लोकतन्त्र में राजनैतिक प्रतिद्वंदिता लगातार चलने वाली प्रक्रिया का नाम होता है। भारत की बहुदलीय राजनैतिक संसदीय प्रणाली के तहत इसके विभिन्न राज्यों में जिस प्रकार सत्ताधारी व विपक्षी दलों की भूमिका बदलती है उससे लोकतन्त्र में और भी ज्यादा रंगत आती है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि केन्द्र से लेकर राज्यों की राजनैतिक उठापटक में स्वनिर्मित सन्तुलन बना रहता है। इससे लोकतन्त्र में निरंकुश सत्ताभाव पनपने का नाम नहीं लेता। इस मामले में क्षेत्रीय दलों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है जो लोगों की क्षेत्रीय भावनाओं को राष्ट्रीय लक्ष्यों से जोड़ते हैं।
1967 के बाद भारत की राजनीति में जो परिवर्तन आया उससे राष्ट्रीय स्तर पर भी राजनैतिक दलों की भूमिका में परिवर्तन आया। केन्द्र की वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा इसी प्रक्रिया से उपजा प्रतिफल कहा जायेगा जिसने अखिल भारतीय स्तर पर ‘समाजवाद’ के स्थान पर ‘राष्ट्रवाद’ को कारगर विकल्प बनाने में सफलता प्राप्त की किन्तु इस प्रक्रिया में गांधीवादी समाजवाद की अलम्बरदार पार्टी कांग्रेस लगातार सिकुड़ती गई और कई राज्यों में तो इससे ही अलग हुए घटक प्रभावी तौर पर विकल्प बन कर उभरे।
इनमें महाराष्ट्र, प. बंगाल व आंध्र प्रदेश का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है। उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़े राज्य में भी इससे ही निकले लोकतान्त्रिक कांग्रेस (नरेश अग्रवाल गुट) ने इसे हाशिये के पार खड़ा करने में 90 के दशक में निर्णायक भूमिका निभाई। महाराष्ट्र में श्री शरद पंवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस ने इसकी ताकत को आधा कर दिया जबकि आन्ध्र में जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस इसे पूरी तरह समाविष्ट कर गई। प. बंगाल में तो ममता दीदी की तृणमूल कांग्रेस ने इसे निपटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अतः केरल के वायनाड से लोकसभा में पहुंचे कांग्रेस के अध्यक्ष श्री राहुल गांधी के सामने चुनौती पूरी तरह नये अन्दाज में आई है।
केरल से लोकसभा की कुल 20 सीटों में से 19 पर इस पार्टी नीत संयुक्त लोकतान्त्रिक मोर्चे के प्रत्याशियों की विजय से स्पष्ट है कि इस राज्य में भी प. बंगाल की तरह वामपंथियों की पकड़ से चुनावी राजनीति छूट रही है। इसका मतलब यही है कि वामपंथी विचारधारा का मूल विमर्श भारतीय राजनीति में असगत होता जा रहा है। इसकी वजह आर्थिक मोर्चे पर वह नीतिगत आमूल-चुल परिवर्तन है जिस पर भाजपा व कांग्रेस कमोबेश एक-दूसरे से सहमत हैं। यह आर्थिक उदारवाद का पूंजीगत बाजार मूलक चेहरा है जिसे लेकर दोनों पार्टियों में विभिन्न मतभेदों के बावजूद मतैक्य जैसा है। अतः इन बदली हुई परिस्थितियों में कांग्रेस को अपना अस्तित्व बनाये रखते हुए अपने प्रभाव में विस्तार के लिए ऐसे नेताओं की जरूरत पड़ेगी जो सामाजिक बनावट में पीछे रह गये लोगों की अपेक्षाओं को आवाज दे सके।
