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किसान आन्दोलन समाप्त हो

आज से संसद का शीतकालीन सत्र प्रारम्भ हो रहा है और इसमें उन तीनों कृषि कानूनों को रद्द कर दिया जायेगा जिन्हें लेकर किसान पिछले एक वर्ष से आन्दोलन कर रहे थे।

आज से संसद का शीतकालीन सत्र प्रारम्भ हो रहा है और इसमें उन तीनों कृषि कानूनों को रद्द कर दिया जायेगा जिन्हें लेकर किसान पिछले एक वर्ष से आन्दोलन कर रहे थे। सवाल यह नहीं है कि केन्द्र की सरकार का यह फैसला राजनीतिक आग्रहों को देखते हुए किया गया है अथवा कृषि क्षेत्र में पैदा हुई बेचैनी को देखते हुए किया गया है, बल्कि असली सवाल यह है कि लोकतन्त्र में लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार ने जनता की मांग पर अपने फैसले पर पुनर्विचार करते हुए कानूनों को अन्तिम रूप से निरस्त कर दिया है। अतः जाहिर तौर पर आंदोलन आगे चलाने का औचित्य अब समाप्त हो चुका है। कुछ लोग प्रश्न खड़ा कर रहे हैं कि सरकारों ने बिना किसानों के मांगे ही इन तीनों कानूनों को संसद में पारित किया था अतः जनता की इच्छा पर उन्हें वापस लेकर उसने किसानों पर कोई एहसान नहीं किया है। यह बात ध्यान रखी जानी चाहिए कि लोकतन्त्र की संसदीय प्रणाली में कोई भी सरकार कोई भी फैसला केवल बहुमत से ही ले सकती है। अतः संसदीय नियमों के अनुसार ही ये तीनों कानून संसद द्वारा पारित किये गये थे। इनका जिस तरह से भारत की सड़कों पर विरोध हुआ उसका संज्ञान लेना भी किसी भी चुनी हुई सरकार का कर्त्तव्य होता है क्योंकि लोकतन्त्र केवल बहुमत की सरकार का नाम नहीं होता, बल्कि यह समावेशी जन इच्छा की व्यवस्था होती है क्योंकि संसद में बैठे हुए विपक्षी सांसद भी जनता द्वारा ही चुने जाते हैं और वे लोकतन्त्र की जनशक्ति का ही प्रतिनिधित्व करते हैं।
 सरकार संसद के माध्यम से आम जनता के प्रति ही उत्तरदायी होती है और यह उत्तरदायित्व उसे इस प्रकार निभाना पड़ता है कि पूरे पांच साल तक उसके द्वारा किये गये फैसलों को जनसमर्थन मिलता रहे। इस जनसमर्थन को बनाये रखने के लिए ही संसदीय कार्यावाही में व्यापक प्रावधान किये गये हैं जिनमें भाग लेकर विपक्ष सरकार की हठधर्मिता को तोड़ने तक की कूव्वत रखता है एेसे सभी मामलों में जनता की इच्छा की जीत होती है क्योंकि सरकार यह आंकलन कर लेती है कि उसके फैसलों का आम  जनता स्वागत नहीं कर रही है। कृषि कानूनों के मामले में जमीन पर जो वातावरण बना उससे सरकार को सन्देश मिल गया कि कहीं न कहीं इन कानूनों को लेकर किसानों के मन में सन्देह उपज रहा है अतः एक लोकप्रिय और बहुमत की सरकार के मुखिया होने के नेता प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने इन कानूनों को वापस लेने की घोषणा विगत 19 नवम्बर को इस क्षमा याचना के साथ कर दी कि वह इनकी उपयोगिता के बारे में किसानों के एक वर्ग को समझाने में असमर्थ रहे। मगर इसके समानान्तर यह भी हकीकत है कि कृषि क्षेत्र में एेसे संशोधनों की आवश्यकता है जिससे कृषि लगातार लाभ का सौदा बना रहे और किसान को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य लगातार मिलता रहे । मगर यह काम हम लकीर के फकीर बन कर नहीं कर सकते इसके लिए ऐसे आधारभूत परिवर्तन लाने होंगे जिनसे किसानों की अर्थव्यवस्था में भागीदारी को बढ़ाया जा सके। इस सिलसिले में केन्द्रीय भूतल परिवहन मन्त्री श्री नितिन गडकरी की यह