समलैंगिक विवाह को लेकर देश के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष जो बहस चल रही है उसे लेकर देश के वकीलों की सबसे बड़ी संस्था बार काऊंसिल आफ इंडिया ने अपील की है कि माननीय न्यायालय इस विषय पर संवैधानिक या कानूनी पेंचों में न उलझते हुए इसे देश की विधायिका अर्थात संसद के विचारार्थ छोड़ दे क्योंकि इस मसले का सम्बन्ध भारत की विशद सामाजिक-सांस्कृतिक व धार्मिक संरचना से जुड़ा हुआ है। पहली नजर में बार काऊंसिल की राय भारत की विविधता को देखते हुए खरी लगती है और यह माना जा सकता है कि समलैंगिक विवाह का मसला कहीं से सामाजिक प्रगति या विकासमूलक सोच से नहीं बंधा हुआ है बल्कि इसके उलट यह समाज के तबके में पल रही उस वर्जना का प्रतिबिम्ब है जो यूरोपीय समाज में आये परिवर्तनों को आदर्श व प्रगतिमूलक मानता है।
भारतीय समाज आज भी परिवार की उस व्यवस्था को आदर्श मानता है जिसे ‘संयुक्त परिवार’ कहा जाता है। बार काऊंसिल ने एक प्रस्ताव पारित करके कहा है कि केवल संसद ही इस देश के लोगों की इच्छा का उचित प्रतिनिधित्व करती है। अतः इस बारे में कोई भी निर्णय उसी पर छोड़ा जाना चाहिए। पश्चिम के सामाजिक प्रतिमानों का आंख मींच कर अंधानुकरण करना किसी भी तर्क से बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती क्योंकि वहां के समाज में अपने परिवार के बुजुर्गों के सम्मान को लेकर जिस तिरस्कार का भाव है उसे लेकर भारत के हिन्दू समाज से लेकर मुस्लिम समाज तक में सीधे नर्क या दोजख का रास्ता माना जाता है। मनुष्य के विकास की गाथा के शोधार्थी मानते हैं कि प्रारम्भ में यह समाज मातृ-मूलक या मातृ सत्तात्मक ही था जिसे पिता की अवधारणा बाद में आयी और बाद में दोनों स्त्री-पुरुष ने मिल कर परिवार की संरचना को गढ़ा। परिवार शब्द स्वयं में ही दो विपरीत लिंग के व्यक्तियों के सम्मिलन का समुच्य है। अतः यदि दो समलैंगिक व्यक्ति किसी परिवार की कल्पना करते हैं तो उसे वर्जना के अतिरिक्त क्या कहा जा सकता है? परन्तु कथित आधुनिकता के आवेश में आकर हम समाज की उस स्थापना को नहीं उलट सकते जिसके बलबूते पर पूरी सृष्टि का सृजन हुआ है।
स्त्री और पुरुष को बराबर के अधिकार देने का यह मतलब कैसे हो सकता है कि दोनों की शारीरिक संरचना को भी हम एक समान कर दें और स्त्री को मां बनने के मिले सबसे बड़े वरदान या प्रकृति की भेंट को आधुनिकता पर कुर्बान कर दें। बार काऊंसिल ने अपने प्रस्ताव में कहा है कि भारत के 99.9 प्रतिशत लोग समलैंगिक विवाहों के विरुद्ध हैं। इस देश के मात्र कुछ लोगों को छोड़ कर शेष सभी लोग मानते हैं कि समलैंगिक विवाह के पक्षधर लोगों के हक में यदि सर्वोच्च न्यायालय कोई फैसला देता है तो वह इस देश के सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक नियमों व मान्यताओं के खिलाफ होगा। बार कौंसिल ने विभिन्न राज्यों की बार काऊंसिलों के साथ संयुक्त बैठक करने के बाद निष्कर्ष निकाला कि यदि सर्वोच्च न्यायालय इस विषय में स्वयं को किसी भी प्रकार से संलिप्त करता है तो इसके असर से भारत के समाज में आगामी दिनों में अव्यवस्था पैदा हो सकती है। अतः देश के सर्वोच्च न्यायालय से बार काऊंसिल प्रार्थना करने के साथ अपेक्षा भी करती है कि वह भारत के लोगों की भावनाओं का सम्मान करेगा और जनादेश को समझेगा। काऊंसिल ने यह भी कहा है कि विभिन्न राज्यों की बार एसोसिएशनों के साथ विचार-विमर्श में यह मत भी सामने आया कि सभी इस बात पर एक राय हैं कि मामले की संजीदगी को ध्यान में रखते हुए समलैंगिक विवाह के बारे में विधायिका विभिन्न सामाजिक व धार्मिक संगठनों के साथ सलाह-मशविरा करने के बाद ही कोई नतीजा निकाले। धार्मिक मान्यताओं को यदि छोड़ भी दें तो वैज्ञानिक सोच भी यही कहती है कि जब तक दो विपरीत ध्रुव ‘ऋण व धन’ नहीं मिलते तब तक नव सृजन की सम्भावना बन ही नहीं सकती। कानून निष्टित रूप से समाज में कुरीतियां दूर करने व इसे सुस्थापित करने के लिए बनते हैं और सामाजिक भेदभाव व ऊंच-नीच को दूर करने के लिए बनते हैं और स्त्री-पुरुष को बराबरी का दर्जा देने के लिए बनते हैं मगर उनके बीच के प्रकृति जन्य गुणों को दूर करने का जब कोई विचार समाज में आता है तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है क्योंकि इसके प्रभाव से समूची मानवता ही प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती। मानवता कहती है कि हर स्त्री-पुरुष को उसका अधिकार मिलना चाहिए। अतः परिवार की संरचना में न तो पुरुष किसी स्त्री का स्थान ले सकता है और न ही स्त्री किसी पुरुष का अधिकार ले सकती है।