ऐसे ही नेताओं ने भूतकाल में कांग्रेस के सत्ताधारी पार्टी रहते हुए उसकी कथित संभ्रान्त राजनीति के विरुद्ध आवाज उठाई थी। ऐसे नेताओं की बहुत लम्बी फेहरिस्त है जिन्होंने कांग्रेस का दामन छोड़कर समाज के पिछड़े या दबे हुए वर्ग को सत्ता में समुचित भागीदारी दिलाने के लिए जंग छेड़ी। बिना किसी शक के इनमें सबसे बड़ा नाम स्व. चौधरी चरण सिंह का रहा जिन्होंने 1967 में कांग्रेस छोड़ने के बाद पूरे उत्तर भारत में गांधीवादी समाजवाद का ग्रामीण चेहरा मुखर किया और राष्ट्रवाद व समाजवाद के बीच एक तीसरी नई धारा का उदय करके कांग्रेस व जनसंघ (भाजपा) के लिए चुनौती पैदा कर दी।
समय ने एक बार फिर कांग्रेस पार्टी को बुरी तरह कमजोर हो जाने और आम जनता से नाता टूट जाने की वजह से वैसी ही परिस्थितियां पैदा कर दी हैं जो कमोबेश चार दशक पहले थीं। ऐसे नेताओं में हमें फिलहाल सिर्फ श्री शरद यादव नजर आते हैं जो राजनैतिक रूप से चौधरी चरण सिंह की विरासत भी थामे हुए हैं और समाजवादी नेता स्व. डा. राम मनोहर लोहिया के सिद्धान्तों के साथ ही गांधीवादी विकास के मानकों के ध्वज वाहक हैं। सवाल यह है कि क्या उन्हें कांग्रेस में पार्टी में उसी तरह नहीं लाया जाना चाहिए जिस तरह 80 के दशक में स्व. इंदिरा गांधी स्व. हेमवती नन्दन बहुगुणा को लाई थीं। बेशक श्री बहुगुणा कांग्रेस में ही थे मगर उनके राजनैतिक जीवन की शुरूआत समाजवादी तेवरों के साथ ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक छात्र नेता के रूप में हुई थी।
उत्तर प्रदेश, बिहार व मध्यप्रदेश से लेकर हरियाणा आदि उत्तर भारतीय राज्यों में श्री यादव की पहचान ग्रामीण भारत के कुशाग्र व कर्मठ राजनीतिज्ञ के रूप में होती है और उनकी आवाज को गांवों व कस्बों में रहने वाले किसानों व मजदूरों के बीच ‘लोकशास्त्र के दोहों’ की तरह सुना जाता है। कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी यही हो गई है कि सामान्य नागरिक से इसका राब्ता बहुत कमजोर हो चुका है। इस कमजोर धागे को ‘मांजे’ की जरूरत है जिससे यह पार्टी आम जनता के बीच अपनी पैठ बनाने में फिर से कामयाब हो सके और लोगों की समस्याएं उन्हीं के हिसाब से राष्ट्रीय धरातल पर पहुंचाने में कामयाब हो सके। मैंने केवल एक उदाहरण भर दिया है।
पूरे भारत में न जाने कितने एसे राजनीतिज्ञ बिखरे पड़े हैं जो संरचनात्मक स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। यदि कांग्रेस पार्टी को केवल गांधी-नेहरू परिवार के नाम पर ही जमीनी सफलता मिलनी होती तो निश्चित रूप से इतनी जबर्दस्त हार इस पार्टी की लोकसभा चुनावों में न हुई होती और श्री राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद छोड़ने की पेशकश भी न की होती। यह परिवार ही इस पार्टी को बांधे रख सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं है मगर इसे मजबूत बनाने में तो अन्ततः आम जनता के साथ राब्ता कायम करने वाले और सामाजिक अपेक्षाओं को बुलन्द हसरत देने वाले नेताओं की जरूरत पड़ेगी। इस मुद्दे पर गौर करना इसलिए जरूरी है क्योंकि भारत को एक मजबूत विपक्ष की भी जरूरत है।