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14 राज्यों में उपचुनाव

विगत शनिवार को 14 राज्यों में कुल 32 विधानसभा व लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनावों का अर्थ एक ही है कि सम्बन्धित राज्यों में चल रही राजनैतिक हवा की गति क्या है

विगत शनिवार को 14 राज्यों में कुल 32 विधानसभा व लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनावों का अर्थ एक ही है कि सम्बन्धित राज्यों में चल रही राजनैतिक हवा की गति क्या है क्योंकि इनके परिणामों से किसी भी राज्य में सत्ता के समीकरणों में गुणात्मक बदलाव आने वाला नहीं है। जिन राज्यों में उपचुनाव हो रहे हैं उनमें सबसे अधिक चर्चित राज्य मध्य प्रदेश रहा है, जहां एक लोकसभा सीट खंडवा व तीन विधानसभाई सीटों पथ्वीपुर, राजगांव (सु.) व जोहट में उपचुनाव हो रहे हैं। इसके साथ ही हिमाचल प्रदेश में भी तीन विधानसभा सीटों फतेहपुर, अरकी व खरदहा में चुनाव हो रहे हैं और मंडी की लोकसभा सीट पर भी उपचुनाव हो रहा है। इस सीट पर राज्य के छह बार मुख्यमन्त्री रहे स्व. वीरभद्र ​िसंह की पत्नी श्रीमती प्रतिभा सिंह कांग्रेस की ओर से चुनाव लड़ रही है जबकि भाजपा ने कारगिल युद्ध के नायकों में से एक रहे ब्रिगेडियर कुशल ठाकुर को मैदान में उतारा है। श्रीमती सिंह पहले भी लोकसभा सदस्य रह चुकी हैं जबकि ब्रिगेडियर के लिए यह रण क्षेत्र नया है। अतः हिमाचल में भी भाजपा के मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर के लिए ये उपचुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न बने हुए हैं।
तेलंगाना राज्य की एकमात्र विधानसभा सीट हुजूराबाद से जिस तरह की खबरें आ रही हैं वे लोकतन्त्र के लिए एक मायने में खतरे की घंटी है। इस उपचुनाव में विरोधी दल कांग्रेस खुल कर आरोप लगा रही है कि सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्रीय समिति ने मतदाताओं को रिझाने के लिए छह से दस हजार रुपए की रिश्वत देकर वोट खरीदने का काम किया है। एेसे ही मिलते-जुलते आरोप मध्य प्रदेश में भी लगाये गये हैं। दरअसल उपचुनाव किसी भी सत्ताधारी या विपक्षी दल के लिए जनादेश नहीं होते बल्कि वे सियासी मौसम की जानकारी देते हैं। एेसा भी अक्सर होता रहा है कि उपचुनावों के परिणाम प्रायः सत्ताधारी दल के पक्ष में जायें परन्तु एेसा भी होता रहा है कि इनके परिणाम विपक्ष के हक में जाते रहे हैं।
सत्तर के दशक तक यह परंपरा सी बन गई थी कि उपचुनाव प्रायः विपक्षी पार्टी के हक में जाया करते थे और तब विपक्ष सत्ताधारी पार्टी से इस्तीफे तक की मांग कर डालता था परन्तु बाद में परिस्थितियों में अन्तर भी आया और सत्ताधारी दल अक्सर उपचुनाव जीतने लगा। कभी-कभी एेसा भी हुआ कि किसी उपचुनाव को देश के प्रधानमन्त्री तक ने अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया। एेसा ही वाकया 80 के दशक में हुआ था जब स्व. इन्दिरा गांधी के एक जमाने में निकटस्थ रहे स्व. हेमवती नन्दन बहुगुणा ने कांग्रेस पार्टी के टिकट पर जीती लोकसभा सीट से इस्तीफा देकर उपचुनाव लड़ा था। उससे पहले उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी। श्री बहुगुणा गढवाल लोकसभा सीट से उपचुनाव लड़े थे और इस चुनाव में श्रीमती गांधी ने सभी पुरानी परंपराओं को तोड़ कर उनके विरुद्ध गढवाल जाकर जम कर प्रचार किया था। इसके बावजूद श्री बहुगुणा विजयी रहे थे। उसके बाद से किसी भी प्रधानमन्त्री ने किसी लोकसभा उपचुनाव में प्रचार करने का जोखिम नहीं उठाया है। तब विपक्ष ने इस उपचुनाव परिणाम को श्रीमती गांधी की व्यक्तिगत पराजय की संज्ञा दी थी।
ताजा उपचुनावों की एक प्रमुख बात यह है कि बिहार राज्य में इनकी वजह से कांग्रेस पार्टी व लालू जी की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का गठबन्धन टूट चुका है। लालू जी की पार्टी दोनों ही सीटों से अकेले चुनाव लड़ रही है। हालांकि बिहार में नीतीश सरकार किनारे के बहुमत पर ही टिकी हुई है मगर इन दोनों सीटों के हारने से भी उसे कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला है। इन सभी उपचुनावों में एक तथ्य साझा है कि चुनावी मुद्दा बढ़ती महंगाई बना हुआ है। विपक्षी पार्टियों ने इसी मुद्दे को जमकर भुनाने का प्रयास किया है अतः परिणामों से हमें यह तो पता लगेगा ही कि आम जनता महंगाई को लेकर किस सीमा तक उद्वेलित है। सत्तारूढ़ पार्टी की तरफ से और विपक्ष की तरफ से भी सभी उपचुनावों में केवल प्रादेशिक नेतृत्व ही जोर आजमाइश कर रहा है जिससे यह पता चलेगा कि प्रादेशिक स्तर पर दोनों पक्षों की कमान कितने मजबूत हाथों में है लेकिन यह भी कम उल्लेखनीय नहीं है कि प. बंगाल की भी चार विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हो रहे हैं।
ममता दी के इस गढ़ में विपक्षी पार्टी भाजपा क्या कोई चोट पहुंचाने के काबिल हुई है? इसका पता भी परिणाम दे देंगे। वहीं राजस्थान में भी दो सीटों पर उपचुनाव हो रहे हैं। इस राज्य में कांग्रेस का घर भीतर से कितना मजबूत है ? इसकी सूचना चुनाव परिणाम देंगे। असम में तो पांच सीटों पर उपचुनाव हो रहे हैं और इस राज्य में विपक्षी पार्टियां सत्तारूढ़ दल पर धन बल से लेकर सभी प्रकार के हथकंडे उपयोग करने के आरोप लगा रहे हैं। परिणाम बता देंगे कि विपक्ष के आरोपों में कितनी सच्चाई है। असलियत यह है कि उपचुनाव समय सापेक्ष सरकारों के काम की तसदीक करते हैं। इसमें जो सरकार सफल रहती है वह जनता की निगाहों में और प्रतिष्ठित हो जाती है और जो असफल होती है वह अपनी कमजोरी की भरपाई करने का प्रयास करती है। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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