों को पर्दे में रखने के बजाय साफ किया कि उनके लिए सभी राजनैतिक विकल्प खुले हुए हैं। अतः उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दिया और अपनी अलग पंजाब लोक कांग्रेस गठित की। इसके झंडे के नीचे जब उन्होंने चुनाव लड़ा तो आम आदमी पार्टी के तूफान के आगे वह कहीं नहीं टिक सके और चुनावी मैदान में तिनके की तरह उड़ गये। वह अपनी पुश्तैनी रियासती सीट पटियाला से ही चुनाव हार गये। अतः उन्होंने विगत मई महीने में फैसला किया कि वह अपनी पार्टी का विलय भाजपा में कर देंगे। भाजपा में उनका स्वागत हुआ क्योंकि पार्टी को पंजाब में एक विश्वसनीय सिख चेहरा मिल रहा था। अब भाजपा ने उन्हें अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में नामजद कर दिया है।
इसी प्रकार स्व. बलराम जाखड़ के पुत्र श्री सुनील जाखड़ ने भी चुनावों में अपनी उपेक्षा से त्रस्त होकर और चुनावों में कांग्रेस के बुरी तरह परास्त होने के बाद दो महीने पहले ही पार्टी से इस्तीफा दिया और भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली। सुनील जाखड़ कांग्रेस के टिकट पर पंजाब से संसद के सदस्य भी रह चुके हैं और उनकी गिनती विद्वान सांसदों में होती है। पंजाब की समस्याएं उनकी अंगुलियों पर होती हैं और आम जनता के साथ उनका सीधा संवाद भी रहता है। वह श्री बलराम जाखड़ के सुपुत्र जरूर हैं मगर जमीन के आदमी माने जाते हैं। उन्हें भी भाजपा ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी में नामजद किया है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा का यह कदम दूरदर्शी से भरा हुआ है क्योंकि उसके क्षेत्रीय स्तर पर कोई कद्दावर नेता फिलहाल नहीं है।
हकीकत तो यह है कि पंजाब में स्व. बलराम दास टंडन और डा. कृष्ण लाल के बाद अभी तक भाजपा को कोई बड़े कद का नेता ही नहीं मिल पाया है। एक जमाना था जब भाजपा के पास के विश्वनाथन जैसा कुशल वक्ता नेता होता था और वीर यज्ञदत्त शर्मा जैसा ओजस्वी नायक। इनके बाद राज्य में भाजपा अभी तक नेतृत्व विहीनता से ही जूझ रही है। भाजपा अपना वह दौर वापस लाना चाहती है जब वह राज्य के लोगों की प्रमुख आवाज बन सके। यह भूमिका उसे निश्चित रूप से तभी मिल सकती है जब वह अपने राष्ट्रवादी सिद्धान्तों को आम जनता के बीच लोकप्रिय बना सके।
पिछले चुनाव में भाजपा के केवल दो विधायक ही चुने गये थे जबकि इसने 80 से अधिक स्थानों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। 1967 से इसका अकाली दल से गठबन्धन भी चल रहा था जो कि अब टूट चुका है। मगर यह भी सत्य है कि आम आदमी पार्टी के उदय से अकाली दल का स्थान इस पार्टी ने इस प्रकार भरा है कि कांग्रेस व भाजपा दोनों ही हाशिये पर चली गईं। इन परिस्थितियों में यदि कैप्टन साहब और श्री जाखड़ के आने से भाजपा उठकर खड़ी होने में सक्षम होती है तो यह लोकतंत्र के लिए शुभ होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा