समूचे विश्व की नज़रें तुर्की के चुनावों पर लगी हुई थीं। मतदान पूर्व सर्वेक्षणों में कहा गया था कि तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोगन को 50 फीसदी से कम वोट मिलेंगे और वह पुनः राष्ट्रपति नहीं बन पाएंगे लेकिन तुर्की की जनता ने उन्हें 53 फीसदी मत देकर पुनः राष्ट्रपति बना दिया। एर्दोगन ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी मुहर्रम इन्स को बड़े अंतर से हराया। पिछले वर्ष तुर्की के संविधान में संशोधन हुआ और वहां अब संसदीय प्रणाली की जगह अध्यक्षीय प्रणाली लागू हो गई है। इसके साथ ही एर्दोगन को राष्ट्रपति के तौर पर असीमित शक्तियां प्राप्त होंगी। एर्दोगन के साथ कोई अन्य प्रधानमंत्री नियुक्त नहीं होगा। देश में उपराष्ट्रपति, मंत्रियों और शीर्ष अधिकारियों की नियुक्ति के साथ उन्हें न्यायपालिका के फैसलों में भी दखल देने की शक्ति हासिल होगी।
एर्दोगन की महत्वाकांक्षा उम्रभर सत्ता के शिखर पर बने रहने की है और हो सके तो वह खुद को तुर्की का नया सुल्तान ही नहीं, पूरे इस्लामी जगत का खलीफा भी घोषित करना चाहते हैं। तुर्की में नए संविधान के अनुमोदन के लिए अप्रैल, 2017 में जब जनमत संग्रह हुआ था तब उसे केवल 51.4 फीसदी मतदाताओं का समर्थन मिल पाया था। कहा जा रहा था कि बहुत से मतदाता व्यापक अधिकारों के संभावित दुरुपयोग के डर से एर्दोगन को वोट नहीं देंगे लेकिन तुर्की की जनता ने उनका मार्ग प्रशस्त कर दिया। अब 8 जुलाई को दूसरे दौर का मतदान होगा। उसमें भी एर्दोगन के ही जीतने के आसार हैं।
एर्दोगन ने जुलाई 2016 में सेना द्वारा कथित तख्तापलट के प्रयास के बाद दो वर्षों से जमकर तानाशाही दिखाई। व्यापक अत्याचार किए। आज भी 50 हजार लोग तख्तापलट के प्रयासों में शामिल होने पर या एर्दोगन के एक समय के घनिष्ठ मित्र और अब उनकी नज़र में बड़े शत्रु फेहतुल्ला का समर्थक होने के शक में जेलों में बंद हैं। हजारों लोगों को देश छोड़कर भागना पड़ा। पत्रकार जेलों में बंद हैं, अखबारों आैर टी.वी. चैनलों के कार्यालयों पर ताले लगे हुए हैं। एक तरह से वन मैन शो चल रहा है। दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश में अपनी ही भूमि पर अपनी ही जनता के एक हिस्से पर टैंकों से गोले बरसाए जाते हैं। दुनिया कितनी भी मानवाधिकारों की दुहाई दे, लेिकन जब तुर्की कुर्दों का नरसंहार करता है तो कोई कुछ नहीं कहता। तुर्की की सेना जब चाहे तब कुर्दों को मारने के लिए सीरिया और इराक में घुस जाती है तो कोई नहीं बोलता। उसे टैंक और गोले जर्मनी जैसे देशों से मिलते हैं।
तुर्की में हुए चुनावों से जनता की जीत नहीं हुई बल्कि एक तानाशाह को सर्वशक्तिमान बना दिया गया है। क्या तुर्की के चुनाव को लोकतंत्र का उत्सव कहा जा सकता है। यह कैसे चुनाव हैं जिसने मीडिया की आजादी, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, नागरिकों के अधिकारों को ही समाप्त कर दिया है। हालांकि विपक्षी दलों ने चुनाव नतीजों को स्वीकार तो कर लिया लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि इन चुनावों को भयमुक्त माहौल में सम्पन्न और निष्पक्ष नहीं कहा जा सकता। दो वर्ष से वहां आपातकाल लागू है, केवल एक ही पक्ष का प्रचार किया गया है। मनमाने ढंग से चुनाव कानून बदल दिए गए। तुर्की के चुनाव ने लोकतंत्र की जड़ें ही काट दी हैं। आधुनिक तुर्की के संस्थापक कमाल अतातुर्क के बाद से एर्दोगन तुर्की के सबसे ताकतवर नेता हो गए हैं।
ऐसा माना जा रहा है कि संसदीय चुनावों में कुर्द समर्थक पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की भूमिका निर्णायक साबित हो सकती है। यदि संसद में दाखिल होने के लिए जरूरी दस प्रतिशत मत उसे मिल जाते हैं तो एर्दोगन की पार्टी को अपना वर्चस्व बनाए रखने में मुश्किल होगी। तुर्की की आधी आबादी एर्दोगन की अंध समर्थक है तो दूसरी कट्टर विरोधी। उनके समर्थकों में ज्यादातर लोग रूढ़िवादी मुस्लिम हैं। इनका मानना है कि उनके नेता ने तुर्की में आर्थिक सुधार किए आैर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर देश को सम्मानजनक स्थान दिलाया है। एर्दोगन की शुरूआती उपलिब्धयों में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार आैर मौत की सजा खत्म करना शामिल है। पिछले वर्ष मई में एर्दोगन दिल्ली आए थे और उन्हें जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में डाक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया था। भारत आैर तुर्की के संबंध प्रगाढ़ बनाने के लिए चर्चा हुई। तुर्की और भारत के संबंध विरोधाभासी हैं। संयुक्त राष्ट्र में तुर्की भारत की स्थाई सदस्यता आैर परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भारत की सदस्यता का समर्थन तो करता है लेकिन वह पाकिस्तान को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में शामिल करने की वकालत भी करता है। वह पाकिस्तान को लड़ाकू हैलीकाप्टर भी देता है। देखना है कि तुर्की के भविष्य में क्या लिखा है। फिलहाल तुर्की में लोकतंत्र की कुर्की हो चुकी है।