कोरोना महामारी के चलते दुनियाभर के लोग घरों में बंद हैं। तेल की मांग काफी घट गई है। इसी बीच अमेरिकी कच्चे तेल की कीमतें इतिहास में पहली बार शून्य से भी नीचे पहुंच गई हैं। यह गिरावट का सबसे निचला स्तर है। हालात ऐसे हो गए हैं कि अमेरिका अब खरीददारों को पैसे देकर तेल खरीदने की गुहार लगा रहा है। यह तो वह हालत हो गई कि कोई घर का सामान भी दे और माल उठाने के लिए पैसे भी दे। तेल खरीददारों को डर है कि तेल नहीं बिका तो उसकी भंडारण करने की समस्या बढ़ेगी। वैस्ट टैक्सस इंटरमीडिएट, जिसे अमेरिकी तेल का बेंच मार्क माना जाता है, में कीमत गिरकर माइनस 37.63 डालर प्रति बैरल हो गई है।
तेल की कीमतों को लेकर सऊदी अरब और रूस में चली जंग तो पिछले दिनों खत्म हो गई थी लेकिन अब तेल बाजार में कोहराम मच गया। दुनिया के पास फिलहाल इस्तेमाल की जरूरत से ज्यादा कच्चा तेल है। यह एक पुराना सिद्धांत है कि जब भी किसी चीज की आपूर्ति बहुत ज्यादा हो जाती है तो उसके दाम गिर जाते हैं लेकिन कोरोना वायरस ने बाजारों पर इतना जबरदस्त प्रभाव डाला कि सब-कुछ ठप्प होकर रह गया है। कोरोना महामारी से बाहर आने के बाद भी दुनिया में तेल की मांग धीरे-धीरे बढ़ेगी लेकिन हालात सामान्य होने में लम्बा समय लग सकता है।
कोरोना वायरस ने अमेरिका को इस कदर जकड़ लिया है कि वहां लाशों के अम्बार लगने लगे हैं। चारों तरफ हताशा का माहौल है। अमेरिकी तेल की कीमतों में गिरावट का भारत को कोई ज्यादा फायदा नहीं मिलने वाला क्योंकि भारत अपनी जरूरतों का 80 फीसदी तेल खाड़ी देशों से खरीदता है और बाकी लंदन ब्रेंट क्रूड तथा अन्य का होता है। मार्च के दूसरे सप्ताह में भी तेल की अन्तर्राष्ट्रीय कीमतों में कमी आई थी। ब्रेंट क्रूड के दाम अब भी 20 डालर से ऊपर बने हुए हैं। भारत को प्रति बैरल कच्चे तेल के लिए पहले 3567.45 रुपए खर्च करने पड़ते थे जो तेल की कीमतों में 30 फीसदी कटौती के बाद 2200 से 2400 रुपए प्रति बैरल खर्च करने पड़ते थे। वर्ष 2020 की शुरूआत में 67 डालर प्रति बैरल यानी 30.08 रुपए प्रति लीटर थी जो मार्च में घटकर 38 डालर प्रति बैरल यानी 17.79 रुपए प्रति लीटर रह गई। इसमें कोई संदेह नहीं कि तेल की कीमतों में कटौती का फायदा भारत को मिल रहा है।
अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में जब कच्चे तेल की कीमत एक डालर गिरती है तो वार्षिक आधार पर भारत के आयात बिल में 29 हजार करोड़ डालर की कमी आती है। भारत दुनिया का तीसरे नम्बर का सबसे बड़ा तेल आयातक है। भारत में प्रति वर्ष 26 हजार करोड़ टन के लगभग कच्चा तेल 23 परिशोधन कारखानों में परिशोधित होता है। जब-जब तेल की कीमतें गिरीं उसका लाभ भारत के उपभोक्ताओं को नहीं मिल रहा। केन्द्र सरकार ने उत्पाद शुल्क बढ़ा कर तेल की कीमतों को पूर्व स्तर पर ही रखा।
कोरोना से भारत की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हुई है। कोरोना वायरस से निपटने के लिए काफी धन खर्च हो रहा है। सरकार गरीबों, दिहाड़ीदार मजदूरों, किसानों, उद्योगों के लिए करोड़ों रुपए के पैकेज दे रही है। मजदूरों के जनधन खातों में पांच-पांच सौ रुपए डाले जा रहे हैं। सरकार को इस समय कहीं से भी राजस्व नहीं मिल रहा। राज्य सरकारें केन्द्र से मदद मांग रही हैं। सरकार के खजाने में अगर अन्तर्राष्ट्रीय तेल की कीमतों में कटौती से बढ़ौतरी हो रही है तो यह धन कोरोना वायरस को पराजित करने के लिए ही खर्च होगा। कोरोना महामारी के बीच अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतों में कटौती भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक वरदान की ही तरह है। रुपए काे फायदा होता है, डालर के मुकाबले उसमें मजबूती आती है और महंगाई काबू में आती है। भारत को तेल की कीमत अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा डालर में चुकानी पड़ती है। तेल की कीमतों में कटौती से विदेशी मुद्रा भंडार पर अधिक बाेझ नहीं पड़ा। भारत अपनी बास्केट में अधिक तेल रखकर भविष्य के प्रति निश्चित हो सकता है। कोरोना संकट के बीच ऐसी मांग उठ रही है कि भारत के गरीब एवं मध्यम वर्गीय परिवारों के खाते में सीधे पांच-पांच हजार रुपए डाले जाएं। सरकार को अगर तेल आयात बिल में कई हजार करोड़ की बचत हो रही है तो सरकार को 30-40 लाख परिवारों को पांच-पांच हजार रुपए देने से भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा और भारत संकट की घड़ी में भी खड़ा रहेगा।
दूसरा पहलु यह भी है कि तेल की कीमत एक लीटर पानी की बोतल से भी कम होने पर उन देशों की अर्थव्यवस्था ध्वस्त होने का खतरा बढ़ गया है जिनकी अर्थव्यवस्था का आधार ही तेल है। अगर तेल उत्पादक देशों की अर्थव्यवस्था लुढ़कती है तो भी भारत इसके प्रभाव से अछूता नहीं रहेगा। यह सही है कि तेल की कीमतें घटने से ही सरकारी योजनाओं के लिए भारी-भरकम धन तो मिलता है लेकिन भारत अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव से बच नहीं सकता।