योजना किसानों का भाग्य बदलने वाली साबित हो सकती है जो उन्होंने मोटर वाहन उद्योग व टैक्नोलोजी से इस क्षेत्र को जोड़ने की बनाई है और किसानों को ‘अन्नदाता’ के साथ ‘ऊर्जादाता’ बनाने की ठानी है। गन्ने के रस से मोटर ईंधन, पैट्रोल व डीजल का विक्लप तैयार करके कृषि क्षेत्र में क्रान्ति की शुरूआत होनी निश्चित है । इसके लिए मोटर वाहन उद्योग में टैक्नोलोजी संशोधन करके फ्लैक्स इंजिन की शुरूआत हो चुकी है जिसमें वाहन चालक को छूट होगी कि वह अपनी मोटर महंगे पैट्रोल से चला सके अथवा सस्ते गन्ने के रस से तैयार ईंधन इथनाल से। यह ऐसा परिवर्तन है जिसे हम आने वाले दस सालों में अपनी आंखों से देखेंगे। अतः केवल गेहूं व चावल के न्यूनतम समर्थन मूल्य को आधार बना कर किसानों को लम्बे समय तक इस गलतफहमी में नहीं रखा जा सकता है कि इसे कानूनी अधिकार बना कर ही उनकी सभी समस्याओं का हल निकल आयेगा। हम देख रहे हैं कि बदलती टैक्नोलोजी ने आज हर प्रमुख क्षेत्र की सूरत बदल कर रख दी है तो कृषि क्षेत्र को हम किस प्रकार लावारिस बनाये रख सकते हैं। वैसे भी कोई भी सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को संवैधानिक अधिकार में नहीं बदल सकती है और किसानों की उपज की समस्त खरीदारी की गारंटी नहीं दे सकती है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि किसान का उत्पादन हर नागरिक की मूलभूत आवश्यकता होती है जिसे खरीदने के लिए वह सरकार पर निर्भर नहीं कर सकता है। 
दूसरी तरफ अनाज व अन्य जिंसों के बड़े बाजार को देखते हुए सरकार के सारे आर्थिक स्रोत इसी खरीदारी में डूब जायेंगे। कृषि क्षेत्र भारत की सामान्य बाजार प्रणाली से बाहर नहीं है। यह प्रणाली ही कृषि उपजों की व्यवस्था इस प्रकार करती है कि साल के 12 महीनों हर कृषि उत्पाद की आपूर्ति लगातार होती रहे। मगर किसान को सुरक्षित रखने के लिए कृषि उपज मंडियों की जरूरत को भी तब तक नहीं नकारा जा सकता जब तक कि कृषि क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन इस रूप में न आ जायें कि किसान अपनी खेती का विविधीकरण करते हुए बाजार की बदलती जरूरतों के मुताबिक अपनी उपज का अधिकाधिक मूल्य न प्राप्त कर सके। अतः किसान संगठन तीनों कृषि कानूनों के रद्द हो जाने के बाद अब जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी अधिकार बनाने की मांग कर रहे हैं वे किसानों के भविष्य को लकीर का फकीर बना देना चाहते हैं।  1966 में न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली लागू करने की मुख्य वजह यह थी कि खुले बाजार में कालाबाजारी न हो और किसान के लिए आवश्यक कच्चे माल की कीमतों पर भी लगाम लगी रह सके। क्योंकि भारत में अनाज महंगा होने का मतलब होता है चौतरफा महंगाई। अतः जनहित व राष्ट्रहित की मांग यही है कि अब किसानों को अपना आन्दोलन समाप्त करके भविष्य को उज्जवल बनाने की राह पर चल पड़ना चाहिए। सरकार ने ऐसे सभी मुद्दों पर विचार करने के लिए जिस समिति का गठन करने का फैसला किया है उसमें किसानों को अपने प्रतिनिधि भेज कर अपना पक्ष पुख्ता तरीके से रखना चाहिए। उहें यह भी सोचना चाहिए कि तीनों कानून रद्द होने के साथ ही उनके आन्दोलन को मिली जनता की सहानुभूति लुप्त हो चुकी है क्योंकि उनकी मांगें मान ली गई हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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